सुप्रभातम् : वास्तु पुरुष को समझें…

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इस जगत का निर्माण प्रकृति से ही होता है। प्रकृति के बिना किसी भी जीव की कल्पना नहीं की जा सकती है। सिद्ध, योगी, साधक, दार्शनिक, वैज्ञानिक से लेकर सभी ने प्रकृति से प्रेरणा लेकर लक्ष्य को हासिल किया है। प्रकृति के पंच तत्वों के हिसाब से ही मानव जीवन संचालित होता है। जब इन तत्वों का संतुलन बिगड़ता है तो हमारे जीवन में दुःख और परेशानियां आ जाती हैं। जाने-माने वास्तुविद् मनोज जुयाल बता रहे हैं कि वास्तु के हिसाब से किस तरह प्रकृति को अपने अनुकूल किया जा सकता है।


हिमशिखर धर्म डेस्क

मनुष्य ने प्रकृति के माध्यम से ही ईश्वर के दर्शन किए हैं। ईश्वर तक पहुंचने का मार्ग प्रकृति ही रहा है। प्रकृति से भिन्न इस संसार में कौन सी वस्तु है। स्वयं मनुष्य का निर्माण भी प्रकृति के तत्वों से हुआ है। प्रकृति अंततः प्रकृति में ही लय हो जाती है। विज्ञान भी मानता है कि संसार में कोई वस्तु नष्ट नहीं होती है, मात्र उसका रूप परिवर्तित हो जाता है।

उदित होता सूर्य, घाटियों में बहकती कलकल नदी, निर्मल नीलवर्ण आकाश, मंद-मंदर बहती हवा, गर्जना करते मेघ, जगमगाते तारापुंज और दमकता चंद्रमा, रंगबिरंगे पुष्पों की छटा, गहरे हरे जंगल, शांत विस्तार करता समुद्र, प्रकृति के विविध रूप, इनमें ईश्वर की छाया नही तो और क्या है? योगी, साधक, दार्शनिक, कवि, चिंतक, वैज्ञानिक जिसने भी प्रेरणा ली, प्रकृति से ली। क्योंकि ईश्वर स्वयं प्रकृति के रूप में मूर्तिमान होता है। प्रकृति के बिना ईश्वर का चिन्तन नहीं हो सकता। ईश्वर प्रकृति के रूप में मनुष्य को प्रेरणा देती रहती है।

प्रकृति के प्रधान पंच तत्वों का संतुलन बिगड़ता है तो सृष्टि भी अस्थिर हो उठती है। जल  तत्व बढ़ा तो बाएत्र, घटा तो सूखा, अग्नि तत्व बढ़ा तो भीषण गर्मी, घटा तो भयानक शीती, वायु तत्व बढ़ा तो चक्रवात आंधी, घटा तो प्राणों का संकट। मनुष्य के शरीर में ईश्वर ने पंच तत्व की व्यवस्था सुनियोजित ढंग से की है। इसमें संतुलन बिगड़ते ही शरीर की स्थिति भी स्वस्थ नहीं रह पाती।

प्रकृति के पंच तत्व का विधान मनुष्य के निवास पर भी लागू होता है। जहां पर मनुष्य रहता है यदि वहां इन तत्त्वों का उचित संतुलन नहीं होता तो मनुष्य कई संकट झेलता है। ईशान्य कोण जल, अग्नि कोण अग्नि, वायव्य कोण वायु एवं पृथ्वी तत्त्व नैतृत्य दिशा में निश्चित होता है। जहां आकाश तत्व की उपस्थिति होती है। प्रकृति के रूप में इस तरह ईश्वर हमारे आस-पास ही विराजमान रहते हैं। पंच तत्व की ऊर्जा से ही मनुष्य का जीवन संचालित होता है। यदि पंच तत्व में असंतुलन होता है तो मनुष्य प्रकृति से ही इसकी पूर्ति कर सकता है। आकाश तत्व की कमी को नित्य तारों को निहारकर, वायु तत्व को पेड़-पौधों के निकट गहरा श्वास लेकर, अग्नि तत्व की कमी को प्रातः उदित होते सूर्य के समक्ष स्नान करने से, जल तत्व की कमी को शुद्ध जल या गंगा जल पीकर एवं पृथ्वी तत्व की कमी को धरती पर नंगे पांव चलकर पूर्ति किया जा सकता है। पंच तत्व की सकारात्मक ऊर्जा से मनुष्य अपने जीवन को पुनः उल्लास एवं चेतना से भर सकता है।

प्रकृति ईश्वर का उपहार है। पेड़-पौधों का नित्य संग मनुष्य से है। वनस्पति हमें लाभ देती है तो हानि भी देती है। प्राचीन वनस्पति शास्त्र यह बताते हैं कि यदि हमें ईश्वर की कृपा चाहिए तो हमें पेड़-पौधों से किस तरह सामंजस्य बनाना चाहिए। मनुष्य के निवास में मुख्य द्वार महत्वपूर्ण होता है। यहां द्वार पर वेद्य नहीं होना चाहिए। मुख्य द्वार के समक्ष विशाल वृक्ष होने से गृह स्वामी की अगली पीढ़ी प्रभावित होती है। घर के बालकों का विकास रूकता है। साथ ही अध्ययन में उनकी रूचि कम हो जाती है एवं स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता। विशाल वृक्ष से आने वाली नकारात्मक ऊर्जा के कारण यह स्थिति बनती है। घर के निकट अधिक वृक्षों को लगाना भी वैज्ञानिक दृष्टि से उचित नहीं माना जाता है। बड़े वृक्षों की जड़ घर की नींव को कमजोर करती हैं, जबकि आकाशीय बिजली गिरने की भी आशंकाएं बढ़ती हैं। तेज आंधी में बड़े वृक्ष घर के ऊपर गिर जाते हैं। घर से कुछ दूर किरणों से बचा जा सकता है। उत्तर पूर्व एवं ईशान्य कोण में बड़े वृक्ष लगाने का निषेध किया गया है। इससे सूर्य की प्रातः कालीन स्वास्थ्यप्रद किरणों में रूकावट आती है। जिससे घर में निवास करने वालों का स्वास्थ्य प्रभावित होता है।

घर के उत्तर पूर्व में छोटे पौधे, झाड़ियां एवं ईशान्यकोण में पुष्पों की क्यारी व लाॅन बनाना शुभदायी होता है। वनस्पति को लेकर आधुनिक समाज में नित नये उपयोग प्रयोग होते रहते हैं। घरों में गुलाब के साथ कांटेदार कैक्टस भी लगाए जाने लगे हैं। किंतु प्राचीन वनस्पति शास्त्र कांटों की प्रकृति को नकारात्मक रूप मानता है। इससे निगेटिव ऊर्जा निकलती है। जो मनुष्य की सोच को प्रभावित करता है। कीनू, मौसमी, करौंदा आदि को घरों से दूर दक्षिण या पश्चिम दिशा में लगाए जाने को उत्तम माना गया है। फलदार वृक्ष आम, सेब, पपीता, अमरूद व छायादार गुलमोहर, अशोक, नीम वृक्ष पश्चिम व दक्षिण दिशा में लगाए जाने पर शुभ परिणाम देते हैं। घर के आग्नेय दिशा में आम का वृक्ष लगाना गृहस्थ जीवन में सुखद परिणाम लाने वाला माना जाता है।

आग्नेय दिशा का स्वामी शुक्र ग्रह माना गया है। वृक्षों में ‘आम’ शुक्र का प्रतिनिधित्व करता है। आम लगाने से शुक्र ग्रह घर में शांति व सौंदर्य की वृद्धि करता है। स्त्रियों के स्वास्थ्य ठीक करने के साथ ही ही घर में भोग विलास की वस्तुओं में भी वृद्धि करता है। नैऋत्य दिशा में क्रिसमस का वृक्ष लगाना शुभ माना जाता है। घर के मध्य में ब्रह्म स्थान पर तुलसी का पौधा लगाकर आरोग्य शांति, संपदा पाने की परम्परा रही है। तुलसी की नित्य पूजा एवं इसका सेवन कई दृष्टियों में उत्तम माना जाता है।

27 नक्षत्रों के अनुरूप वृक्षों का भी निरूपण हुआ है। गृह स्वामी के नक्षत्र के अनुसार वृक्ष लगाने से कई दोष नष्ट हो जाते हैं। दाड़िम भगवान गणेश का पौधा माना जाता है। शुक्ल पक्ष में हस्त नक्षत्र में दाड़िम का पौधा लगाकर अत्यंत शुभ परिणाम दिखते हैं। अनार की प्रजाति दाड़िम में माता लक्ष्मी का निवास माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्वयं को पीपल वृक्ष कहा है। पीपल वृक्ष प्राणवायु का स्रोत माना जाता है। जैन धर्म के 24 तीर्थंकर किसी न किसी वृक्ष से सम्बन्धित रहे हैं। भगवान बुद्ध को भी ज्ञान प्राप्ति बोधि वृक्ष की छाया में मिली थी।

वृक्षों पर देवी-देवताओं, प्रेतात्माओं, सिद्धजनों का निवास माना जाता रहा है। हिंदुओं के पवित्र धाम बदरीनाथ का नामकरण भी पवित्र वृक्ष पर ही हुआ है। भगवान नारायण यहां बदरी यानी बेर वृक्ष के नीचे तप में लीन माने जाते हैं। लक्ष्मी जी को बदरी स्वरूप मानते हैं। कहा जाता है कि वह बदरी बनकर उन्हें छाया देती हैं। इस तरह लक्ष्मी यानी बदरी के साथ नारायण ‘बदरीनाथ’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ईश्वर और प्रकृति के एकाकार हो जाने का यह श्रेष्ठ उदाहरण भी है।

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