हिमशिखर धर्म डेस्क
ईश्वर जीव को किसी सद्उद्देश्य के साथ इस संसार में भेजता है। लेकिन हम वह बन जाना चाहते हैं, जो बनने के लिए बने ही नहीं। उस अलभ्य को प्राप्त करने की चाहत में हम शक्ति, श्रम, ऊर्जा, सामर्थ्य, पराक्रम, समय, पुरुषार्थ सहित सब क्षमताओं का अपव्यय कर बैठते हैं। फिर भी हाथ कुछ नहीं लगता सिवाय निराशा, पश्चाताप, उपेक्षा और आत्मग्लानि के।
ईश्वर जीव को बार-बार वही बनाता है, जिसके लिए उसे बनाया गया है। अर्थात् जिसके प्रारब्ध में संगीतकार बनना लिखा है, वह चिकित्सक, विचारक, साहित्यकार, एडवाइजर, इंजीनियर और कलाकार नहीं बन सकता। यदि चाहे भी तो कुछ दिनों के प्रायोगिक परीक्षण के बाद वह थका-हारा स्वयं को सर्वथा असमर्थ मानकर फिर से संगीत में ही सुख और शांति का आश्रय तलाशेगा।
अंतत: वही उपलब्धियों का कारक बनेगा। यदि हम दूसरे, तीसरे व चौथे व्यवसाय, कार्य, व्यापार, पद व मंच पर सफल होने का दंभ भरते हैं तो सहज रूप में पनपी नैसर्गिक अभिरुचि वाले क्षेत्र में भी उपलब्धियों के शिखर को क्यों नहीं स्पर्श कर सकते?
जब-जब हम देव निर्धारित विधान को चुनौती देकर स्वयं निर्देशित मार्ग की ओर बढ़ने का प्रयास करते हैं तो असफलताएं सर्पदंश की तरह सामने खड़ी रहती हैं। इसके विपरीत ईश्वर द्वारा सुझाए गए मार्ग पर चलने से विपरीत स्थितियां भी स्वत: अनुकूल होती जाती हैं और ऊंचे मुकाम तक पहुंचाती हैं।
देव कृपा से ही असमर्थता सामर्थ्य में, अक्षमता क्षमता में, विपरीतता अनुकूलता में और जटिलता सहजता में बदलती चली जाती है। जो हम होना चाहते हैं, उस मार्ग में सफलता, सुख और आनंद की कोई गारंटी नहीं, लेकिन जो कार्य प्रभु की अनुकंपा और निर्देश में संपन्न् होते हैं, सफलता स्वत: ही उनकी आधारशिला बन जाती हैं।
अशांति ,परेशानियां तब शुरु हो जाती हैं।जब मनुष्य के जीवन मे सत्संग नही होता– मनुष्य जीवन को जीता चला जा रहा है। लेकिन मनुष्य इस बारे मे नही सोचता की जीवन को कैसे जीना चाहिये- जीवन मिला था प्रभु का होने ओर प्रभु को पाने के लिए। लेकिन मनुष्य माया का दास बनकर माया की प्राप्ति के लिए इधर-उधर भटकने लगता है ओर इस तरह मनुष्य का यह कीमती जीवन नष्ट हो जाता है जीवन को मनुष्य व्यर्थ मे गवां देता है।
मनुष्य देह पाकर ही भक्ति का पूर्ण आनंद और भगवान की सेवा और हरि कृपा से सत्संग का सानिध्य मिलता है। संतो के संग से मिलने वाला आनंद तो बैकुण्ठ मे भी दुर्लभ है– कबीर जी कहते है की–
राम बुलावा भेजिया , दिया कबीरा रोय
जो सुख साधू संग में , सो बैकुंठ न होय !
रामचरितमानस मे भी लिखा है की–
तात स्वर्ग अपवर्ग सुख धरि तुला एक अंग
तुल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सत्संग।
हे तात ! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाये। तब भी वे सब सुख मिलकर भी दूसरे पलड़े में रखे हुए उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो क्षण मात्र के सत्संग से मिलता है।’ सत्संग की बहुत महिमा है,, सत्संग तो वो दर्पण है जो मनुष्य के चरित्र को दिखाता है ओर साथ-साथ चरित्र को सुधारता भी है। सत्संग से मनुष्य को जीवन जीने का तरीका पता चलता है।
सत्संग से ही मनुष्य को अपने वास्तविक कर्यव्य का पता चलता है मानस मे लिखा है की–
सतसंगत मुद मंगल मुला, सोई फल सिधि सब साधन फूला।
सत्संग सब मङ्गलों का मूल है। जैसे फूल से फल ओर फल से बीज और बीज से वृक्ष होता है।
उसी प्रकार सत्संग से विवेक जागृत होता है और विवेक जागृत होने के बाद भगवान से प्रेम होता है और प्रेम से प्रभु प्राप्ति होती है–जिन्ह प्रेम किया तिन्ही प्रभु पाया— सत्संग से मनुष्य के करोडों-करोडों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं,– सत्संग से मनुष्य का मन, बुद्धि शुद्ध होती है-सत्संग से ही भक्ति मजबूत होती है।
भक्ति सुतंत्र सकल सुखखानि बिनु सत्संग न पावहि प्राणी, भगवान की जब कृपा होती है तब मनुष्य को सत्संग और संतो का संग प्राप्त होता है। गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन बिनु हरि कृपा न होई सो गावहि वेद पुरान।एक क्षण का सत्संग भी दुर्लभ होता है और एक क्षण के सत्संग से मनुष्य के विकार नष्ट हो जाते है।
एक घडी आधी घडी आधी मे पुनि आध।
तुलसी संगत साध की हरे कोटि अपराध।
सत्संग में बतायी जाने वाली बातों को जीवन मे धारण करने पर ही आनंद की प्राप्ति और प्रभु से प्रीति होती है। आज मनुष्य की मन और बुद्धि विकारों मे फंसती जा रही है।
— मनुष्य हरपल चिंतित रहने लगता है,और हमेशा परेशान रहता है।इन सबका कारण अज्ञानता है। भगवान ने यह अनमोल रत्न मानव जीवन अशांत रहने के लिए नही दिया। जब भगवान ने यह मानव जीवन दिया और इस मानव जीवन को सफल कैसे करना है।यह हमें सत्संग और शास्त्रों से पता चलता है। इसलिए जीवन से सत्संग को अलग नही करना चाहिये।
क्योंकि जब सत्संग जीवन मे नही रहेगा तो संसार के प्रति आकर्षण बढेगा ओर संसार के प्रति मोह मनुष्य के जीवन को विनाश की तरफ ले जाता है।सत्संग की अग्नि में मनुष्य के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं–आनंद कहीं बाहर नही है, वो भीतर ही है। लेकिन मनुष्य ने मन के चारों तरफ संसार के मोह की चादर लपेट रखी है।
इसलिए वो आनंद ढक जाता है ओर महसुस नही होता– ओर जब सत्संग से वो मोह रुपि चादर हट जाती है। तब आनंद ही आनंद मिलने लगता है।जैसे मूर्तिकार पत्थर को तराशता है और पत्थर से गंदगी हटाकर उसे मूर्ति का रुप देता है।उसी प्रकार जीवन मे जो अशांति, परेशानी, विकार आदि रहते हैं उनको सत्संग हटा देता है ओर मनुष्य का एक निर्मल चरित्र बना देता है!
जाने बिनु न होई परतीति,बिनु परतीति होई नहीं प्रीती
भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण तब तक नही होगा।
जब तक विवेक नही होगा– और बिनु सत्संग विवेक न होई- मनुष्य का कर्तव्य क्या और अकर्तव्य क्या।यह सब सत्संग से पता चलता है।भागवत के ग्यारहवें स्कंध मे भगवान उद्धव से कहते हैं कि संसार के प्रति सभी आसक्तियां सत्संग नष्ट कर देता है।भगवान कहते हैं की हे उद्धव, मै यज्ञ, वेद, तीर्थ, तपस्या, त्याग से वश मे नही होता।लेकिन सत्संग से मै जल्दी ही भक्तों के वश मे हो जाता हूं।
इसलिए सत्संग की बहुत महिमा है। जीवन मे सत्संग को हमेशा बनाए रखना चाहिये और जब भी, जहां भी सत्संग सुनने या जाने का मौका मिले तो दुनियां वालों की परवाह किये बिना ही पहुँच जाना चाहिये।क्योंकि सत्संग बहुत दुर्लभ है और जिसे सत्संग मिलता है उस पर विशेष कृपा होती है भगवान की ।