अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस पर विशेष-मन की बात

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डा दिनेश जोशी की कलम से🖋🖋
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(आयुर्वेद पंचकर्म चिकित्सक)

(Speciality in neuro- muscular disorders/pain management through ayurved)

आज अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस है। सभी अपने स्तर पर बालिका दिवस की बधाई प्रेसित कर रहें हैं। आज वास्तविकता को समझना भी आवस्यक है।आखिर कुछ प्रश्न मेरे मन में हमेशा आते हैं आखिर रूढ़िवादी विचार समाज ने बनाये हैं उसके पीछे सदियों से चली आ रही विचारधारा है। क्या कारण हैं-
कि समाज पित्रात्मक सत्ता के पक्ष में खडा रहता है?

-आज भी बालिका के जन्म पर कई मातायें बहिनें या बुजुर्ग नाक मिचोड कर मन ही मन व्यथित होते हैं?जबकि वह स्वयं स्त्री हैं?
-आज भी बालिका को पित्र सम्पदा पर हक नही मिलता? जबकि बालक के साथ साथ वह भी एक ही माता पिता की सन्तान है।
-क्या कारण है की बालिका पर आज भी लोग शिक्षा पर उतना धन खर्च नही करना चाहते जितना बेटे पर करते हैं?

-कई लोग तो भगवान के दरबार में केवल इसी कामना के साथ जाते हैं की पुत्र रत्न की प्राप्ति हो जाये आपके दरबार में भन्ड़ारा करायेंगे। पुत्री रत्न प्राप्त पर शायद ही कोई कराता होगा।

-क्या कारण है हमेशा लड्की के पहनावे पर ही समाज ऊँगली उठाता है लडके के अमानवीय व्यवहार पर नही बोलता।
-क्या खाना बनाना एवं किचन का कार्य केवल लडकियों का जन्मजात कार्य है?

छोटे छोटे प्रश्न हैं वह भी बहुत सारे।
उनको भी अपने सपने जीने का अधिकार मिलना चाहिये।
बहुत से माता पिता आज अपनी लडकियों/से लेकर सभी स्त्री वर्ग का सम्मान करते हैं उनको सैल्यूट है।

लड़कियों द्वारा अनेक क्षेत्रों में ऊंची उपलब्धियां हासिल करने के बावजूद भारत में जन्म लेने वाली अधिकतर लड़कियों के लिए यह कठोर वास्तविकता है कि लड़कियां शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे बुनियादी अधिकारों और बाल विवाह से सुरक्षा के अधिकार से वंचित हैं। परिणाम स्वरूप वे आर्थिक रूप से सशक्त नहीं हैं। प्रताड़ना व हिंसा की शिकार हैं।

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जनगणना आंकड़ों के अनुसार बाल लिंगानुपात 1991 के 945 से गिरकर 2001 में 927 हो गया और इसमें फिर 2011 में गिरावट आई और बाल लिंगानुपात 918 रह गया। यह महिलाओं के कमजोर होने का प्रमुख सूचक है, क्योंकि यह दिखाता है कि लिंग आधारित चयन के माध्यम से जन्म से पहले भी लड़कियों के साथ भेदभाव किया जाता है और जन्म के बाद भी भेदभाव का सिलसिला जारी रहता है। भारत में अगर लिंग अनुपात देखा जाए तो बेहद निराशाजनक है। 2011 में हुई जनगणना के हिसाब से भारत में 1000 पुरुषों पर 940 है। यह आंकड़े राष्ट्रीय स्तर पर औसतन हैं। अगर हम राजस्थान और हरियाणा जैसे स्थानों पर नजर मारें तो यहां हालात बेहद भयावह हैं।

हमारे देश की यह एक अजीब विडंबना है कि सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद समाज में कन्या भ्रूण हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। समाज में लड़कियों की इतनी अवहेलना, इतना तिरस्कार चिंताजनक और अमानवीय है। सरकार ने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम की पहल की है। इस कार्यक्रम को एक राष्ट्रव्यापी जन अभियान बनाना होगा।

भारत में लगातार घटते जा रहे इस बाल लिंगानुपात के कारण को गंभीरता से देखने और समझने की जरुरत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने राजस्थान के झुंझुंनू में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान का शुभारम्भ करते वक्त कन्या भ्रूण हत्या जैसे घृणित कार्य को समाज पर कलंक बताया था। उन्होंने कहा था कि सरकार हर सम्भव तरीके से कन्या भ्रूण हत्या पर रोक लगायेगी।

जाहिर है लिंगानुपात कम होने का कारण प्राकृतिक नहीं है। यह एक मानव निर्मित समस्या है, जो कमोबेश देश के सभी हिस्सों, जातियों, वर्गों और समुदायों में व्याप्त है। भारतीय समाज में व्याप्त लड़कियों के प्रति नजरिया, पितृसत्तात्मक सोच, सामाजिक-आर्थिक दबाव, असुरक्षा, आधुनिक तकनीक का गलत इस्तेमाल इस समस्या के प्रमुख कारण हैं। समाज में आज भी बेटियों को बोझ समझा जाता है।

आज भी बेटी पैदा होते ही उसके लालन-पालन से ज्यादा उसकी शादी की चिन्ता होने लगती है। महंगी होती शादियों के कारण बेटी का हर बाप हर समय इस बात को लेकर फिक्रमन्द नजर आता है कि उसकी बेटी की शादी की व्यवस्था कैसे होगी। समाज में व्याप्त इसी सोच के चलते कन्या भ्रूण हत्या पर रोक नहीं लग पायी है। कोख में कन्याओं को मार देने के कारण समाज में आज लड़कियों की काफी कमी हो गयी है।

भारत में पुरुषों की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है। भारत में हर साल तीन से सात लाख कन्या भ्रूण नष्ट कर दिये जाते हैं। इसलिए यहां महिलाओं से पुरुषों की संख्या 5 करोड़ ज्यादा है। सोनोग्राफी के प्रचलन से लड़के की चाह रखने वाले लोगों को वरदान मिल गया और कन्या भ्रूण की पहचान कर हत्या की शुरुआत हुई। इस प्रकार से पहचान कर कन्या भ्रूण की हत्या के कारण भारत में पुरुषों की संख्या में तेजी से उछाल आया।

समाज में निरंतर परिवर्तन और कार्य बल में महिलाओं की बढ़ती भूमिका के बावजूद रूढ़िवादी विचारधारा के लोग मानते हैं कि बेटा बुढ़ापे का सहारा होगा और बेटी हुई, तो वह अपने घर चली जायेगी। बेटा अगर मुखाग्नि नहीं देगा, तो कर्मकांड पूरा नहीं होगा।

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पिछले 50 सालों में बाल लिंगानुपात में 63 पाइन्ट की गिरावट दर्ज की गयी है। वर्ष 2001 की जनगणना में जहां छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी लेकिन 2011 की जनगणना में यह घटकर कर 914 हो गया है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लिंगानुपात को बढ़ाने के लिए अनेकानेक प्रयास किये गये हैं लेकिन स्थिति सुधरने के बजाय बिगड़ती ही गयी है। हमारे देश की बेटियां अंतरिक्ष में जाकर इतिहास रच चुकी हैं वहीं सेना में भी शौर्य दिखा रही हैं। देश में महिला हर क्षेत्र में पुरूषों के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर देश के विकास में अपनी बराबर की भागीदारी निभा रही हैं। ऐसे में उनके साथ समाज में हो रहा भेदभाव किसी भी दृष्टि से उचित नहीं माना जा सकता है। आज जरूरत है हमें महिलाओं को प्रोत्साहन देने की तभी सही मायने में देश विकास कर पायेगा व राष्ट्रीय /अन्तर्राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाना सार्थक हो पायेगा।
धन्यवाद।

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