सुप्राभतम : गंगा हमारी सभ्यता की जननी

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प्रो. गोविन्द सिंह

Uttarakhand

सात-आठ साल पहले की बात है। एक काॅलेज में पत्रकारिता पढ़ाने हरिद्वार गया हुआ था। हालांकि इससे पहले भी दो-एक बार हरिद्वार जाना हुआ था लेकिन इस बार फुर्सत में था। मित्र जितेन्द्र डबराल ने कहा, शाम हो रही है, चलिए गंगा आरती देख आयें।

हम जब हरकी पैड़ी पहुंचे, शाम ढल चुकी थी और हल्का अन्धेरा पसरने लगा था। चारों तरफ लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। वे सब नहाए-हुए से लग रहे थे। साधुगण, पण्डे-पुजारी अपने-अपने मंदिरों के द्वार पर खड़े हाथ में मशालें, बड़े-बड़े दीये लिए हुए गंगा मैया की आरती गा रहे थे, मैया का आह्वान कर रहे थे। सब-कुछ एकदम अलौकिक था। मैं अवाक-सा, मंत्रमुग्ध-सा देख रहा था। फिर लोग छोटे-छोटे पुड़ों में रखे दीपक गंगा जी को अर्पित करने लगे। गंगा की धारा सचमुच तट पर स्थित मंदिरों की मशालों के प्रतिबिम्बों और दीपो की जगमग-जगमग से दमक उठी।

मैं उन अनगिनत दीपों को बहते हुए तब तक देखता रहा, जब तक कि वे आंखों से ओझल नहीं हो गए! भावनाओं का एक अदम्य ज्वार उमड़ रहा था। हजारों साल की परम्परा जैसे अपने उद्दाम वेग के साथ उमड़ रही थी। मुझे लगा कि धर्म और आस्था ही है जो इस देश को बचा कर रख सकती है। खुद गंगा को लेकर भी मन में अनेकों सवाल उठ रहे थे कि आखिर क है इस नदी में, जो पूरा देश आज भी इसे उतनी ही आस्था से पूजता है, जितना हजारों साल पहले।

हमारी स्मृति जहां तक जाती है, गंगा वहां तक हमें पूजनीय दिखाई पड़ती है। क्यों वह हमारे संस्कारों में गहरे रची-बसी है। तमाम आधुनिकता, तमाम प्रगतिशीलता, तमाम तार्किकता के बावजूद उसके प्रति आस्था का सैलाब उमड़ता ही जाता है। वह केवल हाइड्रोजन और आक्सीजन का घोल नहीं, वह हमारे लिए मां है, देवी है, जीवन दायिनी है, पाप-नाशिनी है और मोक्ष-दायिनी। आखिर कैसे उसे यह दर्जा मिल गया?

भले ही वह धरती पर भगीरथ के प्रयत्न से साठ हजार सगर पुत्रों की तारणहार बनकर उतरी हो, लेकिन यहीं की होकर रह गई। चाहती तो वह अपना काम समाप्त कर लौट सकती थी या सरस्वती की तरह अपना कोई रूप धर लेती, आखिर इस धरती से उसे क्या मोह था कि वह लाखों-करोड़ों लोगों को जीवन देने यहां रूक गयी? क्या धरती से उसे भी मोह हो गया? क्या उसके स्वभाव में ही पालनहार का गुण समाहित है? क्या इसीलिए वह आज तक मानव जाति को पाल-पोस रही है?

भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि धाराओं में मैं गंगा हूं। महाभारत में गंगा का महात्म्य अनेक स्थलों पर उपस्थित है। वन पर्व में गंगा की प्रशस्ति में कई श्लोक दिए हैं, जिनमें कहा गया है, ‘‘यदि कोई सैकड़ों पापकर्म करके गंगाजल का अवसिंचन करता है तो गंगाजल का अवसिंचन करता है तो गंगाजल उन दुष्कृत्यों को उसी प्रकार जला देता है, जिस प्रकार से अग्नि ईंधन को जला देती है। …नाम लेने पर गंगा पापी को पवित्र कर देती है।

इसे देखने से सौभाग्य प्राप्त होता है। जब इसमें स्नान किया जाता है या इसका जल ग्रहण किया जाता है तो सात पीढ़ियों तक कुल पवित्र हो जाता है। जब तक किसी मनुष्य की अस्थि गंगा जल को स्पर्श करती रहती है, तब तक वह स्वर्गलोक में प्रसन्न रहता है। गंगा के समान कोई तीर्थ नहीं है। वह देश जहां गंगा बहती है और वह तपोवन जहां पर गंगा पाई जाती है, उसे सिद्धि क्षेत्र कहना चाहिए, क्योंकि वह गंगातीर को छूता रहता है।

अनुशासन पर्व कहता है कि वे जनपद एवं देश, वे पर्वत और आश्रम, जिनसे होकर गंगा बहती है, महान हैं। जीवन के प्रथम भाग में जो पापकर्म करते हैं, यदि गंगा की ओर जाते हैं तो परम पद को प्राप्त करते हैं। जो लोग गंगा में स्नान करते हैं उनका फल बढ़ता जाता है।

यह सब यों ही नहीं कहा गया है। गंगा के उपकार इतने ज्यादा हैं कि शास्त्रों को ये बातें अपने भीतर दर्ज कर लेनी पड़ीं। भारत के 11 राज्यों की 50 से ज्यादा आबादी की सेवा-हल करती है गंगा। गंगोत्री से लेकर डायमंड हार्बर तक लगभग 2500 किलोमीटर लम्बी यात्रा में वह लोगों का जीवन संवारती है। लेकिन हम भारत के लोग इतने कृतघ्न हैं कि उसके ताम उपकारों को भूलकर उसे खत्म करने पर तुले हैं।

गंगा को बचाना सिर्फ इसलिए जरूरी नहीं है कि उसके साथ आस्था जुड़ी है, बल्कि इसलिए भी कि वह आज भी हमारी संस्कृति, जीवन का अभिन्न भाग है। वह जैव विविधता की वाहिका है और वनों और वन्य जीवों को ऊर्जा देने वाली है।

गंगा समूचे उत्तर भारत की मिट्टी को सोना बनाती है। गंगा को साफ रखना हम सबकी जिम्मेदारी है कि गंगाजल को स्वच्छ व साफ रखेंगे। लेकिन उसे साफ रखने का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि गंगा शताब्दियों से हमारे पुरखों की राख और हड्डियों को संभाले हुए है। गंगा का स्पर्श अनजाने में अपने पूर्वजों का स्पर्श भी है।

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