छिन्नमस्ता या ‘छिन्नमस्तिका’ दस महाविद्यायों में से एक हैं। छिन्नमस्ता देवी के हाथ में अपना ही कटा हुआ सिर है तथा दूसरे हाथ में खड्ग है।
हिमशिखर धर्म डेस्क
आपने छिन्नमस्ता देवी का चित्र देखा होगा, जिसमें उनके गर्दन पर सिर की बजाय खून की धार फूटती है और यही खून उनके ही हाथ में रखा हुआ उनका सिर पीता है।
वास्तव में देवी छिन्न मस्ता के गूढ़ रहस्य को जानने के लिए जब हम दुर्लभ हिन्दू धर्म के थोड़े बहुत बचे ग्रंथों को खंगालते हैं तब हम देवी की अथाह शक्ति की थोड़ी सी जानकारी मिलती है की देवी छिन्नमस्ता ही हर जीव के मूलाधार चक्र में विराजमान कुण्डलिनी शक्ति की मूर्त रूप हैं।
कुण्डलिनी जागरण के बाद शुरू होता है असली दुनिया को जानना क्योंकि तब साधक अपने सूक्ष्म शरीर से पहुंच जाता है। महा स्थान में (कुछ ग्रंथों में महा स्थान को कृष्ण का शरीर कहा जाता है) और इस महा स्थान में समय का कोई अस्तित्व नहीं है तथा ये महा स्थान एक ऐसा गेट वे (रास्ता) है जिससे श्री कृष्ण के बनाये अनन्त ब्रह्मांडो में जाया जा सकता है।
यहाँ पहुँच कर सभी साधकों की बुद्धि हैरान हो जाती है क्योंकि तब उनको समझ में आता है की भगवान कौन सी चीज है और उनकी ताकत कितनी अनन्त है। इसी महा स्थान में सारे महर्षियों से मुलाकात होती है जो अमर है जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र, भृगु, लोमष ऋषि आदि। ये सभी ऋषि एक ब्रह्माण्ड से निकल कर परोपकार करने के लिए दूसरे ब्रह्माण्ड में जाते हुए दिखाई देते है।
एक तरह से कहा जाय ये ऋषि भी पिछले कितने करोड़ साल से ईश्वर के पूरे रहस्य को देखना समझना चाहते हैं पर उनकी यात्रा अब भी अन्त हीन है क्योंकि ईश्वर आदि और अन्त रहित हैं।
इसलिए आपने सुना होगा की ऋषि महर्षि हजारों साल से तपस्या में लीन रहते हैं इसका मतलब ये होता है की ये ऋषि अपनी चमड़े की आँखों को बंद कर, सूक्ष्म शरीर की सूक्ष्म आँखों से ईश्वर के अति सुखद साम्राज्य को पूरी तरह से देखने की कोशिश कर रहे है पर अभी तक उन्हें अपनी यात्रा का अन्त दिखा ही नहीं !
इसी को कहते हैं आनन्द से सच्चिदानन्द की खोज करना !
आनन्द मिलता है ईश्वर दर्शन प्राप्त साधक को, पर सत्य, चित्त, आनन्द मिलता है जब साधक अपना अस्तित्व खोकर ईश्वरमय हो जाता है तब उस स्थिति में जीव खुद अपनी बनायीं हुई सारी सृष्टि को ईश्वर की तरह देखता, पालन और नाश करता है ।
जानिए कथा
एक बार देवी पार्वती हिमालय भ्रमण कर रही थी उनके साथ उनकी दो सहचरियां जया और विजया भी थीं। हिमालय पर भ्रमण करते हुये वे हिमालय से दूर आ निकली। मार्ग में सुनदर मन्दाकिनी नदी कल कल करती हुई बह रही थी, जिसका साफ स्वच्छ जल दिखने पर देवी पार्वती के मन में स्नान की इच्छा हुई। उनहोंने जया विजया को अपनी मनशा बताती व उनको भी सनान करने को कहा, किन्तु वे दोनों भूखी थी, बोली देवी हमें भूख लगी है, हम सनान नहीं कर सकती।
तो देवी नें कहा ठीक है मैं स्नान करती हूँ तुम विश्राम कर लो, किन्तु स्नान में देवी को अधिक समय लग गया, जया विजया नें पुनः देवी से कहा कि उनको कुछ खाने को चाहिए। देवी स्नान करती हुयी बोली कुुुुछ देर में बाहर आ कर तुम्हें कुछ खाने को दूंगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जया विजया नें फिर से खाने को कुछ माँगा।
इस पर देवी नदी से बाहर आ गयी और अपने हाथों में उन्होंने एक दिव्य खड्ग प्रकट किया व उस खड्ग से उन्होंने अपना सर काट लिया, देवी के कटे गले से रुधिर की धारा बहने लगी तीन प्रमुख धाराएँ ऊपर उठती हुयी भूमि की और आई तो देवी नें कहा जया विजया तुम दोनों मेरे रक्त से अपनी भूख मिटा लो। ऐसा कहते ही दोनों देवियाँ पार्वती जी का रुधिर पान करने लगी व एक रक्त की धारा देवी नें स्वयं अपने ही मुख में ड़ाल दी और रुधिर पान करने लगी।
देवी के ऐसे रूप को देख कर देवताओं में त्राहि त्राहि मच गयी। देवताओं नें देवी को प्रचंड चंड चंडिका कह कर संबोधित किया। ऋषियों नें कटे हुये सर के कारण देवी को नाम दिया छिन्नमस्ता। तब शिव नें कबंध शिव का रूप बना कर देवी को शांत किया। शिव के आग्रह पर पुन: देवी ने सौम्य रूप बनाया। नाथ पंथ सहित बौद्ध मतावलम्बी भी देवी की उपासना करते हैं, भक्त को इनकी उपासना से भौतिक सुख संपदा वैभव की प्राप्ति, वाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएँ प्राप्त होती है, इनकी सिद्धि हो जाने पर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता।
दस महाविद्यायों में प्रचंड चंड नायिका के नाम से व बीररात्रि कह कर देवी को पूजा जाता है। भगवान् परशुराम नें इसी विद्या के प्रभाव से अपार बल अर्जित किया था। शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है। देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है।