सुप्रभातम्: क्यों भगवान श्रीकृष्ण को शुकदेवजी के जन्म लेने से पहले गर्भ में ही उनको देनी पड़ी जमानत, कल्याण का मार्ग दिखाने वाला संवाद

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

महर्षि वेदव्यास और शुकदेवजी में हुआ बहुत ही ज्ञानवर्धक संवाद हुआ जो मोहग्रस्त सांसारिक प्राणी को कल्याण का मार्ग दिखाने वाला है ।

ज्ञान, सदाचार और वैराग्य के मूर्तिमान रूप शुकदेवजी महर्षि वेदव्यास के तपस्याजनित पुत्र हैं। संसार में किस प्रकार की संतान की सृष्टि करनी चाहिए, यह बताने के लिए ही व्यासजी ने घोर तप किया वरना महाभारत की कथा साक्षी है कि उनकी दृष्टिमात्र से ही कई महापुरुषों का जन्म हुआ था ।

महर्षि वेदव्यास जाबलि मुनि की कन्या वटिका से विवाह कर वन में आश्रम बनाकर रहने लगे। वृद्धावस्था में व्यासजी को पुत्र की इच्छा हुई। व्यासजी ने भगवान गौरीशंकर की विहारस्थली में घोर तपस्या की। भगवान शंकर के प्रसन्न होने पर व्यासजी ने कहा–’भगवन्! समाधि में जो आनन्द आप पाते हैं, उसी आनन्द को जगत को देने के लिए आप मेरे घर में पुत्र रूप में पधारिए। पृथ्वी, जल, वायु और आकाश की भांति धैर्यशाली तथा तेजस्वी पुत्र मुझे प्राप्त हो।’ व्यासजी की इच्छा भगवान शंकर ने स्वीकार कर ली।

शिवकृपा से व्यासपत्नी वाटिकाजी गर्भवती हुईं। शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान उनका गर्भ बढ़ने लगा और गर्भ बढ़ते-बढ़ते बारह वर्ष बीत गए परन्तु प्रसव नहीं हुआ। व्यासजी की कुटिया में सदैव हरिचर्चा हुआ करती थी जिसे गर्भस्थ बालक सुनकर स्मरण कर लेता। इस तरह उस बालक ने गर्भ में ही वेद, स्मृति, पुराण और समस्त मुक्ति-शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। वह गर्भस्थ शिशु बातचीत भी करता था ।

महर्षि व्यास और गर्भस्थ शुकदेव संवाद

गर्भस्थ बालक के बहुत बढ़ जाने और प्रसव न होने से माता को बड़ी पीड़ा होने लगी। एक दिन व्यासजी ने आश्चर्यचकित होकर गर्भस्थ बालक से पूछा—‘तू मेरी पत्नी की कोख में घुसा बैठा है, कौन है और बाहर क्यों नहीं आता है ? क्या गर्भिणी स्त्री की हत्या करना चाहता है?’

गर्भ ने उत्तर दिया—‘मैं राक्षस, पिशाच, देव, मनुष्य, हाथी, घोड़ा, बकरी सब कुछ बन सकता हूँ, क्योंकि मैं सभी चौरासी …योनियों में भ्रमण करके आया हूँ; इसलिए मैं यह कैसे बतलाऊँ कि मैं कौन हूँ ? हां, इस समय मैं मनुष्य होकर गर्भ में आया हूँ। मैं इस गर्भ से बाहर नहीं निकलना चाहता क्योंकि इस दु:खपूर्ण संसार में सदा से भटकते हुए अब मैं भवबंधन से छूटने के लिए गर्भ में योगाभ्यास कर रहा हूँ। जब तक मनुष्य गर्भ में रहता है तब तक उसे ज्ञान, वैराग्य और पूर्वजन्मों की स्मृति बनी रहती है। गर्भ से बाहर आते ही भगवान की माया के स्पर्श से ज्ञान और वैराग्य छिप जाते हैं; इसलिए मैं गर्भ में ही रहकर यहीं से सीधे मोक्ष की प्राप्ति करुंगा।’

व्यासजी ने कहा—‘तुम इस नरकरूप गर्भ से बाहर आ जाओ, नहीं तो तुम्हारी मां मर जाएगी। तुम पर वैष्णवी माया का असर नहीं होगा। मुझे अपना मुखकमल दिखला कर पितृऋण से मुक्त करो।’

गर्भ ने कहा—‘मुझ पर माया का असर नहीं होगा, इस बात के लिए यदि आप भगवान वासुदेव की जमानत दिला सकें तो मैं बाहर निकल सकता हूँ, अन्यथा नहीं ।’ इस बहाने शुकदेवजी ने जन्म के समय ही भगवान श्रीकृष्ण को अपने पास बुला लिया।

व्यासजी तुरन्त द्वारका गए और भगवान वासुदेव को अपनी कहानी सुनाई। भक्ताधीन भगवान जमानत देने के लिए तुरन्त व्यासजी के साथ चल दिए और आश्रम में आकर गर्भस्थ बालक से बोले—‘हे बालक ! गर्भ से बाहर निकलने पर मैं तुझे माया-मोह से दूर करने की जिम्मेदारी लेता हूँ, अब तू शीघ्र बाहर आ जा।’

भगवान श्रीकृष्ण के वचन सुनकर बालक गर्भ से बाहर आकर भगवान व माता-पिता को प्रणाम कर वन की ओर चल दिया। प्रसव होने पर बालक बारह वर्ष का जवान दिखायी पड़ता था। उसके श्यामवर्ण के सुगठित, सुकुमार व सुन्दर शरीर को देखकर व्यासजी मोहित हो गए ।

पुत्र को वन जाते देखकर व्यासजी ने कहा—‘पुत्र घर में रह जिससे मैं तेरा जात-कर्मादि संस्कार कर सकूँ।’

बालक ने उत्तर दिया—‘अनेक जन्मों में मेरे हजारों संस्कार हो चुके हैं, इसी से मैं संसार-सागर में पड़ा हुआ हूँ ।’

भगवान ने व्यासजी से कहा—‘आपका पुत्र शुक की तरह मधुर बोल रहा है इसलिए पुत्र का नाम ‘शुक’ रखिये। यह मोह-मायारहित शुक आपके घर में नहीं रहेगा, इसे इसकी इच्छानुसार जाने दीजिए। इससे मोह न बढ़ाइए। पुत्रमुख देखते ही आप पितृऋण से मुक्त हो गये हैं ।’ ऐसा कहकर भगवान द्वारका चले गए।

इसके बाद व्यासजी और शुकदेवजी में बहुत ही ज्ञानवर्धक संवाद हुआ जो मोहग्रस्त सांसारिक प्राणी को कल्याण का मार्ग दिखाने वाला है-

व्यासजी—‘जो पुत्र पिता के वचनों के अनुसार नहीं चलता है, वह नरकगामी होता है ।’

शुकदेवजी—‘आज मैं जैसे आपसे उत्पन्न हुआ हूँ, उसी प्रकार दूसरे जन्मों में आप कभी मुझसे उत्पन्न हो चुके हैं । पिता-पुत्र का नाता यों ही बदला करता है ।’

व्यासजी—‘संस्कार किए हुए मनुष्य ही पहले ब्रह्मचारी, फिर गृहस्थ, फिर वानप्रस्थ और उसके बाद संन्यासी होकर मुक्ति पाते हैं।’

शुकदेवजी—‘यदि केवल ब्रह्मचर्य से ही मुक्ति होती तो सारे ब्रह्मचारी मुक्त हो जाते। गृहस्थ में मुक्ति होती तो सारा संसार ही मुक्त हो जाता। वानप्रस्थियों की मुक्ति होती तो सब पशु क्यों नहीं मुक्त हो जाते? और यदि धन के त्यागने से ही मुक्ति होती है तो सारे दरिद्रों की सबसे पहले मुक्ति होनी चाहिए थी ।’

व्यासजी—‘वनवास में मनुष्यों को बड़ा कष्ट होता है, वहां सारे देव-पितृ कर्म हो नहीं पाते हैं; इसलिए घर में रहना ही अच्छा है।’

शुकदेवजी—‘वनवासी मुनियों को समस्त तपों का फल अपने-आप ही मिल जाता है, उनको बुरा संग तो कभी होता ही नहीं है।’

व्यासजी—‘यमराज के यहां एक ‘पुत्’ नामक घोर नरक है। पुत्रहीन मनुष्य को उसी नरक में जाना पड़ता है; इसलिए संसार में पुत्र होना आवश्यक है ।’

शुकदेवजी—‘यदि पुत्र से ही सबको मुक्ति मिलती हो तो कुत्ते, सुअर, कीट-पतंगों की मुक्ति अवश्य हो जानी चाहिए ।’

व्यासजी—‘इस लोक में पुत्र से पितृऋण, पौत्र देखने से देवऋण, और प्रपौत्र के दर्शन से मनुष्य समस्त ऋणों से मुक्त हो जाता है।’

शुकदेवजी—‘गीध की तो बहुत बड़ी आयु होती है। वह तो न मालूम कितने पुत्र-पौत्र-प्रपौत्र का मुख देखता है, परन्तु उसकी मुक्ति तो नहीं होती है ।’

श्रीशुकदेवजी समस्त जगत को अपना ही स्वरूप समझते थे, अत: उनकी ओर से वृक्षों ने व्यासजी को बोध दिया–’महाराज ! आप ज्ञानी हैं और पुत्र के पीछे पड़े हैं। कौन किसका पिता और कौन किसका पुत्र ? वासना पिता बनाती है और वासना ही पुत्र बनाती है। जीव का ईश्वर के साथ सम्बन्ध ही सच्चा है। पिताजी मेरे पीछे नहीं, परमात्मा के पीछे पड़िए।’

शुकदेवजी वृक्षों द्वारा ऐसा ज्ञान देकर वन में जाकर समाधिस्थ हो गए। वे अब भी हैं और अधिकारी मनुष्यों को दर्शन देकर उपदेश भी करते हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *