सुप्रभातम्: अब तो चेतो मेरे भाई

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

हमारे धर्म ग्रन्थ तथा धर्माचार्य यही उपदेश देते हैं कि मानव जीवन दुर्लभ है। अतः इसका सदुपयोग बड़ी सुलभता से किया जाना चाहिये। मानव शरीर को अति दुर्लभ इसलिये बतलाया गया है, क्योंकि यह हमें अनायास ही नहीं मिला है बल्कि हमारे अनन्तानन्त पूर्वजन्म के पुण्य कर्मों के संस्कारों तथा ईश्वर की अहैतुकी कृपा के फलस्वरूप प्राप्त हुआ है। धर्मशास्त्र बतलाते हैं कि यह शरीर हमें चौरासी लाख योनियों की जीवन यात्रा पूर्ण करने के बाद उपलब्ध हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मनुष्य शरीर बड़े सौभाग्य से मिला है। जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है।

बड़े भाग मानुष तनु पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथहि गावा।।

संत महात्मा कहते हैं कि देवयोनि भोग योनि है और पुण्य कर्मों के भोग पूरे होने के बाद फिर अन्य योनियों में जाना पड़ता है। देव योनि में कोई नया शुभ कर्म नहीं किया जा सकता, यही कारण है कि देवता भी मनुष्य शरीर के लिये लालायित रहते है। केवल मनुष्य योनि ही ऐसी योनि है जिसमें जीवात्मा पूर्वजन्मों के कर्मों का भोग करने के साथ साथ नये शुभ कर्म करके परमपद अर्थात् मोक्ष का अधिकारी बन सकता है।

जन्म से पूर्व मनुष्य जब माता के गर्भ में रहता है। तब वह मल-मूत्र तथा विष्टादि में उल्टा लटका हुआ रहता है। कष्टप्रद नारकीय जीवन व्यतीत करता है। अतः ईश्वर से आर्तभाव से प्रार्थना करता है कि प्रभो मुझे इस यातना से मुक्ति दिलाओ। मैं नित्य आपकी सेवा करूंगा, भक्ति करूंगा, लेकिन बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि संसार में आने के साथ ही अपना वचन भूल जाता है और माया के प्रभाव में आकर पुनः पूर्वजन्म की तरह संसार में आसक्त हो जाता है। शंकराचार्य कहते हैं –

वालरत्तावत् क्रीड़ा सक्तस्तरूणस्तावत् तरूणीरक्तः।

वृद्धस्तावच्चिन्तामग्नः पारे ब्रह्माणि कोपि न लग्न।

अर्थात् जब तक बच्चा रहा खेलने में डूबा रहा, जब जवान हुआ तो सांसारिक धन्धों और विषयों में फंसा रहा और जब बूढ़ा हो गया तो चिन्ताओं में डूब गया। ईश्वर का ध्यान कभी किया ही नहीं। बस आज या कल पर टालते-टालते मृत्यु का ग्रास बन बैठा।

संत शिरोमणि कबीरदास जी की इस चेतावनी को वह जीवन भर भुलाये रहता है।

कबीरा गर्व न कीजिये, काल गहे कर केस।

ना जानौ कित मारिहैं, क्या घर क्या परदेस।।

ऐसा यह संसार है जैसा सेमर फूल।

दिन दस के व्यवहार में झूठे रंग न भूल।।

जीवन की क्षण भंगुरता की ओर ध्यान आकर्शित करते हुये कबीर पुनः फरमाते है।

रात गंवाई सोय करि, दिवस गंवायो खाय।

हीरा जनम अमोल यह, कौड़ी बदले जाय।।

आये है सो जायेंगे, राजा रंक फकीर।

इक सिंहासन चढ़ चले इक बन्धे जंजीर।

माली आवत देखि कै कलियां करे पुकारि।

फूली फूली चुनि लई काल्ह हमारी वारि।

माटी कहै कुम्हार कौं तू क्यों रौदें मोहि।

इक दिन ऐसा आयेगा मैं रौदूंगी तोहि।

मनुष्य जीवन एक दोराहा है जिससे दो विपरीत मार्ग निकलते हैं। एक को प्रेम मार्ग और दूसरे को श्रेय मार्ग कहा गया है। प्रेम मार्ग संसार की ओर जाता है, जबकि श्रेय मार्ग हमें ईश्वर की ओर प्रवृत करता है। प्रेम मार्ग हमारे शरीर की आवश्यकताओं के लिये है, आकर्षक है, रमणीय है। इस मार्ग का पथिक बन जाने पर मनुष्य प्राकृतिक भोगों और भौतिक समृद्धियों के जाल में फंस जाता है क्योंकि वित्तैशणा, पुत्रैशणा और लोकैशणा के संस्कार उसे जन्म से ही मिलने आरम्भ हो जाते हैं। जन्म से लेकर मनुष्य माता-पिता तथा बन्धु बान्धवों के सम्पर्क में आता है। फिर व्यापार आदि व्यवसाय से जुड़ता है। अपना परिवार बनाता है। अपने शरीर, धन, हैसियत से वह यश कमाने का लोभ पालने लगता है। भौतिकता के इस राग रंग और चकाचौँध में वह सब भूल जाता है कि जीवन का वास्तविक लक्ष्य क्या है ? मैं कौन हूं ? कहां से आया हूं ? मुझे कहां जाना है ? मुझे क्या करना चाहिये ? और मैं क्या कर रहा हूं ? इन सब बातों का स्मरण उसे वृद्धावस्था में जाकर होता है। पाप की गठरी सिर पर लदी होने के कारण वह चिंताग्रस्त रहता है। पश्चाताप करने के अलावा उसके वष में कुछ नहीं रहता। खाओ पिओ और मौज उड़ाओ की वृति में जीवन यापन करने वाला जीवात्मा जब संसार से विदा होता है तो उसकी स्थिति हारे हुये जुआरी अथवा पराजित योद्धा की तरह होती है। कबीर दास जी जीवन की इस चिंतनीय दशा पर तरस खाते हुये कहते हैं –

चार पहर धंधे गया, तीन पहर गया सोय।

एक प्रहर नाम बिन, तेरी कैसे मुक्ति होय।।

मनुष्य अपनी तरूणावस्था में यही सोचता है कि अभी तो मेरी उम्र ही कितनी हुई ? सारा जीवन पड़ा है ईष्वर का भजन सुमिरन करने के लिये। जब गृहस्थी की जिम्मेदारियों से मुक्त होंगे तब भजन साधन कर लेगें लेकिन कबीर साहब कहते हैं कि कल किसने देखा है, जो करना है सो आज ही कर लो।

काल्ह करै सो आज कर, आज करै सो अब्ब।

पल में परलै होयगी, बहुरि करैगा कब्ब।

कितनी विशाल है आत्मा की जीवन यात्रा? अनादि और अनन्त इसके दो छोर हैं। जिसकी कोई सीमा नहीं। मृत्यु के बाद जीवन फिर मृत्यु और फिर जन्म। ’पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्’ का यह क्रम अनवरत रूप से चलता ही रहता है। केवल मुक्तावस्था में इसका पहिया विश्राम लेता है। इसलिये मोक्ष को षास्त्रों में जीवन का अंतिम साध्य या पुरूषार्थ कहा गया है। इस स्थिति में आत्मा आनंद स्वरूप परमात्मा के सांनिध्य में रमण करने लगती है। जीवन का इस ओर उन्मुख होना ही श्रेय मार्ग की ओर अग्रसर होना है। यही कल्याण का सर्वोत्तम मार्ग है।

स्वंय अनुभव किया हुआ व्यक्ति ही बता सकता है कि मैं अनेक बार मरा हूं, मर कर फिर पैदा हुआ हूं, जन्म लेकर मरा हूं, लाखों सहस्त्रों शरीर देखे हैं। हजारों लाखों योनियों में गया हूं। कितने ही प्रकार के भोजन मैंने किये हैं। कितनी ही प्रकार की मातायें मैंने देखी है और उनके स्तनों का दुग्धपान किया है। कितने ही पिता और बन्धु बान्धव मैनें देख हैं, कितनी ही बार उल्टा होकर लटका हूं, कितने ही संकटों को मैंने सहा है। इन सब संकटों और आपत्तियों का समाधान परमेश्वर से मिले बिना कैसे होगा। कभी हुआ नहीं और होगा भी नहीं।

आदि ग्रंथ गुरूवाणी कहती है –

विनु हरि भजन नहीं छुटकारा, कहि नानक एहो संत विचारा।

महापुरूष समझाते हैं कि तीन उपलब्धियां अत्यंत दुलर्भ हैं। प्रथम मनुष्य जन्म, द्वितीय किसी सच्चे संत का सानिध्य और तीसरा है भगवद्भजन में रूचि होना। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि पुत्र, पति और धन सम्पत्ति आदि संसार के नश्वर पदार्थ तो सबको सुलभ हो जाते हैं लेकिन संत का मिलन और हरि की कृपा मिलना दुलर्भ है।

संत समागम हरि कथा, तुलसी दुर्लभ होय।

सुत दारा अरू लक्ष्मी, पापी के भी होय।।

संसार के विषयों में आसक्ति जितनी सहज है ईश्वर के भजन में अनुरक्ति उतनी ही कठिन है। इसलिये भगवान शंकर पार्वती जी से कहते हैं –

सुनहुं उमा ते लोग अभागी, हरि तजि होहिं विशय अनुरागी।

भगवान शंकर जी का कथन सत्य है कि ऐसे लोग निष्चित तौर पर अभागे हैं जो भगवद्भजन छोड़कर सांसारिक विषयों में अपने आपको लपेटते हैं। संसार में धन हीन, रोगी, पुत्रहीन, आवासहीन, माता पिता विहीन, पति पत्नि विहीन होना उतना भाग्य हीन होना नहीं है जितना कि भजन साधन हीन होकर विषयानुरागी होना। हमारे धर्मग्रंथों में कितना सुन्दर उपेदश दिया गया है –

अश्वत्थे वो निशदनं पर्णे वो वसतिश्कृता।

गोभाज इत्किलासथ यत्सनवथ पुरूषम्।। (यजु 12/79)

अर्थात् हे मानव जो कल तक रहे न रहे ऐसे क्षण भंगुर संसार में तुम्हारा निवास है। पर्ण के समान चंचल संसार में तुम स्थित हो। इस पर भी तुम इन्द्रियों की सेवा में अनुरक्त हो। आओ अब तो उस पूर्ण पुरूष परमात्मा की आराधना कर लो।

हे मोह – मदिरा में उन्मत जीव चेतो पता नहीं कल क्या होने वाला है। संतजन कहते हैं कि मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है भगवत्प्राप्ति। इसका सीधा सा अर्थ हुआ कि मनुष्य को यह जीवन प्रभु के भजन सुमिरन के लिये ही मिला है। परन्तु अफसोस यह है कि वह गफलत की गहरी नींद में सो रहा है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, आलस्य और प्रमाद लूट रहे हैं। जिससे वह वेखबर है। मनुश्य देह भोग के लिये नहीं वरन योग के लिये अर्थात् ईश्वर से जुड़ने के लिये मिली है। भोग तो मनुष्य ने सृष्टि के प्रारम्भ से लेकर अब तक खूब कर लिया है। यहां तक कि इन्द्रपद को प्राप्त करके भी उसकी तृप्ति नहीं हुई है। इतिहास साक्षी है कि राजा ययाति एक हजार वर्ष तक विषय भोग करने के बाद अतृप्त ही रहे हैं। राजा भतृहरि ने वैराग्य शतक में कहा है कि जिसकी समस्त कामनायें पूर्ण हो चुकी हैं, सब बन्धु बान्धव एवं मित्रगण भी चल बसे हैं। केवल प्राण ही एकमात्र बचा है जो असहाय और निर्बल हो चुका है। वह व्यक्ति भी मृत्यु का नाम सुनकर भयभीत हो उठता है। मरना नहीं चाहता। एक बार यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा – इस संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ? युधिष्ठिर ने कहा – प्रतिदिन मनुष्य मृत्यु लोक में जा रहे हैं किन्तु जो बचे हैं वे चाहते हैं कि वे सदा जीवित रहें। इससे बड़ा आश्चर्य क्या है ?

धन्य है वे लोग जिन्हें मनुष्य जीवन के प्रारम्भिक काल में ही यहां विवेकी तथा वैराग्यवान पुरूष या सच्चे संत का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है। परन्तु प्रारम्भिक काल में यदि यह सुअवसर एवं सौभाग्य प्राप्त न होकर जीवन के अन्तिम पड़ाव में भी प्राप्त होता है तब भी इस अवसर को चूकना नहीं चाहिये, क्योंकि यह अवसर फिर नहीं मिलेगा। जैसा कि संत कबीरदास जी फरमाते हैं –

अवसर वार वार नही आवे।

चाहे तो करि लेह भलाई, जन्म जन्म सुख पावै।

तन, मन, धन, ये नहीं कछु अपना, छाड़ि पलक में जावे।।

तन छूटे धन कौन काम का, किरपन कोह कहावे,

सुमिरन भजन करो साहिब का जाते जीउ सुख पावे।।

कहै कबीर पग धरै पथ पर जनक जन न सतावै।

अब तो चेतो मेरे भाई, उठो जागो और चल पड़ो उस परब्रह्म की ओर जहां जाने के बाद फिर लौटना नहीं पड़ता। तब आवागमन के चक्र को सदा के लिये विराम लग जाता है। संत कबीर दास जी कहते हैं कि पता नहीं यही ष्वास हमारे जीवन का अंतिम श्वास हो। अतः इससे पहले कि हम काल का ग्रास बन जाये हमें सावधान हो जाना चाहिये।

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