दलित उत्पीड़न में देवभूमि भी अछूती नहीं: राज्य में हर साल होती हैं 300 से अधिक घटनाएं, अधिकांश मामलों में रिपोर्ट तक भी दर्ज नहीं होती

दून पुस्तकालय में शनिवार को उत्तराखंड में दलित उत्पीड़न पर हुई चर्चा

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प्रदीप बहुगुणा

दलितों पर अत्याचार के मामले में उत्तराखंड राज्य भी अछूता नहीं है। यहां भी हर रोज कहीं ना कहीं दलित अत्याचार की घटनाएं होती रहती हैं । कई मामलॉ में तो एफआई आर तक दर्ज नहीं होती। फिर भी उत्तराखंड में हर वर्ष लगभग 300 घटनाएं घटित हो रही हैं जिसमें दलितों पर कहीं ना कहीं अत्याचार होता है।

यह तथ्य शनिवार को दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र में अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 और इसके क्रियान्वयन में आने वाली चुनौतियों पर एक आयोजित कार्यक्रम में सामने आया।

कार्यक्रम की अध्यक्षता साहित्यकार प्रो. राजेश पाल ने की तथा कार्यक्रम में मुख्य अतिथि वरिष्ठ अधिवक्ता सुनील कुमार एवं विशिष्ठ अतिथि सामाजिक कार्यकर्ता दीपा कौशलम रही, कार्यक्रम की प्रस्तुति दलित एक्टिविस्ट जबर सिंह वर्मा द्वारा की गई।

कार्यक्रम में उत्तराखण्ड में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समाज की स्थिति, सामाजिक व आर्थिक स्तर से जुड़े प्रश्नों के साथ ही एससी.एसटी. अधिनियम और धरातल पर उसके कार्यान्वयन में आने वाली चुनौतियों पर भी चर्चा की गई ।

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चर्चा के दौरान वक्ताओं ने कहा कि दलितों पर अत्याचार कोई नई घटनाएं नहीं है लेकिन स्वतंत्र भारत में संविधान में दलितों पर अत्याचार को रोकने के लिए 1989 में अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम बनाया गया जिससे कि दलितों पर अपराधों के संबंध में मुकदमा चलाने और दंड देने से लेकर पीड़ितों को राहत एवं पुनर्वास देने का प्रावधान किया गया है।

बावजूद इसके आज भी सामंती मानसिकता के कारण ऊंची जाति के लोग दलितों को बराबरी का दर्जा देने के लिए तैयार नहीं है । वक्ताओं ने कहा कि यद्यपि समाज में परिवर्तन हो रहा है लेकिन परिवर्तन बहुत धीमा है। जिन संस्थाओं की अत्याचार रोकने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए उनमें मीडिया, पुलिस और न्याय व्यवस्था सभी जगह सोचने का तरीका अभी तक पूरी तरह बदला नहीं है और वह भी पक्षपात करता नजर आता है।

चर्चा के दौरान वक्ताओं ने कहा कि यूं तो उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है लेकिन देवभूमि उत्तराखंड में हिमालय की काली परछाइयां भी हैं। उन काली परछाइयों के तले दलितों पर घोर अमानवीय अत्याचार घटित होते रहे हैं। चाहे 1980 में कफल्टा हत्याकांड हो यह चंपावत के सूखीढांग में दलित भोजन माता सुनीता देवी पर सामाजिक भेदभाव का मामला हो या भिकियासैण में अंतरजातीय विवाह करने वाले जगदीश चंद्र की हत्या। जौनसार के पुनहा मंदिर में प्रवेश का मामला हो या आटा चक्की छूने पर सिर कलम जैसी घटनाओ ने मनुष्यता को शर्मसार किया है।

ऐसे में जरूरी है की अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम का राज्य में सही ढंग से पालन हो तथा इसे जनचेतना का विषय बनाया जाए और इसके प्रति प्रारंभिक शिक्षा के स्तर से ही लोगों को जागृत किया जाए जिससे कि दलितों पर अत्याचार पर रोक लग सके।

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इस कार्यक्रम में समदर्शी बर्थवाल, जसपाल दुग्गल, बिजू नेगी, इशिता नेगी, एस के दास, निकोलस हॉफ़लैंड, जितेंद्र भारती, मेघा प्रकाश सहित पुस्तकालय के अनेक युवा पाठक व अन्य लोग मौजूद थे।

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