सुप्रभातम्: कलयुग में पाप से मुक्ति का उपाय

हिम शिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

पाप मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं। मन से दूसरे का अहित सोचना, वचन से दूसरे के प्रति कुशब्दों का उच्चारण कर देना तथा शरीर से दूसरे को किसी प्रकार की हानि पहुँचा देना। पाप किसी प्रकार का हो, अपने मन में अशाँति उत्पन्न करता है। मनुष्य अन्दर ही अन्दर घबराता है। मनुष्य अपने पाप को जब तक मन में छिपाये रहता है, तब तक आत्मग्लानि का शिकार रहता है।

जिस तरह गीता में पाप के कई कारण बताये गया हैं, उसी तरह तरह गीता में पाप कर्मों से मुक्ति का उपाय भी बताया गया है। गीता में कर्म, भक्ति, ज्ञान और अनुशासन के माध्यम से मन और कर्मों को शुद्ध करने का मार्ग बताया गया है। आप किस तरह इनकी मदद से पाप कर्म से मुक्ति पा सकते हैं।

गीता में यह बताया गया है कि व्यक्ति को निष्काम कर्म के माध्यम से अपने कर्मों को शुद्ध करना चाहिए। यानि कर्म करते समय फल की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। इससे आत्मिक विकास, स्वतंत्रता और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

भक्ति:
भगवान के प्रति आदर और भक्ति के माध्यम से भी पाप कर्मों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। भक्ति और आदर के साथ किए गए कर्म शुद्ध होते हैं और उनका फल भी शुभ होता है।

ज्ञान:
गीता में ज्ञान का महत्व बताया गया है। ज्ञान के माध्यम से हम अपने कर्मों को सही दिशा में ले सकते हैं और अच्छे-बुरे का फर्क कर सकते हैं।

अनुशासन:
अनुशासन के माध्यम से भी हम अपने कर्मों को शुद्ध कर सकते हैं। यह हमें सही मार्ग पर चलने में मदद करता है।

इस प्रकार, भगवत गीता के अनुसार पाप कर्मों से मुक्ति पाने के लिए ये मार्ग अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि आप और भी गहराई से जानना चाहते हैं, तो आपको गीता के अध्यायों को ध्यान से पढ़ना चाहिए।

निष्काम कर्म

गीता में यह बताया गया है कि व्यक्ति को निष्काम कर्म के माध्यम से अपने कर्मों को शुद्ध करना चाहिए। यानि कर्म करते समय फल की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। इससे आत्मिक विकास, स्वतंत्रता और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

भक्ति:
भगवान के प्रति आदर और भक्ति के माध्यम से भी पाप कर्मों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। भक्ति और आदर के साथ किए गए कर्म शुद्ध होते हैं और उनका फल भी शुभ होता है।

इस प्रकार, भगवत गीता के अनुसार पाप कर्मों से मुक्ति पाने के लिए ये मार्ग अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यदि आप और भी गहराई से जानना चाहते हैं, तो आपको गीता के अध्यायों को ध्यान से पढ़ना चाहिए।

पाप क्या है? पुण्य किसे कह सकते हैं? साधारणतः यह कहा जा सकता है कि जिन कर्मों से मनुष्य नीचे गिरता है, उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, उसे पाप कहते हैं? इसके विपरीत जिन शुभ कर्मों को करने से बुद्धि स्वच्छ, निर्मल होने लगती है और आत्मा सन्तुष्ट रहती है, वे पुण्य हैं। पाप से मन में कुविचार और कुकर्मों के प्रति कुवृत्ति उत्पन्न होती है, पुण्य से अन्तःकरण शुद्ध होता है।

यों तो मनुष्य को पाप करते ही स्वयं मालूम हो जाता है कि मुझसे पाप हो गया है किन्तु फिर भी शास्त्रों के अनुसार ऐसे पाप हैं, जिनसे सदा सर्वदा बचना चाहिए। मुख्य रूप से महापातक हैं- (1) ब्रह्महत्या अर्थात् वेदज्ञ, तपस्वी, ब्राह्मण की हत्या करना। (2) सुरापान, मद्यपान ऐसा पाप है जिसमें मनुष्य पतन की ओर झुकता है कुविचार और कुकर्म की और प्रवृत्ति होती है। (3)  चोरी करना- इसमें हर प्रकार की चोरी सम्मिलित है। चोरी का माल स्वयं नष्ट हो जाता है और घर में जो धर्म की कमाई होती भी है, उसे नष्ट कर डालता है। (4) महापातकियों के साथ रहना एक पाप है, क्योंकि उनके संसर्ग से कुप्रवृत्ति पैदा होती है। इनके अतिरिक्त अनेक उपपातक, अर्थात् छोटे-छोटे पाप हैं, जिनसे सावधान रहना चाहिए। ये बहुत से हो सकते हैं, पर मुख्य रूप से इस प्रकार हैं- (1) गो-वध, (2) अयोग्य के यहाँ यज्ञ करना, (3) व्यभिचार (4) अपने को बेच देना, (5) गुरु, माता, पिता की सेवा न करना, (6) वेदाध्ययन का त्याग, (7) अपनी सन्तान का भरण-पोषण न करना, (8) बड़े भाई के अविवाहित होते अपना विवाह करना, (9) कन्या को दूषित करना, (10) सूद पर रुपया लगाना, (11) ब्रह्मचर्य व्रत का अभाव, (12) विद्या को बेचना, (13) निरपराधी जीवों का वध करना। जैसे भोजन के लिए चिड़ियों, मछलियों इत्यादि को मारना, (14) ईंधन के लिए हरे वृक्ष को काट डालना। वृक्ष में जीव है। हरा वृक्ष काट डालना एक प्रकार से हत्या करने के समान ही है। (15) अभक्ष पदार्थों को खाना। माँस, मदिरा, अंडा इत्यादि खाने से बुद्धि विकारमय होती है और पाप में प्रवृत्ति होती है। अतः सदा सात्विक आहार ही खाना चाहिए, (16) अग्निहोत्र न करना, (17) अपने ऊपर चढ़ा हुआ कर्ज न चुकाना, (18) गन्दी पुस्तकें पढ़ना। इससे मनुष्य मानसिक व्यभिचार की ओर अग्रसर होता है, खुराफातों से मन भर जाता है। मन के समस्त पाप इस प्रकार के कुचिन्तन से ही प्रारम्भ होते हैं। पर-द्रव्य, पर-स्त्री, पराई वस्तुओं को लेने की इच्छा, व्यर्थ का अहंकार, ईर्ष्या, द्वेष आदि सब कुचिन्तन के ही पाप हैं। मन में अनिष्ट चिन्तन होने से मनुष्य वाणी से पाप करता है, असत्य भाषण, चुगली, असम्बद्ध प्रलाप और कठोरता की वाणी बोलता है। इसी प्रकार शरीर से होने वाले अनेक पाप हैं जैसे हिंसा, पर दारा सेवन, दूसरे की वस्तुओं पर बलपूर्वक अधिकार आदि। इनमें से प्रत्येक की उत्पत्ति तब होती है, जब मनुष्य के मन में कुविचार का जन्म होता है। बीज में वृक्ष की तरह शरीर में वासनायें छिपी रहती हैं। तनिक-सा प्रोत्साहन पाकर ये उद्दीप्त हो उठती हैं और गन्दगी की ओर प्रेरित करती हैं। मन के गुप्त प्रदेश में छिपी हुई ये गन्दी वासनायें ही हमारे गुप्त शत्रु हैं। वासना बन्धन का, नाश का, पतन और अवनति का प्रधान कारण है। काम-वासनाएं अठारह वर्ष की आयु से उत्पात मचाना प्रारम्भ करती हैं और 45 वर्ष की आयु तक भयंकर द्वन्द्व मचाती रहती हैं, दुष्कर्म की ओर प्रवृत्त करती हैं। विवेकी पुरुष को वासना की भयंकरता से सदा सावधान रहना चाहिए। वासना ही साँसारिक चिन्ताओं को उत्पन्न करने वाली विभीषिका है।

पाप से कैसे बचें?

महत्व इसका है कि उपर्युक्त पापों से छुटकारा कैसे हो? पाप का जन्म मनुष्य के मन में होता है अतः मानस-सुधार ही जड़-मूल है। मन की स्वच्छता से ही पाप से बचाव का कार्य प्रारम्भ होना चाहिए मन को शुद्ध सात्विक विचारों से परिपूर्ण रखना, मौन, मनोनिग्रह, सौम्यता, प्रसन्नता आदि मानसिक साधनायें करते रहना चाहिए। मन में किसी प्रकार के विकार के आते ही सावधान हो जाना चाहिए।

वाणी से पाप न कीजिए। अर्थात् उद्वेग करने वाला कुसत्य मत बोलिये, प्रिय और हितकारक भाषण कीजिए। अच्छी पुस्तकों का स्वाध्याय कीजिए, आत्मा को प्रिय और आत्मा के आदेश के अनुकूल कर्म का अभ्यास करते रहिये।

शरीर के पापों से मुक्ति के लिए पहले स्नान द्वारा शुद्धता प्राप्त कीजिए। स्वच्छ वस्त्र धारण कीजिए। ब्रह्मचर्य का अभ्यास सरलता अर्थात् आडम्बर शून्यता, अहिंसा, देवता, ब्राह्मण गुरु तथा विद्वानों की पूजा शरीर के पापों से मुक्ति के अमोध उपाय हैं। इन सब की प्राप्ति इन्द्रियों के संयम से अनायास ही हो जाती है। कहा भी है :-

यतेन्द्रिय मनो बुद्धि मुनि मोक्ष परायणः। विगतेच्छा भय क्रोधो यः सदा मुक्त एव सः॥(गीता 5-28)

अर्थात् इन्द्रियों, मन और बुद्धि को संयम में रखने वाला मुनि मोक्ष परायण होता है। इच्छा, मन और क्रोध से, फिर मुक्त होकर वह जीवन मुक्ति की अवस्था में विचरता है।

रव्यापनेनानुतापेन, तपसाअव्ययनेन च। पापकृत्युच्यते पापात्, तथा दानेन चापादि॥(मनु. 11-227)

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