हिमशिखर धर्म डेस्क
महादेव देवों के देव हैं। वे ही आदि हैं और अंत भी। वे मनुष्य की चेतना के अंतर्यामी हैं। वे साकार और निराकार दोनों ही रूपों में पूजे जाते हैं। वे सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के अधिपति देव हैं। काल महाकाल रूप में वे ज्योतिष के आधार हैं। शिव का अर्थ होता है कल्याण करने वाले लेकिन वे लय और प्रलय दोनों को ही अपने भीतर समाहित किए हैं।
भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए भक्त रोजाना तरह-तरह के जतन करते हैं। शिव को समझना अपने ही जीवन के विस्तार को समझना है। अपने प्रिय देव के स्वरूप पर अगर भक्त दृष्टि डालें तो वे पाएंगे कि शिव से ही सृष्टि कायम है।
शिव का तीसरा नेत्र
शिव को हमेशा त्रयंबक कहा गया है, क्योंकि वे त्रिनेत्रधारी हैं। उनके तीसरे नेत्र का अर्थ है बोध या अनुभव का एक अलग आयाम। दो आंखें सिर्फ भौतिक चीजों को देख सकती हैं और अगर हम अपने दोनों नेत्रों को बंद कर लें तो हम चीजों के परे नहीं देख पाते हैं।
शिव के तीसरे नेत्र का अर्थ यही है कि वे भौतिकता के भी परे जाते हैं और चीजों के बोध से हमें अवगत कराते हैं। दो आंखें इंद्रियां हैं और वे हमेशा भौतिकता ही देखती हैं जबकि अगर आपके जीवन में बोध है तो आप इस भौतिकता से ऊपर उठ सकते हैं। शिव का स्वरूप हमें अपने इस गुण की स्मृति कराता है।
हम जीना भूलकर रोजमर्रा की गतिविधियों में लगे हैं
चंद्रमा के स्वामी शिव के कई नाम हैं और उनमें एक प्रचलित नाम सोम या सोमसुंदर भी है। वैसे तो सोम का मतलब चंद्रमा है लेकिन सोम का असल अर्थ नशा है। नशा केवल बाहरी पदार्थ के सेवन से ही नहीं होता है बल्कि अपने भीतर चल रही जीवन प्रक्रिया में भी आप मदमस्त रह सकते हैं। हमारे लिए जीवन का महत्व इसलिए कम हो गया है क्योंकि हम जीना भूलकर सिर्फ रोजमर्रा की गतिविधियों में ही लगे हुए हैं। जब हम जीवन को भरपूर तरीके से जीने लगते हैं तो हमें उसका आनंद प्राप्त होता है।
शिव का वाहन नंदी
नंदी अनंत प्रतीक्षा का प्रतीक है। हमारी संस्कृति में धैर्य को अद्भुत गुण माना गया है। जो धैर्य नहीं रख सकते हैं वे ध्यान तक भी नहीं पहुंच पाते हैं। नंदी असीम धैर्य की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। वह इस आशा में नहीं नजर आता है कि शिव बस आते ही होंगे बल्कि वह इस तरह बैठा कि शिव जब भी आएंगे तब तक वह यहीं बैठा रहेगा। अपने भगवन की आस में। मंदिरों में उसका मुख शिव की ओर रहता है मानो प्रतीक्षा के समय भी उसका ध्यान अपने ईष्ट पर ही लगा है। किसी मंदिर में जाते हुए हमारे भीतर नंदी जैसा धैर्य होना चाहिए कि हम वहां बैठ सकें।
शिव का त्रिशूल
जीवन के तीन मूल पहलुओं को भगवान शंकर का त्रिशूल बताता है। योग परंपरा में उसे रुद्र, हर और सदाशिव कहा जाता है। ये जीवन के तीन मूल आयाम हैं जिन्हें कई रूपों में दर्शाया गया है। इन्हें ही इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना भी कहा जाता है। ये तीनों प्राणमय कोष यानी मानव तंत्र के ऊर्जा शरीर में मौजूद तीन मूलभूत नाड़ियां हैं- बाईं, दाहिनी और मध्य। इड़ा और पिंगला जीवन के बुनियादी द्वैत के प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या ये आपके दो पहलू तर्कबुद्धि और सहज ज्ञान भी हो सकते हैं।
गले में विषधर
योग संस्कृति में सर्प कुंडलिनी का प्रतीक है। यह आपके भीतर की वह ऊर्जा है जो फिलहाल उपयोग नहीं आ रही है। कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है तो आपको पता भी नहीं चलेगा कि उसका कोई अस्तित्व है। जब उसमें हलचल होती है तभी आपको महसूस होता है कि आपके अंदर इतनी शक्ति है। जब तक वह अपनी जगह से नहीं हिलती-डुलती उसका अस्तित्व नहीं के बराबर होता है। यह जमीन पर रेंगने वाला जीव है लेकिन शिव ने उसे गले में धारण कर रखा है तो इसका अर्थ यही है कि वह आध्यात्मिकता का शिखर है।
शिव यानी परमपुरुष
शिव की दो काया है। एक वह, जो स्थूल रूप से व्यक्त किया जाए, दूसरी वह, जो सूक्ष्म रूपी अव्यक्त लिंग के रूप में जानी जाती है। शिव की सबसे ज्यादा पूजा लिंग रूपी पत्थर के रूप में ही की जाती है। लिंग शब्द को लेकर बहुत भ्रम होता है। संस्कृत में लिंग का अर्थ है चिह्न। इसी अर्थ में यह शिवलिंग के लिए इस्तेमाल होता है। शिवलिंग का अर्थ है : शिव यानी परमपुरुष का प्रकृति के साथ समन्वित-चिह्न।