आचार्य शिवेंद्र नागर
एक संत के पास एक व्यक्ति आया तथा बोला कि मेरे ऑफ़िस में कोई मेरी क़द्र नहीं करता। सब मेरा तिरस्कार करते हैं। परिवार, समाज में भी मेरी कोई ज़्यादा पूछ नहीं है। मैं तो मात्र एक रद्दी की तरह इस्तेमाल किया जाता हूँ। संत ने सामने रखी हुई पुस्तक की ओर इशारा करते हुए कहा कि इस पुस्तक की कितनी क़ीमत होगी ? यदि इस पुस्तक का मालिक इसकी क़ीमत को बहुत कम रखता है तो कोई भी ग्राहक उसको रद्दी की तरह इस्तेमाल करेगा परंतु आप इस पुस्तक की क़ीमत अधिक रखते हो तो लोग इसको संभाल कर रखेंगे। इसलिए यदि हम रोज़ मंदिर में खड़े होकर यही बोलते रहें कि मैं तो दीन हूँ, मैं दरिद्र हूँ, मैं कमजोर हूँ, मैं क़िस्मत का मारा हूँ, तो आपने अपने मूल्य को बहुत छोटा रखा हुआ है। इसलिए अन्य लोग भी आपको कोई ज़्यादा भाव नहीं देंगे। जबकि सत्य यह है कि हम अमृतस्य पुत्रं हैं। हम परम का अंश हैं। हम परमानन्द स्वरूप हैं। यदि आप गुप्ता हो तो आपकी संतान भी तो गुप्ता हुई। यदि आप शर्मा हो तो आपकी संतान भी तो शर्मा हुई। सोने का अंश तो सोना ही होगा। इसलिए हम सभी भगवान की संतान या प्रभु के अंश हैं तो फिर हम भी क्या हो गए?
भगवान श्रीकृष्ण गीता जी में बताते हैं कि एक ही व्यक्ति आपका उद्धार कर सकता है, एक ही व्यक्ति आपको बर्बाद कर सकता है तथा एक ही व्यक्ति आपको आबाद कर सकता है और वह आप स्वयं हैं। इसलिए न तो भी अपने भीतर की गुरुता को भाव दें और न ही अपने भीतर की हीनता को भाव दें, अपितु पूर्णता को भाव दें। हम सब पूर्ण का अंश हैं तथा पूर्ण का अंश भी पूर्ण है, था तथा रहेगा। कई लोग सोचेंगे कि अहंकार ग़लत है। अहंकार बिलकुल ग़लत है परंतु अपने आप को दीन, दुःखी, क़िस्मत का मारा, बेचारा, कहना भी अहंकार है। यदि गुरुता भाव अहंकार है तो दीनता का भाव भी अहंकार है।
अंत में, कोई और आपका मूल्य तभी कम करके तोलता है, जब आप अपने आप को निम्न मानते हो। हनुमान जी से विभीषण से पूछा कि तेरा राम जी से संबंध क्या है ? तो हनुमान जी ने उत्तर देते हुए कहा था – जब मैं अपने आपको देह मानता हूँ तो मैं प्रभु का दास हूँ। जब मैं स्वयं को जीव स्वरूप सोचता हूँ तो मैं प्रभु का अंश हूँ। परंतु जब मैं स्वयं को आत्मस्वरूप सोचता हूँ तो मेरे और प्रभु में कोई भेद नहीं है। इसलिए ये हीनता हटाइए। ये भीख का कटोरा लेकर जीने के भाव को हटाइए कि कोई और आपको सम्मान देगा। कोई और आपको इज़्ज़त देगा। सबसे पहले अपने आप को, अपने आत्मतत्व को सम्मान दीजिए तभी जीवन का मूल्य श्रेष्ठ होगा। सोचिएगा इस बात पर !