मानव-वन्य जीव संघर्ष: मनुष्य व जंगली जानवरों के बीच अपने अस्तित्व को बचाए रखने की जद्दोजहद

जरा सोचिये, उस मां पर क्या बीतती होगी, जिसके जिगर के टुकड़े को गुलदार अथवा किसी अन्य जंगली जानवर ने निवाला बना लिया हो। उस परिवार की दशा क्या होगी, जिसके कमाऊ पूत की वन्यजीव के हमले में मृत्यु हो गई हो। उस किसान की स्थिति क्या होगी, जिसके खेतों में खड़ी फसल को जंगली जानवरों ने तहस-नहस कर दिया और खेती से अन्न का दाना तक हासिल न हो। चिंताजनक ढंग से बढ़ते इस संघर्ष में मनुष्य और वन्यजीव दोनों का ही जान देकर कीमत चुकानी पड़ रही है। वैसे अब तक के परिदृश्य को देखें तो पहाड़ व मैदान दोनों ही जगह मानव-वन्यजीव संघर्ष तेजी से बढ़ा है। कहीं हाथी फसलों व जान के दुश्मन बने बैठे हैं तो कहीं बाघ, गुलदार व दूसरे वन्यजीव। असल में मानव-वन्यजीव संघर्ष थामने को उन कारणों की पड़ताल कर निदान करना जरूरी है, जिनकी वजह से यह चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है। यह किसी से छिपा नहीं है कि जैवविविधता के धनी उत्तराखंड के वन्यजीव उसे दुनियाभर में अलग पहचान दिलाते हैं। ऐसे में वन्यजीवों का संरक्षण भी जरूरी है। इस सबके मद्देनजर ऐसी नीतियां बनाने की जरूरत है, जिससे मनुष्य व वन्यजीव दोनों ही सुरक्षित रहें। 


  • जंगली जानवर और खेती जिंदा रहने की लड़ाई
  • खेती बर्बाद कर रहे हैं जंगली जानवर
  • हाथियों ने खड़ी फसल रौंद डाली
  • आंगन में खेल रहा बच्चा गुलदार का शिकार

ऐसे ही कुछ शीर्षक पंक्तियों के साथ अखबार में खबरें भरी रहती हैं। प्रदेश का शायद ही कोई गांव इन खबरों और ऐसी घटनाओं से अछूता न हो। इतना ही नहीं बल्कि बंदर, लंगूर, सुअर इतने निडर हो गए हैं कि शोर मचाने पर भी वह भागते नहीं हैं। बंदर तो घर के भीतर व दुकानों में घुसकर देखते-देखते सामान उठाकर चम्पत हो जाते हैं। क्या बच्चे और क्या बूढ़े, आदमी हों या औरतें सभी इन जंगली जानवरों से भयभीत हैं।

गुलदार, बाघ और भालू तो स्वभाव से ही हिंसक हैं। परन्तु बंदर, सुअर और लंगूर तो इतने डरपोक हुआ करते थे कि जरा सा शोर होते ही भाग जाते थे। भालू और सुअर प्रायः रात में ही अपने आवास स्थलों से निकलते थे और फसल को नुकसान पहुंचाते थे। उजाला होने से पहले ही जंगल की ओर लौट जाते थे। अब दिन हो या रात। हर समय खेतों में, बाग-बगीचों में देखे जा रहे हैं। ऐसे में न तो खेती सुरक्षित है और न मनुष्य।

खेती किसानी हमारी जीविका का साधन ही नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पद्धति का हिस्सा भी है। जीविका का यह साधन हमसे छूटता जा रहा है तो पलायन को मजबूर होना पड़ रहा है। पहाड़ी खेती वैसे भी हाड़-तोड़ मेहनत मांगती है। ऐसी मेहनत करने के बाद जब फसल पकने और उसे काटकर घर लाने का समय होता है तब जंगली जानवर उनकी मेहनत पर डाका डालकर उन्हें निराशा और हताशा में डाल देते हैं। ऐसे पिछले कुछ सालों से हो रहा है। परन्तु खेती पर हो रहे जंगली जानवरों के हमले भी एक महत्वपूर्ण बड़ा कारण है।

खेती किसानी करने वाला किसान जब खेती छोड़कर जीविका के दूसरे साधन अपनाने की दिशा में बढ़ता है तो अपनी जीवन पद्धति व अपना समाज व अपनी संस्कृति से भिन्न जीने का तरीका व भिन्न संस्कृति अपना लेता है। इसलिए खेती पर आया यह संकट हमारे रहन-सहन हमारे गांव समाज व पर्वतीय ग्रामीण संस्कृति पर आया संकट है। इतना ही न हीं खेती का नष्ट होना, हमारा पारंपरिक ज्ञान का, विविध अनाजों, दालों, सब्जियों, कंदों व वनस्पतियों का नष्ट होना भी है। पीढ़ियों से जिस जैव विविधता के अपार भंडार को हम संजोए हुए थे और इसके संरक्षक व पोषक थे उससे हमें वंचित होना पड़ेगा। इस प्रकार खेती का नष्ट होना हमारे संपूर्ण अस्तित्व का संकट भी है और इसलिए अस्तित्व को कायम रखने का सवाल भी है।

अब इस समस्या का दूसरा पहलू भी देखते हैं। खेती को बचाना हमारे अस्तित्व को बचाने की लड़ाई है। इस लड़ाई में दूसरा पक्ष है-जंगली जानवर। क्या ऐसा नहीं है कि जंगली जानवर भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं? परन्तु उनकी पैरवी भी मनुष्य ही कर रहे हैं। पर्यावरण व वन्य जीव प्रेमी व समर्थक उनके पैरोकार हैं। कुछ तो भावनात्मक स्तर पर परन्तु अधिकांश सैद्धांतिक स्तर पर पैरवी कर रहे हैं। उनका मानना है कि अस्तित्व की लड़ाई में संघर्ष नहीं सहयोग का, सह-अस्तित्व के सिद्धांत का पालन होना चाहिए।

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इस सह-अस्तित्व के पैरोकार आज के जमाने के पढ़े-लिखे पर्यावरणविद् व वन्यजीव प्रेमी विद्वान ही हैं। और वे अच्छे खाते-पीते घरानों से उच्च वर्ग के लोग हैं, जिनका खेती किसानी से दूर तक कोई सीधा संबंध नहीं है। ऐसा सोचना पूरी तरह सही नहीं है। खेती किसानी का संपूर्ण ज्ञान व कौशल की जानकारी रखने वाली बुजुर्ग किसान औरतों मर्दों की एक पूरी पीढ़ी अब ढूंढने पर भी नहीं मिलती है। जो कोई है गांवों में, उनसे हम सुनते हैं कि जंगली जानवर हर समय, हर जमाने में, हर मौसम में रहे हैं।

बंदरों की टोली आती थी, जरा सा शोर करने पर भाग जाती थी। प्रायः अनाज की बालियां व फलियां चलते-चलते नष्ट कर जाती थी। जंगलों में ही मुख्य रूप से रहती थी। लंगूर खेती पर बहुत कम आते थे। सुअर और भालू रात को ही फसलों पर आते थे। भालू तो बहुत ही डरपोक हुआ करता था। सुअर तो बहुत ही कम थे। मक्का, आलू को ही नुकसान पहुंचाते थे। किसान खेतों में दो-चार बल्लियां गाड़कर उसके ऊपर घास-पात डालकर, आग जलाकर, धुआं करके ही वहीं पर दरी कंबल बिछाकर रात भर फसल की रखवाली करता था। इतना करने पर भी कुछ न कुछ फसल का नुकसान जानवर कर ही डालते थे। जिसे किसान भी जानवर का हिस्सा मानकर संतोष कर लेता था।

किसान ने कभी इन जानवरों को मारने की नहीं सोची और न जानवर इतने हिंसक हो उठते थे, जैसे कि आज हैं। अब सवाल यह है कि जंगली जानवरों की आदतों में इतना परिवर्तन क्यों आया है? वहीं बुजुर्ग पीढ़ी बताती है कि उस समय घने जंगल थे। जंगलों में किस्म-किस्म के जंगली फल-फूल, कंदमूल व वनस्पतियां थी। जिन पर ये जानवर निर्भर थे। जंगलों में पर्याप्त पानी के स्रोत थे। अब जैव विविधता वाले जंगल रहे नहीं। अधिकांश पेयजल स्रोत टेप कर लिए गए हैं और पाइप लाइन बिछाकर गांवों तक पहुंचा दिए गए हैं। इस तरह हमने उनके भोजन व पानी के स्रोतों पर डाका डाल दिया है, उनके आवास स्थलों को नष्ट कर दिया है। इसलिए वे हमारी फसलों को नुकसान पहुंचा रहे हैं तो इसमें उनका क्या दोष है?

निष्कर्ष यह है कि खेती पर मौजूद संकट मनुष्य व पशु-जंगली जानवरों के बीच अपने-अपने अस्तित्व को बचाए रखने की जद्दोजहद है। हमें यह समझना होगा कि जिस प्रकार मनुष्य जाति समूह बनाकर अपनी जाति का संरक्षण व पोषण कर रही है। उसी प्रकार अन्य प्राणी भी अपनी जातिगत सामाजिकता का निर्माण कर अपना अस्तित्व बनाए रखने का प्रयत्न करते हैं। सृष्टि में सह-अस्तित्व का सिद्धांत काम करता है।

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