आध्यात्मिक होने का सही अर्थ है आंतरिक मूल्यांकन करना और ये धार्मिक होने से पूर्णतया अलग है।अध्यात्म और धर्म ये दोनों बिल्कुल अलग हैं और इनकी आपस में कोई समानता नहीं है, आप अपने अंदर से कैसे हैं? यदि आप अपने दुःख से दुखी और थोड़े से सुख से सुखी हो जाते हैं तो यकीन मानिये आप अध्यात्मिक नहीं हैं…. वहीं दूसरी तरफ यदि आपको किसी के दुःख को देखकर कष्ट होता हो और आपका ह्रदय अधीर हो उठता है तो आप निश्चित तौर पे आध्यात्मिकता की राह पर हैं।
हिमशिखर धर्म डेस्क
यदि आप परमसत्ता एवं परमशक्ति में विश्वास रखते हैं और ये समझते हैं कि आप उस परमशक्ति के ही अंश हैं, और यही विचार यदि किसी दूसरे जीव को देखकर आपके मन में आता है तो आप आध्यात्मिक हैं। आपके द्वारा किये गए किसी भी कार्य में यदि आपका कोई स्वार्थ निहित नहीं है बल्कि वो कार्य आप सर्वहित एवं सभी के भलाई को ध्यान में रखकर कर रहे हैं तो आप आध्यात्मिक हैं। यदि आप अपने अहंकार, क्रोध, ईर्ष्या, नाराजगी, लालच और पूर्वाग्रहों से ऊपर उठ चुके हैं और इनका आपके ऊपर कोई प्रभाव नहीं है तो आप आध्यात्मिक हैं।
हमारे दार्शनिक ग्रंथों और वेदों में कहा गया है कि आत्मा और परमात्मा से संबंधित शाश्वत ज्ञान का अनुगमन करना ही अध्यात्म विद्या है। अध्यात्मिक होने का मतलब भौतिकता से परे जीवन का अनुभव करना है। कई बार हम धर्म और अध्यात्म को एक ही समझने लगते हैं, पर अध्यात्म धर्म से बिलकुल अलग है। ईश्वरीय आनंद की अनुभूति करने का मार्ग ही अध्यात्म है। अध्यात्म व्यक्ति को स्वयं के अस्तित्व के साथ जोड़ने और उसका सूक्ष्म विवेचन करने में समर्थ बनाता है। वास्तव में आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि व्यक्ति अपने अनुभव के धरातल पर यह जानता है कि वह स्वयं अपने आनंद का स्रोत है। अध्यात्मिकता का संबंध हमारे आंतरिक जीवन से है।
आध्यात्मिक होने का अर्थ ये है कि आपको अपने अनुभवों से ये ज्ञात हो चुका है कि आप स्वयं ही अपने आनंद का स्त्रोत हैं एवं इसके लिए बाहरी कारकों पर आप निर्भर नहीं हैं….सही मायनों में यदि आप ये समझ चुके हैं कि आंतरिक सुख, आनंद एवं शान्ति आप कहीं और से प्राप्त नहीं होगी बल्कि ये सभी आपके अंदर ही निहित है तो ये कहा जा सकता है कि आप आध्यात्मिकता का सही अर्थ समझ चुके हैं।
किसी भी कार्य को आप सिर्फ ये समझकर नहीं कर रहे हैं कि ये काम बस करना है अपितु अगर आप किसी भी कार्य को करते समय उसमें पूरी तरह डूब जाते हैं और उस कार्य को पूरी तन्मयता से करते हैं तो वहीं पे आपकी आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है और वास्तव में आध्यात्मिकता का सार भी यही है कि कार्य चाहे छोटा हो या बड़ा आप उसे पूरी तल्लीनता से करते हों
भगवद्गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अध्यात्म का सही अर्थ समझाया है और जब अर्जुन असमंजस कि स्थिति में थे कि वो अपने बंधु-बांधवों पर शस्त्र कैसे उठाये तब श्रीकृष्ण उन्हें बताते हैं कि अर्जुन इस समय जिस मोह से तुम ग्रसित हो यही सबसे बड़ी अड़चन है तुम्हारे और आध्यात्म के बीच में। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इस शरीर और आत्मा के गूढ़ रहस्य को समझाया और बताया कि ये तुम्हारे अंदर जो मोह उत्पन्न हो रहा है वो सिर्फ उस शरीर के लिए है जो कि नश्वर है, आत्मा अजर और अमर है।
उन्होनें अर्जुन को बताया कि मोह, बंधन और माया से परे सोचो तब जाकर आध्यात्म जागृत हो सकेगा और जो सर्वहित में हैं वो कार्य तुम कर पाओगे । तब जाकर अर्जुन को अध्यात्म का सही अर्थ समझ आया एवं वो युद्ध के लिए उठ खड़े हुए इसका प्रमुख कारण यही है कि उन्होंने अध्यात्म का सही अर्थ समझ लिया था। आज के समय में भी गीता का ज्ञान आध्यात्मिकता को समझने के लिए अत्यंत आवश्यक है। जब तक हम अपना आतंरिक मूल्यांकन नहीं करेंगे तब तक हम अध्यात्म का सही अर्थ नहीं समझ पाएंगे।
जिस दिन हमें आत्मज्ञान की अनुभूति हो जाएगी और हम अपने शरीर से मुक्त होकर विचार करेंगे और शरीर से आसक्त होकर कोई कार्य नहीं करेंगे तो हमें स्वयं आध्यात्मिक होने का अर्थ समझ में आ जाएगा।