गीता श्लोक एवं भावार्थ : गीता प्रथम अध्याय का प्रथम, द्वितीय और तीसरा श्लोक

श्रीमद्भगवदगीता की महिमा अगाध और असीम है। श्रीमद्भगवदगीता में श्लोक होते हुए भी भगवान् की वाणी होने से ये मन्त्र ही हैं। इन श्लोकों में बहुत गहरा अर्थ भरा हुआ होने से इनको सूत्र भी कह सकते हैं। श्रीमद्भगवदगीता का उपदेश महान अलौकिक है। इस पर कई टीकाएं लिखी गई हैं और लिखी जा रही हैं। फिर भी संत-महात्माओं और चिंतकों के मन में गीता के नए-नए भाव प्रकट होते रहते हैं। इस गंभीर ग्रंथ पर कितना ही विचार किया जाए, तो भी इसका कोई पार नहीं पा सकता। इसमें जैसे-जैसे गहरे उतरते जाते हैं, वैसे-ही-वैसे इसमें से गहरी बातें मिलती चली जाती हैं। जब एक अच्छे विद्वान् पुरुष के भावों का भी जल्दी अन्त नहीं आता, फिर जिनका नाम, रूप आदि यावन्मात्र अनन्त है, ऐसे भगवान् के द्वारा कहे हुए वचनों में भरे हुए भावों का अन्त आ ही कैसे सकता है?

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गीता अध्याय 1 श्लोक 1


धृतराष्ट्र उवाच।

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।

धृतराष्ट्रः उवाच-धृतराष्ट्र ने कहा; धर्म-क्षेत्र धर्मभूमिः कुरू-क्षेत्र-कुरुक्षेत्र समवेता:-एकत्रित होने के पश्चात; युयुत्सवः-युद्ध करने को इच्छुक; मामकाः-मेरे पुत्रों; पाण्डवाः-पाण्डु के पुत्रों ने; च तथा; एव-निश्चय ही; किम्-क्या; अकुर्वत-उन्होंने किया; संजय हे संजय।

धृतराष्ट्र ने कहाः हे संजय! कुरुक्षेत्र की पवित्र भूमि पर युद्ध करने की इच्छा से एकत्रित होने के पश्चात, मेरे और पाण्डु पुत्रों ने क्या किया?

गीता अध्याय 1 श्लोक 2


सञ्जय उवाच।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥2॥

संजयः उवाच – संजय ने कहा ; दृष्ट्वा – देखने पर ; तू – और; पाण्डवानीकं – पाण्डव सेना को ; व्यूढं – वज्र व्यूह से खड़ी हुई; दुर्योधनः – राजा दुर्योधन ; तदा – उस समय; आचार्यम् – द्रोणाचार्य ; उपसंगम्य – पास जाकर; राजा – राजा ; वचनम् – शब्द ; अब्रावित् – बोला

गीता अध्याय 1 श्लोक 3


पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।

व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता।। 3।।

पश्य – देखिए ; एताम् – यह ; पाण्डु-पुत्रानाम् – पाण्डु के पुत्रों (पांडवों की); आचार्य – आदरणीय शिक्षक; महतीम् – शक्तिशाली; चमूम् – सेना ; व्यूढाम् – व्यूह रचना से खड़ी की हुई; द्रुपद-पुत्रेण – द्रुपद पुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा, तव – आपके; शिष्येण – शिष्य; धीमाता – बुद्धिमान

दुर्योधन ने कहा: आदरणीय गुरु! आपके ही प्रतिभाशाली शिष्य, द्रुपद के पुत्र द्वारा युद्ध के लिए इतनी कुशलता से तैयार की गई पांडु पुत्रों की शक्तिशाली सेना को देखिए।

स्वामी रामसुखदास जी के अनुसार श्लोक की व्याख्या इस प्रकार है- ‘आचार्य’– द्रोण के लिये ‘आचार्य’ संबोधन देने में दुयोंधन का यह भाव मालूम देता है कि आप हम सबके कौरवों और पाण्डवों के आचार्य हैं। शस्त्र विद्या सिखाने वाले होने से आप सबके गुरु हैं। इसलिये आपके मन में किसी का पक्ष या आग्रह नहीं होना चाहिये।

‘तव शिष्येण धीमता’ इन पदों का प्रयोग करने में दुर्योधन का भाव यह है कि आप इतने सरल है कि अपने मारने के लिये पैदा होने वाले धृष्टद्युम्न को भी आपने अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखाई है। और वह आपका शिष्य धृष्टद्युम्न इतना बुद्धिमान है कि उसने आपको मारने के लिये ही आपसे अस्त्र-शस्त्र की विद्या सीखी है।

द्रुपदपुत्रेण‘ – यह पद कहने का आशय है कि आपको मारने के उद्देश्य को लेकर ही दुपद ने याज और उपयाज ब्राह्मणों से यज्ञ करवाया, जिससे धृष्टद्युम्न पैदा हुआ। वही यह द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न आपके सामने (प्रतिपक्ष में) सेनापति के रूप में खड़ा है।

यद्यपि दुर्योधन यहाँ ‘दुपदपुत्र’ के स्थान पर ‘धृष्टद्युम्न’ भी कह सकता था, तथापि द्रोणाचार्य के साथ द्रुपद जो बैर रखता था, उस वैरभाव को याद दिलाने के लिये दुर्योधन यहाँ ‘दुपदपुत्रेण’ शब्द का प्रयोग करता है कि अब वैर निकालने का अच्छा मौका है।

‘पाण्डुपुत्राणाम् एतां व्यूढां महतीं चमूं पश्य’- दुपदपुत्र के द्वारा पाण्डवों की इस व्यूहाकार खड़ी हुई बड़ी भारी सेना को देखिये। तात्पर्य है कि जिन पाण्डवों पर आप स्नेह रखते हैं, उन्हीं पाण्डवों ने आपके प्रतिपक्ष में खास आपको मारने वाले द्रुपदपुत्र को सेनापति बनाकर व्यूह रचना करने का अधिकार दिया है। अगर पाण्डव आपसे स्नेह रखते तो कम-से-कम आपको मारने वाले को तो अपनी सेना का मुख्य सेनापति नहीं बनाते, इतना अधिकार तो नहीं देते। परन्तु सब कुछ जानते हुए भी उन्होंने उसी को सेनापति बनाया है।

यद्यपि कौरवों की अपेक्षा पाण्डवों की सेना संख्या मे कम थी अर्थात् कौरवों की सेना ग्यारह अक्षौहिणी और पाण्डवों की सेना सात अक्षौहिणी थी, तथापि दुर्योधन पाण्डवों की सेना को बड़ी भारी बता रहा है। पाण्डवों की सेना को बड़ी भारी कहने में दो भाव मालूम देते हैं-

(१) पाण्डवों की सेना ऐसे ढंग से व्यूहाकार खड़ी हुई थी, जिससे दुर्योधन को थोड़ी सेना भी बहुत बड़ी दिख रही थी और (२) पाण्डव-सेना में सब-के-सब योद्धा एक मत के थे। इस एकता के कारण पाण्डवों की थोड़ी सेना भी बल में, उत्साह में बड़ी मालूम दे रही थी। ऐसी सेना को दिखाकर ही दुर्योधन द्रोणाचार्य से यह कहना चाहता है कि युद्ध करते समय आप इस सेना को सामान्य और छोटी न समझें। आप से विशेष बल लगाकर सावधानी से युद्ध करें। पाण्डवों का सेनापति है तो आपका शिष्य द्रुपदपुत्र ही; अतः उस पर विजय करना आपके लिये कौन-सी बड़ी बात है!

‘एतां पश्य’ कहने का तात्पर्य है कि यह पाण्डव-सेना युद्ध के लिये तैयार होकर सामने खड़ी है। अतः हम लोग इस सेना पर किस तरह से विजय कर सकते हैं-इस विषय में आपको जल्दी-से-जल्दी निर्णय लेना चाहिये।

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