महामना पं. मदन मोहन मालवीय जयंती विशेष:बदरीनाथ मंदिर हस्तांतरण क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर महामना का दृष्टिकोण

 डॉ. योगंबर सिंह बर्त्‍वाल

Uttarakhand

मदन मोहन मालवीय का बदरीनाथ मन्दिर के प्रति लगाव था। मालवीय जी के जीवन के दो मंत्र ईश्वर भक्ति तथा देश भक्ति थे। उन्होंने बदरीनाथ मन्दिर के सुधार एवं उनके क्षेत्राधिकार के प्रश्न पर उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था। उनका मत था कि बदरीनाथ मन्दिर का सुधार कार्य एवं रख-रखाव का कार्य टिहरी रियासत द्वारा ही किया जाये। क्योंकि दीर्घकाल से मन्दिर की सुरक्षा, रख-रखाव एवं आवश्यक सुधार टिहरी रियासत द्वारा ही किया जाता रहा है। यह उल्लेख 15 जनवरी 1934, बनारस में की गयी, जिसका विषय बदरीनाथ मन्दिर हस्तान्तरण एवं क्षेत्राधिकार का प्रश्न है।

1. इसमें दिये गये कारणों के लिये मैंने एक अपील प्रकाशित की जो 31 जुलाई, सन् 1983 के लीडर पत्र में है। इसमें अर्ज की गयी कि जो लोग सनातन धर्म के अनुयायी हैं वे उक्त क्षेत्राधिकार हस्तांतरण का आदर करें एवं सपोर्ट करें। प्रस्ताव जो इस हेतु यह है कि बदरीनाथ मंदिर क्षेत्र का क्षेत्राधिकार टिहरी राज्य (टिहरी नरेश) की पुर्नहस्तांतरित किया जाय। 13 अगस्त 1993 के लीडर पत्र में एक पत्र वृत्तांत दृष्टिगत हुआ है जिसमें पंडित तारादत्त गैरोला ने मेरी अपील पर टिप्पणी की है और क्षेत्राधिकार- हस्तांतरण का विरोध किया है। मिस्टर बी. एन. शरगा ने एक पम्फलेट प्रकाशित किया है, जिसमें उसी बिन्दु को उठाया गया है। जैसा कि उपर्युक्त पत्र में कहा गया है या लिखा है। यह पम्फलेट उत्तर-प्रदेश धर्म रक्षा सभा को संबोधित है। जिसमें हिन्दु आचार्य, लीडर्स एवं विधान सभा के सदस्य है। दूसरी तरफ साधु संतों एवं उत्तर दायी व्यक्तियों को भी लिखा है कि वे मुझे सपोर्ट करे जो मैने कहा है प्रश्न का महत्वपूर्ण बिन्दु यही है कि मैं उस पूर्ण साहित्य से वाकिफ हुआ हूँ अर्थात मैंने इस पूर्ण साहित्य पर अपनी दृष्टि डालकर जाना है और टिहरी दरबार से मुझे मेरे प्रश्न बिन्दु पर बहुत कुछ कही बातें मिली है जो प्रश्न बिन्दु के विरोध में अर्ज की गयी है। मैं टिहरी दरवार को धन्यवाद देता हूँ, उन सभी बातों के लिये जो मुझे संपूर्ण सुचनार्थ प्रयाप्त हुई है। अध्ययन करने पर भाव की पुष्टि हुई है जो मैंने 31 जुलाई 1993 के लीडर पत्र में प्रकट की थी। वह भी यही कि न्याय और सत्य के पक्ष या रूचि में, भविष्य के प्रबन्धन- संतुष्टि के लिये पूरे बदरीनाथ मंदिर क्षेत्र का क्षेत्राधिकार टिहरी राज्य को पुनः हस्तांतरित किया जाये। उनके समक्ष इसे रखना मेरा कर्तव्य है, जो प्रश्न के आगामी परिणाम के अध्ययन से संबंधित हो सकता है, मुख्य एतराज से व्यवहत हो सकता है जो प्रस्ताव में जताये बिन्दु विरोध में उठाये गये है। मुझे अफसोस है कि मैं स्वास्थ्य के कारण एवं अन्य कार्य के दबाव में रहने के कारण इस पर नोट तैयार नहीं कर सका।

2. मि. सरगा ने माना है कि पूर्व पंवार राजवंश के टिहरी गढ़वाल के पूर्वावस्था की प्राप्ति से लेकर, अल्प शताब्दी बीत गई कि अन्य टैरीट्री के साथ-साथ पुरे श्री बदरीनाथ का क्षेत्राधिकार टिहरी राजा के पास था लेकिन राजा सुदर्शन शाह ने इसे ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया था। राजा सुदर्शन शाह पूरे बदरीनाथ के साथ हिस्सा लेने के लिये ज्यादा इच्छुक नही थे। ऐसा करने के लिये वह इसलिये राजी हुए क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने नेशल के गोरखाओं से उसकी खोई राजसत्ता राजधानी वापस दिलाने में मदद की थी। इससे संबंधित मामले में ब्रिटिश सरकार ने राजा को आगाह किया था कि वह इस मदद के एवज में श्री बदरीनाथ क्षेत्राधिकार ब्रिटिश सरकार को सौंप देगा। राजा ने इसे तभी स्वीकार किया जब ब्रिटिश सरकार ने उसकी मदद की जो इस पर टिहरी दरबार ने विश्वास दिया कि वह श्री बदरीनाथ मंदिर के धार्मिक एवं आर्थिक प्रशासन छोड़ देगा। ब्रिटिश सरकार ने इस पर राजा की कुछ शताब्दी तक के लिये विश्वास दिया कि जब तक सिविल प्रोसिजर कोड का निर्माण होता है। इस सिविल प्रोसीजर कोड में संपूर्ण ब्रिटिश भारत को तथा ब्रिटिश गढ़वाल में पड़ने वाले बदरीनाथ मंदिर क्षेत्र को से लिया गया था। टिहरी नरेश को यह सलाह दी गयी थी कि इसके बाद वह केवल पूरे बदरीनाथ का न्यासी होगा और सरकार राजा के न्यासी होने का मन करेगी। ब्रिटिश भारत के रहते हुए किसी अन्य विषय की तरह ब्रिटिश गढ़वाल कोर्ट में वाद दायर किया जायेगा। इसके बाद में टिहरी नरेश के स्तर का अवनत होना, इससे बचना एवं अन्य जटिलताओं को इसमें शामिल किया गया। इस कानूनी सलाह के अन्तर्गत टिहरी नरेश ने इसे मान लिया था जो सरकार ने सूट फाइल किया था तो उसे कुमाऊँ उच्च न्यायालय ने सन् 1899 में स्वीकार कर लिया था। रावल को जो राजा का नोमिनी था, सभावित शर्त से मंदिर का न्यासी बनाया था। यह सच होते हुए भी राजा सुदर्शन शाह की धारणा गलत है कि उसने ब्रिटिश सरकार को पुरी बदरीनाथ क्षेत्र को स्वेच्छा से सौंपा था।

3. मि. गैरोला ने कहा है कि ऐसा कोई ऐतिहासिक, कागजाती सबूत नहीं है। जिससे यह सिद्ध हो सके कि बदरीनाथ मंदिर का नियंत्रण राजा कनकपाल, 688 ए.डी. से टिहरी नरेश के हाथ में था। परन्तु उत्तर प्रदेश के शीर्षक मैनुअल में उत्तर प्रदेश सरकार के प्राधिकार से यह कृपा है और पृष्ठ 12 पर बताया जाता है। गढ़वाल शासन का राजा अग्निवंश का पंवार क्षत्रिय था। यहाँ का प्रथम वंशीय राजा कनक पाल था जो 688 ए.डी. में गुजरात (अहमदाबाद) से उत्तर भारत आया था। राजा भानु प्रताप सूर्यवंशी था जो केदारखण्ड (गढ़वाल) का शासक था। भानु प्रताप शासक ने कनकपाल को अपनी कन्या व्याह दी थी और उसे सारी वांशिक राज्य संपदा दे दी थी ताकि वह स्वयं हिमालय में आत्मिक शन्ति से जीवन भर रहे। 688 ए.डी. से गढवाल के अतीत शासक का पूर्ण जेनेलोजिकल वंशानुगत सूची टेबिल है। उसकी मृत्यु तक जो उच्च मैनुअल में वर्णित है। यह सरकार द्वारा योग्य प्रमाण के रूप में स्वीकार भी किया गया है। एटकिंसन के राजपत्रक, वाल्यूम 2, पृष्ठ 546 पर गढ़वाल राजा की वहीं सूची है जिसे मि. बेकेट ने पत्रावली प्रमाण से संकलित किया है। मि. बैकेट गढवाल का सेटलमेंट ऑफीसर था। इन दोनों डॉक्यूमेंटरी प्रमाणों में गढ़वाल का प्रथम राजा कनकपाल था जिसे 699 ए.डी. में 57 वर्ष की आयु में मृतक दर्शाया है। कनकपाल इस राजा (688 ए.डी. से लेकर) 11 वर्ष से लेकर 59 वर्ष तक राज्य किया। इस दावे का समर्थन करने से यही पर्याप्त होगा, सम्मान करना होगा कि 788 ए.डी. से टिहरी राज्य का जुड़ाव पुरी बदरीनाथ से रहा है, जब पंवार राज्य सत्ता ने कैन्चुरा राजसत्ता पर अधिकार जमा लिया था। गढवाल का अंतिम राजा भानु प्रताप ही था। परंतु यह भी कहना न होगा कि इस विचारणीय विषय पर इश्यू नहीं हो सकता है। मि. गेरौला का स्वयं का कहना है, “टिहरी राजा के पूर्वजों ने बदरीनाथ समेत संपूर्ण गढवाल पर अपना प्रभुत्व बढ़ा लिया था।” तेरहवीं शताब्दी में जबसे केदारनाथ, बदरीनाथ का एवं अन्य गढ़वाल के महत्वपूर्ण मंदिरों का नियन्त्रण उक्त तिथि से लेकर टिहरी नरेश के पास ही था, “यदि हम इस ब्यान या विवरण को सही मानते है। 6 शताब्दी तक उक्त मंदिर का विस्तारण काफी पुराना (जीर्ण) है। टिहरी दरबार के स्पोर्ट देने के लिये तथा मंदिर को पुनर्हस्तान्तरित करने के लिये।”

4. परन्तु मि. गैरोला कहते हैं “ब्रिटिश रूल की खोज से पता चला है कि 1810 के बंगाल रेगुलेशन एक्ट के अन्तर्गत बदरीनाथ एवं अन्य मंदिरों का नियंत्रण रेवेन्यू बोर्ड में ही निहित था” एवं व आगे कहते हैं, यद्यपि 1863 के धार्मिक संस्था में प्राभूत के अन्तर्गत सरकार ने ब्रिटिश भारत में मंदिरों, मस्जिदों से अपना संबन्ध समाप्त कर लिया, बदरीनाथ निरन्तर रेवेन्यू अथॉरिटी के नियंत्रण में रहा यह भी सन् 1899 में कुमायूँ उच्च न्यायालय द्वारा स्कीम बनाये जाने तक”, उपर्युक्त दोनों विवरण सही नहीं जान पड़ते है जैसा की उपर कहा गया है कि बदरीनाथ मंदिर का क्षेत्रधिकार ब्रिटिश सरकार को सौंप दिया जाये। यद्यपि बदरीनाथ का धार्मिक, आर्थिक नियंत्रण ब्रिटिश सरकार राजदरबार के लिये देने को राजी हो गई थी और ऐसा किया भी गया। अर्द्ध धार्मिक एवं अर्द्ध सिविल प्रकृति स्वभाव, प्रकृति के मामले की बात है, ब्रिटिश जिला अथॉरिटी एवं टिहरी दरबार ने आपसी सहयोग सहमति से यह काम किया भी। सिविल मामले में तो टिहरी दरबार को कोई हाथ नहीं है। इस प्रबन्धन में रावल या मंदिर का पुजारी निरंतर बना रहेगा जैसा की टिहरी दरबार ने पारम्परिक धार्मिक उत्सव में रावल को निरंतर कार्य करते रहने के लिये नियुक्त किया है। उस नियुक्ति के बाद उसे ब्रिटिश आयुक्त का पत्र मिला इस लिये कि उसे सेकूलर कार्यों में मान्यता दी जाये। यहाँ नियुक्ति सन् 1896 या 1897 तक अंतिम थी। इस समय के लगभग किसी को यह मान हुआ कि ब्रिटिश गढ़वाल के सिविल प्रोसीजर कोड के विस्तार के कारण टिहरी दरबार की स्थिति मंदिर के संबंध में न्यासी के रूप में थी, यह स्थिति टिहरी दरबार को मंजूर नहीं हुई और इस स्थिति में 19 जनवरी 1899 को सरकार की प्रबंधन स्कीम बना दी गई कुमाऊँ उच्च न्यायालय के द्वारा वह भी मंदिर के भविष्य के प्रबंधनार्थ। यह स्कीम दोषयुक्त पाई गयी इसलिये इसे दोहराने का प्रस्ताव किया गया। उस समय, तब रावल पुरोषोत्तम का 50 वर्ष के लगभग कार्य । करने का रावल कार्यालय था, वह भी गढ़वाल में ब्रिटिश सरकार के अर्धकाल शासन तक राजनीतिक एजेंट के लिए एक रिप्रजेंटेशन प्रस्ताव बनाया गया जिसमें उसके कार्य को वर्णित किया गया जो ब्रिटिश शासन के समय तक निरंतर जारी रहा। वह भी तब तक जब मंदिर क्षेत्र को रोक दिया गया टिहरी दरबार का हिस्सा बना रहने तक मेरे कथित प्रस्ताव का अनुवाद निम्नांकित है जो परिचर्या में अत्याधिक रोशनी डालेगा। यह अनुवाद इस तरह है “आर. आई, हम्बलिन, एस्थ कमिश्नर एवं जज, हाई कोर्ट कुमाऊँ डिविजन दिनांक 2.11.1899 के कोर्ट मर्क, सिविल सूट सं. 16, 1899 डिप्टी कमिश्नर, जिला गढवाल प्लॅटिप (वादी) पुरूषोत्तम रावल, बदरीनाथ मंदिर डिफेंडेट (प्रतिवादी) सामान्य वचन पश्चात, “मेरा निवेदन है कि मैने 10 तारीख को एक पत्र प्रेषित किया था, उस समय मैं ठीक नहीं था और उस समय संबंधित मामले में जानबूझ कर रहते हुए इस अवसर पर मौजूद नहीं हो सका। इसलिये मेरी प्रार्थना है कि निम्नांकित प्रस्तुत कथनों को तत्काल ध्यान में रखकर स्वीकार किया जाए, जिससे मुझ पर महति अहसान होगा-

मैंने बीते वर्ष कथन पत्र प्रस्तुत किया था, वृद्धावस्था होने के कारण में प्रबंधन की कंडक्ट करने में योग्य स्थिति में नही था, अथवा नहीं मैने पूर्व में इसका चार्ज छोड़ा है।
उप रावल (जो आदि शंकराचार्य द्वारा कार्य करने के लिये नियुक्त था, वह दक्षिण भारत से, (नंबूदी ब्राह्मण होनी चाहिए) जरूरी ही एक नया व्यक्ति और विदेशी होना चाहिए। पर वह यहां की भाषा को जानने के लिये वर्षों से लगा (या उसे यहाँ की भाषा जानने में वर्षों बीत जायेंगे यह कहना कठिन है कि उसे यहां के मंदिर से संबंधित कामकाज का ज्ञान होने में कितना लंबा समय लगेगा। इससे जाहिर होता है कि यदि इस मंदिर से संबंधित इतनी बड़ी संपत्ति के लिये बाहर का व्यक्ति नियुक्त होता है और सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं होता है तो वह अनैच्छुक होगा। परंतु जहां धार्मिक मामले की बात है तो इस मामले पर ब्रिटिश सरकार ने पहले भी कमी व्यवधान नही किया औन न ही भविष्य में ऐसा करने को जाहिर किया, इसलिये प्रार्थना है कि मैं और मेरे पश्चात नायब रावल (उपरावल) पूजा पाठ आदि कराने के कर्तव्य सहित अपना कार्य करने में विश्वसनीय होगा और अन्य मसलों पर टिहरी दरबार का नियंत्रण होगा। केवल इतना करने से ही नहीं अपितु में, वे इस मंदिर से जुड़े अन्य लोग संपूर्ण हिदूंजन आपको आशीर्वाद देंगे आपकी प्रशास्ति गायेंगे। यह मंदिर और हम सबके लाभार्थ रक्षित साबित होगा। पूर्व में टिहरी के महाराजा का शासन लंबे समय तक श्रीनगर से जारी रहा, हर प्रकार से श्रीनगर दरबार ही इसका मात्र स्वामी था। टिहरी दरबार का शासन निरंतर एवं अब तक जारी रहा, रावल और उपरावल को नियुक्त करने, कार्य करने वजीर लिखवार एवं मंदिर के दूसरे कर्मचारियों को नियुक्त एवं कार्य करने का कार्य भी ब्रिटिश शासन के अन्तगत था। मुझे टिहरी दरबार द्वारा तिलक एवं खिलत दिया गया था। टिहरी दरबार अतित की परम्परा या रीति एवं परम्पारगत कार्यों के अनुसार कार्य करें। मंदिर को खोलने तथा उसे निरन्तर जारी रखने तक टिहरी दरबार द्वारा शुभ तिथि नियत की गई। हर वर्ष टिहरी दरबार का पुरोहित मंदिर के द्वार खोलने आयेगा और इससे संबंधित होने वाले खर्च को टिहरी दरबार वहन करेगा।
टिहरी दरबार एक योग्य प्रबंधक की नियुक्ति करेगा 19 जनवरी 1899 की स्कीम (योजना) के अनुसार टिहरी दरबार के स्थान पर मंदिर के होने वाले आय व्यय का ऑडिट एवं निरीक्षण प्रबंधन या प्रबंधक करेगा।
मि. गैरोला द्वारा कहा गया है कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है जो ब्रिटिश सरकार ने सन् 1815 टिहरी नरो को विश्वास दिया था कि वह बदरीनाथ पुरी का धार्मिक, आर्थिक नियंत्रण, जो टिहरी शासक के हाथों में था, छोड़ देगा। इस सच्चाई से बेहतर सबूत और क्या हो सकता है बनिस्पत स्व. रावल के विवरण के जो कार्य करना ऊपर बताये गये है ये वास्तव में 50 वर्षों तक प्रबल होंगे। उस प्रैक्टिस के संबंध में उसका व्यक्तिगत ज्ञान है कि यह कार्य अर्द्ध शताब्दी से ज्यादा तक बढ़ा हुआ था। सरकार के अधिकारी को उसके पत्र से संबोधित किया गया था जो जानता था कि उक्त से संबंधित क्या कार्य हो सकता है और इस मासले में उसकी कोई रूचि नहीं है। सिवाए मंदिर के उचित प्रबंधन एवं सत्य और न्याय के इसलिये उसका यह सबूत अदोपणीय है, और ऐसा होते हुए इसे निष्कर्ष के रूप में सम्मानित किया जाना चाहिए। इसे टिहरी दरबार के विवरण द्वारा सहयोग दिया जाना चाहिए कि उस समया से बदरीनाथ क्षेत्र ब्रिटिश टेरीट्री हुआ करता था, ब्रिटिश सरकार ने मंदिर कार्यों से संबंधित धार्मिक एवं आर्थिक प्रबंधन व्यक्त कर दिया था। जो कि टिहरी दरबार के हाथों में था। और उचित यही है कि टिहरी दरबार एवं रावल पुरूषोत्तम के विवरण को ब्रिटिश सरकार स्वयं सहयोग करें।

5. बदरीनाथ मंदिर के लिये प्रबन्धन की दोहरायी गयी स्कीम नवंबर 1899 में निर्दिष्ट है। इस पर दृष्टि डालने से जान पड़ता है कि इस स्कीम में भी टिहरी दरबार की स्थिति मंदिर के आमने सामने है जो स्पट तौर से स्वीकृत है इस सीमा तक सोचा गया था कि मामलो की स्थिति में सम्भाव्य यही है, वह भी निम्नांकित संकेतों में यही है कि रावल टिहरी दरबार की स्वीकृति से उपरावल (न्याय रावल) की नियुक्ति करेगा जो उसका उत्तराधिकारी होगा। यदि किसी स्थिति में रावल नायब रावल की नियुक्ति नहीं कर पाता है तो टिहरी दरबार नायब रावल की नियुक्ति करेगा। यद्यपि रावल मंदिर का न्यासी घोषित है। और इस मंदिर से

संबंधित संपत्ति का संपूर्ण प्रबंधन उसे दिया हुआ है, इस हालात में यदि किसी कठिन परिस्थितिवश वह ऐसा नहीं कर पाता है तो वह इस मामले को परामर्श हेतु टिहरी दरबार को भेज सकता है। रावल मंदिर से संबंधित खर्ची रशिदों माल रूपये पैसे का उचित लेखा जोखा रखेगा और वह यह सब हर वर्ष टिहरी दरबार को स्वीकृति हेतु भेजेगा यह मंदिर द्वार बंद हो जाने के पश्चात और जब भी टिहरी दरबार द्वारा ऐसा उच्च करने के लिये निवेदन किया जाता तो उक्त विषय पर स्वीकृति अथवा टिहरी दरबार की सहायता से रावल सुरक्षित संरक्षण एवं धन रशिदों का निपटान मंदिर की सुरक्षित योग्य सम्पदा वस्तु जो मंदिर पूजनार्थ नहीं है का उचित प्रबन्ध करेगा।

• टिहरी शासक ने श्री बदरीनाथ की पूजा सम्पन्न करने के लिये और इस कार्य को संतुष्टी तक ले जाने के लिये बहुतायत में गाँव आदि धन सम्पदा के रूप में दान रूप दिये इसके अलावा टिहरी दरबार ने प्रतिज्ञा ली की यदि वार्षिक मंदिर खचों में चाटा पड़ता है तो वह इसे पुरा करेगा। निष्कर्ष रूप से इसके लिये किसी तरह की जरूरत होती है तो रावल आर्थिक मद्द के लिये टिहरी दरबार को आवेदन कर सकता है उदाहरणार्थ सन् 1927 में ऐसा हुआ है जब मंदिर पूजा से संबंध खर्च नहीं था तो रावल ने मॉदर पूजा आदि खर्च के लिये टिहरी दरबार को लिखा और दीवान से पांच हजार रूपय का अनुदान की मांग की वह भी उस समय जब टिहरी नरेश इंग्लैंड गये थे यहां नहीं थे। यहां अर्थिक अनुदान की माँग टिहरी दरबार द्वारा की गई वायदे के अनुसार की गई थी। तद्नतर उस वर्ष एक हजार रूपय उच्च कार्य हेतु दिये गये थे।
आगे स्मरण करना यह भी महत्वपूर्ण है कि टिहरी दरबार रावल की नियुक्ति के समय तिलक देता है और तीर्थ यात्री मौसम के दौरान जब तक मंदिर के कपाट बन्द नहीं होते तब तक टिहरी दरवार मंदिर के कपाट बन्द होने के उत्सव की तारीख तय नहीं करता है और टिहरी दरबार मंदिर के कपाट बन्द होने के कार्य हेतु अपना राज पुरोहित भेजता है।
6. दोनों आलोचनाएं (या आलोचकों ने) उपयुक्त की पत्र भेजी गया गई जिसमें टिहरी दरबार के दीवान से संबन्धित विवरण में पीड़ा जाहिर दर्शायी गयी है कि टिहरी नरेश ने श्री बदरीनाथ की पूजा आदि के लिये असंख्य गांव आदि संपदा दान रूप में दी थी सही नहीं है राजपत्रांक, पृष्ठ से 104 में लिखित रिकार्ड से पता चलता है और इसमें दर्शाया विवरण उक्त तथ्य को सपोर्ट करता है। जिसे उसमें बताया है टर्म गूठे जमीनी राजस्व के देने को प्रमाणित करता है गढ़वाल के इस महादेवालय के रखरखाव के लिये उक्त ग्राम आदि संपत्ति दान रूप में दी गई थी राज्य के लिये इस तरह की संपत्ति का दिया जाना अतिविपुल प्रतीत है परन्तु इसे गोरखाओं और ब्रिटिश सरकार ने रोक दिया था। आगे रिपोर्ट के पृष्ठ 39 में बताया गया है इसे पोज बंदोबस्त बताया है। टर्म गुंठ जिससे सारी जमीनी देनदारी धर्म स्थापना के लिये है अब पदवी रूप में है हालिया तुलनात्मक रूप से परिचयात्मक है, गोरखाओं के समय और पुराने नाम जिनके द्वारा इस तरह दानरूप संपत्ति जतायी जा रही है वह हिन्दूशब्द संकल्प एवं विष्णुप्रीत के रूप में है। धर्म संबंधी जसंख्या देनदारी नेटिव भूपति के द्वारा विवरणित अधिक थी। वह भी असंख्या या सकल या गढ़वाल में सी गाँवों का कुछ हिस्सा। यह सकल अनुदान गोरखाओं ब्रिटिश सरकार द्वारा रोक दी गयी थी। आगे पोज बंदोबस्त की रिपोर्ट बताती है माणा पास में गढ़वाल राजा के द्वारा कोई राजस्व नहीं लिया गया है। बदरीनाथ मंदिर जो माणा पास क्षेत्र में स्थित है के लिये यह पहली धर्म-देनदारी की स्वीकृति है।

7. मि. सरंगा ने दस बिंदु पर संदेह उठाने का प्रयास किया है जो जे.बी. फ्रेशर के विवरण में बताया गया है जिसने हिमालय यात्रा की वह भी गोरखा शासन के निष्कासन के बाद, वह बताता है कि श्रीनगर (गढ़वाल) का राजा देवालय से उधार लेने का आदि था, वह भी आपत्ति के समय, वह कभी वापिस नहीं करता था। जे. बी. फ्रेशर के जोर्नल 370, 372, 376, 409 से पता चलता है कि.मि. फ्रेशर ने कभी स्वयं इस गढवाल (जो टिहरी नरेश का एक देश था) को देखा ही नहीं है जो अब ब्रिटिश गढ़वाल है और उपर्युक्त रिमार्क एक लेख को कूटेशन है जो वेल एवं रेपर की ऐशियाटिक रिसर्च से लिया गया है, वह जो 1808 ए. डी. के दौरान देश की यात्रा पर आया था गोरखा अधिपत्य के समय, जिसने अनुमानतः गोरखाओं की सूचना से यह उदमूल की है क्योंकि गोरखा गढ़वाल नरेश के दुश्मन थे इस प्रकार का व्याख्यान और सच्चाई हाल ही के एक ब्रिटिश लेखक द्वारा उदाहरण रूप में की गयी है, जो विषय बस्तु की प्रकृति में नहीं हो सकती हैं, जिसका अधिक ऐतिहासिक मूल्य है वह भी जब तक इसे स्वतंत्र जांच से सहयोग नही मिलता है। वे बिना किसी जड बुनियाद के प्राप्त किये गये जब पुराने गुंठ, जागीर, सदाव्रत ग्राम के नियम ब्रिटिश प्रबंधन अधिकारी द्वारा तैयार किये गये थे डॉक्यूमेंट्री प्रमाणों के आधार पर जिससे साबित होता है कि सकल गुंठ ग्राम गढवाल राजा के द्वारा दिये गये थे जो संकल्प और विष्णुप्रीत धार्मिक भेंट के रूप में न कि ये ग्राम उधार वापसी रूप में मंदिर को दिये गये थे। इसके अतिरिक्त यदि बदरीनाथ गूंठ ग्राम उधार वापसी या बंधक के रूप में दिये गये। है तो फिलहाल ब्रिटिश एवं राज्य गढ़वाल में मौजूद असंख्या गाँव के दिये जाने का भाव क्या हो सकता है जो ब्रिटिश गढ़वाल में मौजूद श्री केदारनाथ या श्री कमलेश्वर देवालय को दिये गये है? गढ़वाल उपसमिति से जुड़े श्रम-पूर्ति के पश्चात मि. सर्गा ने 10 जनवरी, 1929 उपसमिति के सचिव को स्वयं पत्र लिखा- आप यह भूल गये है कि श्री बदरीनाथ देवालय की संपूर्ण उपहार के रूप में दी जाने वाली संपदा टिहरी दरबार की उदारता का कारण है जो अब हर वर्ष अधिकांश विपुल धन अनुदान के रूप में बनती है। मि. सर्गा अपने पत्र के पैरा 6 में बताते है कि टिहरी नरेश ने बहुतायत में गाँव दानरूप में दिये थे जो सदाव्रत ग्राम रूप में जताये गये है और किसी स्वतंत्र प्राधिकार से सपोर्ट नहीं है। परंतु मि. पोज बंदोबस्त की रिपोर्ट के पृष्ठ 11-12 में कहा गया है कि संपूर्ण संपत्ति खोलिया एस्टेट के रूप में है जो श्रीनगर के राजा द्वारा सदाव्रत अनुदानः के रूप में दी गयी थी।

8. उसी लेखक ने सन् 1829 में बनाई गयी ट्रेल रिपोर्ट का हवाला दिया है- जिसमें बताया है कि 226 गाँव कुमायूँ के है जो मंदिर को उचार रूप में दिये गये थे। परंतु हर ग्राम अनुदान जो ग्राम रूप में रिकॉर्ड है, वाजीबुर्ज के फसाद आदि से परे रखा है क्योंकि मैं अनुदान रूप में दिये ग्राम पूर्णतः पवित्र एवं धार्मिक अनुदान है।
9. मैंने पूर्व में वास्तविकता के बारे में ध्यान आकर्षित किया था कि लेखक ने सन् 1929 में एक पत्र लिखा था जिसमें उत्तर प्रदेश एंडोमेंट (दान या उपहार) समिति को उपसमिति का सदस्य होना जाहिर किया था टिहरी दरवार अब हर वर्ष मंदिर की विपुल धन अनुदान में देता है। उसने माना है कि सन् 1927 में टिहरी दरबार ने रावल को 5000 रूपये भेजे थे और धमकी दी थी कि धन अभाव की वजह से मंदिर की पूजा रोक दी जाय और उसके बारे में जान पड़ा कि टिहरी दरबार 1 को जो भुगतान दिया जाता है वह उसे देने के लिये अनैच्छुक है। वह बताता है, अब 6000 रूपये के संबंधित भुगतान की बात है तो दीवान इस मामले में शांत है भले ही वह अनुदान या धन आदि का दिया गया जाना उधार, उपहार या उधार का पुर्न भुगतान है। मि. सर्गा ने सबूत तौर पर टिहरी दरबार के दीवान से यह नही मालूम किया है कि वह भुगतान किस प्रकृति का है और उसने स्वीकार किया है कि वास्तव में 5000 रूपये की रकम जमा राशि के परे प्रथम और केवल भुगतान थी और यह जमा राशि स्व. महाराज कीर्तिशाह के समय में मंदिर के एवज में थी। इस कथन में वह बिल्कुल सही नहीं, बल्कि गलत है। मुझे टिहरी सरकार से जांच में पता चला है कि सन् 1842-43, 1854-55, 1965 का साढ़े तीन प्रतिशत का सरकारी प्रतिज्ञा पत्र जो 51000 रुपये की कुल फेस वेल्यू का है खरीदा गया था, वह मंदिर के खाते में बैंक की सुरक्षित संरक्षण में रखा गया था, वह भी 63,76079-2 रुपये की संचालित राशि के साथ जो उस खाते में जोड़ा गया था, स्थायी रूप से संकट के समय जरूरत पड़ने पर मंदिर का खर्च पूरा करने के लिये उदाहरण के तौर पर यदि टिहरी दरबार के पास उसका अपना धन नहीं है, दिये गये फंड के अहसान को ख़त्म करने के लिये, जब उसके लिये खर्च फंड का अभाव हो तो मंदिर की आय से खर्च किया जा सकता है। मुझे टिहरी दरबार ने सूचित किया है। जब तक इस खर्च की जरूरत नही आ पड़ती है, इस कुल राशि के परे एक पाई भी खर्च न की जाय। जो 5000 रुपये और दस हजार रुपये की रकम दरबार के दीवान द्वारा रावल को भेजी गयी थी वह पूर्ण रूप से गिफ्ट के रूप में थी न कि उधार या व्याज के पुर्नभुगतान के रूप में थी, किसी उधार के अस्तित्व के लिये नहीं कहा जाता है कि मि.. बेकेट गढ़वाल प्रबंधन के दौरान सरकार द्वारा गूढ ग्राम खरीदे गये थे और टिहरी दरबार द्वारा निश्चित किया गया था, प्राप्त राशि को स्थायी खर्च के रूप में रखा जाय, परन्तु मुझे बताया गया कि लेनदेन से संबंधित पूरा रिकॉर्ड नष्ट हो गया है और इस तरह का अब कोई प्रमाणिक सबूत रिकार्ड नहीं मिलता है।
10. उसी समालोचक यह दिखाने का प्रयास किया है कि श्री बदरीनाथ टिहरी दरबार का पारिवारिक देवता नहीं है। यह कथन चकाचौंध रूप से अशुद्ध है। टिहरी दरवार पर इस तथ्य को पूर्ति जल्दी से नजर डाले जो जल्दी बाजी में लिखा गया। है तो यह दो इंगिल्स के रूप में मिलता है, विष्णुवाहन टिहरी राज्य के श्री सिद्धांत जी के तुरी रखने को सपोर्ट करता है जिसे टिहरी राज्य में बदरीनाथ के देवता होने का कट्टरता से विश्वास किया जाता है, पक्षियों शरणामहम् के आदर्श के साथ में इंगिल बचाव को स्पष्ट करने को पक्ष में हूँ। यह बताना महत्त्वपूर्ण है कि राष्ट्रीय ध्वज या चिन्ह महारानी विक्टोरिया द्वारा भेंट किया गया था जो टिहरी दरबार के पास हैं, (इंगिल्स से रिपोर्ट श्री बदरीनाथ का चिन्ह) यह सत्य है कि टिहरी शासक देवताओं की पूजा करता रहा है, परंतु देवी, श्री बदरीनाथ देवता के शान के मनीफेस्टेशन (स्पष्ट घोषणा) के रूप में है। देवी और भगवान विष्णु की पूजा अनगिनत मिलियंस है। यह पूर्णतः कहना गलत है कि वह विष्णु देवी का पूजक नहीं हो सकता है। यह भी सत्य नहीं है कि टिहरी शासक सत्ता शक्ति है। वे सम्राट है।

11. उसी समालोचक ने माना है कि टिहरी शासक बुलंद बदरीनाथ के रूप में नहीं जाना जाता है। इसके विपरीत यह कहना पर्याप्त होगा, मुझे सूचित किया गया। है कि जब 6 सितंबर, 1992 के दौरान उत्तर प्रदेश के गवर्नर की एक्सीलेंसी पर डेपूटेशन की प्रतीक्षा थी, अन्य बातों के मध्य प्रेसीडेंट ने अपनी एक्सीलेंसी बतायी हैं कि गढ़वाल में उसकी उच्चस्थता बुलंद बद्रीनाथ जानी जाती थी, और उत्तर में उसकी उच्चस्थता या श्रेष्ठता के प्रति रिमार्क दिया गया। सरकार इसके प्रति सावधान थी। जहां तक मैं इसे खोजने पाने में योग्य हुआ हूँ कि टिहरी शासक ने बदरीनाथ का देवता अवतार होने का कभी दावा नहीं किया है। राजा ने हमेशा स्वयं को बद्रीश्चर्या परायण कहा हैं, बदरीनाथ की सेवा पूजा के लिये। संवत् 1756 के टिहरी राज्य के सिक्के में बदरीनाथ कृपया मुद्रा जगीत राजते लिखा है बदरीनाथ की कृपा से / बदरीनाथ भगवान के वरदान से जो कि विश्व के सिक्कों में से एक है। टिहरी नरेश को बुलंद बदरीनाथ कहा जाता है जनता द्वारा क्योंकि उनका विश्वास है कि यह उसी के द्वारा है जो श्री बदरीनाथ के लिये ऐसा कहा जाता है।

यह अधिक महत्त्वपूर्ण प्रार्थनीय है जैसा कि कहा जाता है कि अन्य उत्सवों के माध्य उसकी हाइनेस समाधि या ध्यानावस्था से छह मास पश्चात बदरीनाथ के कार्य या नियंत्रणता करने के लिये अपेक्षित है। यदि इस दौरान बर्फ गिरती है तो इस दौरान पूजा करना कराना या भोग देना संभव नहीं है। तेल आदि मलने से जो धार्मिक उत्सव पश्चात् महारानियों द्वारा महल में तैयार किया जाता है और इसे शान-शौकत के साथ पुरी बदरीनाथ के लिये व्यवहत जाता है। यह उत्सव प्राण प्रतिष्ठा का अल्पाकार रूप में सम्मानित होता है। जो जीवन के लिये स्त्रोत्य है। ये और अन्य बहुत से कर्त्तव्य श्री बदरीनाथ पद्धति के अनुसार किये जाने है पूजा का कोड- उसको हाइनेस द्वारा जिसके माध्यम से राज्य का अस्तित्व पहचाना जाता है। जो मंदिर के उस कार्य से स्वरूप से पहचान में आया है।
12. मि. सरगा ने माना है कि टिहरी दरबार ने यात्रियों पर विपुल आयात कर लगाया है। टिहरी दरबार कहता है कि उदारता के स्वरूप यह कुछ नहीं किया है। यह कहता है, सत्य यह है कि 90 प्रतिशत कुली कर्मचारी टिहरी राज्य से लगभग 5 प्रतिशत कुली कर्मचारी नेपाल से तथा शेष ब्रिटिश भारत के दूसरे भागों से यात्रियों द्वारा लाये कुली या कुली काम में प्रयुक्त किये जाते है। नेपाल सरकार ने टिहरी दरबार में संबंधित कार्य को व्यवहत करने के पश्चात इनकी ड्यूटी देखरेख करने के लिये कुलियों को सौपा है। यात्रियों की सुरक्षा को विश्वास में लेते हुए इनकी पहचान को स्थिर करने के लिये, जब इनकी जरूरत हो, रजिस्ट्रेशन का अनुसरण होना है जो स्थिति में पाया गया है पर्वतीय क्षेत्र में स्थित की प्रकृति में जो कि जरूरी है। हालांकि रजिस्ट्रेशन वैकल्पिक है न कि आवश्यक है। रजिस्ट्रेशन के उद्देश्य उक्त सारा राज्य 64 इलाकों में बंटा है, यात्रियों के आगमन मौसम की शुरूआत में हर इलाके से कुली सेवा उसके इलाके के निवास की ठीक से परिचय पहचान, जो कार्यार्थ लगे या लगने है, नेपाल और ब्रिटिश गढ़वाल समान योग्यता के है। टिहरी दरबार का निश्चय है कि वह यह जिम्मेदारी को डिस्चार्ज करे और इस कार्य के अपने हाथों में लेने के लिये ब्रिटिश प्राधिकार को दबाव बनाये है। वास्तव में टिहरी दरबार ने अरूचि में करीब दो साल से यह कार्य छोड़ दिया है, परन्तु इसका परिणाम यही है कि उक्त समय के दौरान तीन कतल हो गये थे और कातिलों का कोई सुराग नहीं मिला था। दो आयुक्त और जिलाधिकारी को कॉन्फ्रेंस के बाद, उसकी हाइनेसे में टिहरी-नरेश और दीवान की यात्रियों की संपदा और उनके जीवन की सुरक्षा संबंधी साधनों पर विचार करने की लिये मसूरी में मीटिंग हुयी, इस परिणाम स्वरूप रजिस्ट्रेशन संबंधी बनाई गई योजना सही रूप से निश्चित की गयी जो निर्दिष्ट है और एक आना प्रति कुली की लागत मुकर्रर की गयी है तो रजिस्ट्रेशन चार्ज के रूप में है और खर्च रूप में रजिस्ट्रोन स्टाफ को देना है। नियम रसीद के पीछे प्रकाशित है जो तीन रसीद की प्रतियों के रूप में है। टिहरी दरबार को विश्वास है कि रजिस्ट्रेशन के लिये जो फीस मुकर्रर की गयी है वह रजिस्ट्रेशन मोहर्रर को इससे अधिक फीस देनी असंभव है जैसे कि नियम में बतायी गयी है। पाम्पलेट में बयान है कि इससे अधिक फीस चार्ज की गयी है तो मुझे विश्वास है कि जांच में यह उक्त फीस अधिक पायी जाती है वह सही नहीं होगी। न ही यह कहने के लिये कोई विधि विधान है कि यदि श्री बदरीनाथ पुरी क्षेत्र टिहरी दरबार को हस्तांतरित किया जाता है तो टिहरी दरबार क्षेत्र – प्रशासन के लिये होने वाले खर्च को पूरा करने के लिये यात्रियों पर नया कर लगा सकता है।
13. टिहरी सीमा एवं राज्य के अन्य स्थानों से बदरीनाथ की दूरी के बारे में यह कथन भी सामान्यतः सही नहीं है। सर्वे मानचित्र इस विवाद को परे स्थित करता है। केदारनाथ देवालय, उप मंडल का चमोली मुख्यालय जिसमें बदरीनाथ पड़ता है, बदरीनाथ से टिहरी राज्य की सीमा समान दूरी में है। टिहरी पौड़ी की बजाये ज्यादा नजदीक है जो ब्रिटिश गढवाल का मुख्यालय है।

14. पाम्पलेट के लेखक का कहना है देवालय प्रवेश मूवमेंट से दूसरी दिक्कतें भी उलन्न है, मंदिर प्रत्येक मूवमेंट के सहयोगियों का हस्तारण के बारे में विरोध है, क्योंकि उन्हें भय है कि उन्हें ब्रिटिश भारत में सफल होने का ज्यादा मौका है बनिस्मत टिहरी दरबार में उन्हें भय है कि यदि टिहरी दरबार मंदिर प्रवेश के खिलाफ है, इससे उनका सत्याग्रह ही होगा, यदि बुलेट्स के साथ लांच किया जाता है। रवाई शूटिंग और अफवाह की हट से इस विचार शंका को मदद ही

मिलती है कि दीवान ने प्राधिकार को अपना मन प्रस्तुत किया है। टिहरी दरबार संबंधित प्रश्न की समस्या प्रश्न को सरकार के बजाय ठीक से हल कर सकता है। जो लोग मंदिर प्रवेश मूवमेंट का विरोध करते है, भयभीत है कि मालवीय जी को टिहरी दरबार ने आमंत्रित किया है और हस्तारण की मद्द के प्रति विश्वास है, टिहरी दरबार ने उन्हें विवास दिया है कि हरिजनों के अधिकार को मंदिर प्रवेश के लिये स्वीकार करेगा क्योंकि जनता इस पवित्र पुरी में मानव खून का बहती धारा को या मानव संघर्ष को पंसद नहीं करेगी।

लेखक का कहना है, यह टिहरी दरबार के भावों को नहीं जानता है कि उसका इस प्रश्न पर क्या विचार है। इसलिये उसे यह विचार नहीं रखना चाहिए जो बहुत बार माने गये है। जो उसने टिहरी दरबार के विरूद्ध किये है। उसके लिये क्या निश्चित न्याय हो सकता है। निश्चित बात को दृढ़ता से कहने को उसके लिये क्या न्याय हो सकता है। यदि टिहरी दरबार हरिजनों के मंदिर में प्रवेश होने के खिलाफ होता है तो इससे सत्याग्रह ही होगा, यदि बुलेट्स के साथ लांच किया जाता है। अग्रहिब अफवाह लेखक ने अपनी बात प्रमाण बतौर बताकर उक्त को प्रेषित की है जो आमुख पर कड़वाहट रूप से निरर्थक है, यह उदारता है कि लेखक इसे आगे रखे।
15. मि. गैरोला कहते हैं वे लोग जो राज्य की आंतरिक स्थिति को जानते है, कहा जा सकता है कि गंगोत्री, जमनोत्री, रघुनाथ जी के देवालयों का प्रबंधन जो टिहरी दरबार में पड़ता है, बुरी स्थिति में है परंतु बदरीनाथ की अपेक्षा ज्यादा खराब नहीं है। मुझे जताया गया है कि यह पहला अवसर है जब टिहरी दरबार अपने देश के क्षेत्र में पड़ने वाले इस देवालय के कुप्रबंधन का अपराधी है। टिहरी दरबार का दावा है कि राज्य में आने वाले देवालय के संबंध में वर्तमान दिवस पर कोई शिकायत नहीं सुनी गयी है। गंगोत्री देवालय जाने का मार्ग निःसंदेह बहुत कठिन है बदरीनाथ देवालय जाने कही अपेक्षा। परंतु यह केवल दो क्षेत्रों की टोपग्रफिकल परिस्थिति के कारण है। जिससे सड़क गुजरती है। न नियम अथॉरिटी पर किसी ड्यूटी की लापरवाही के कारण है। गंगोत्री मार्ग पर गंगा पर दो पुलों का हालिया निर्माण, 12 फुट की चौड़ाई के साथ, दो मोटर कारों मार्ग के लिये दिये जाने वाले अंतिम आशय के साथ, यदि भविष्य में किसी समय पर गंगोत्री का मोटर मार्ग निर्माण होता है तो निश्चित किया जाना चाहिए और मुनी की रेती से देवप्रयाग तक 50 मील के मोटर मार्ग जी ज्यादा खर्चीला प्रोजेक्ट का है, 10 मील तक का मार्ग पहले ही बना दिया गया है, तीर्थ यात्रियों की सुविधा के लिये टिहरी दरबार की चिंता या सावधानी का सबूत है। लेखक ने कुप्रबंधन के किसी भी विशिष्ट चार्ज के बारे में नहीं बताया है। यह कहना असम्भव है कि उसकी बुद्धि में क्या है, जब उसने कुप्रबंधन के बारे में ऐसा स्वीपिंग रिपोर्ट किया है। जो टिहरी दरबार द्वारा राज्य के देवालय के प्रति है। कोई भी प्रबंधन पूर्ण नहीं हो सकता है, मैं निश्चित तौर से महसूस करता हूँ कि टिहरी दरबार को शर्तों के साथ सुधार सुझाव किये जा सकते हैं, वे हाइनेस और सरकार से भावी निश्चय प्राप्त करेंगे।
16. हमें दूसरी ओर स्मरण करना है कि रावल मंदिर का वेतन भोगी नौकर है जो 200 रुपये मासिक वेतन के रूप में लेता है, क्योंकि 1899 नवम्बर की प्रबन्धन स्कीम में यह लिखित है, “रावल मंदिर का न्यासी है और इसकी संपत्ति एवं सकल प्रबंधन उसमें निहित है या उसे सौंपा है।” स्वीकृति के साथ देवालय के व्यवहृत क्रियाकलाप एवं इससे संबंधित देवालयों का वार्षिक लेखा जोखा, जिसका वर्णन उपर दिया है आदि अहसानों का उसने अपमान किया है। क्योंकि, सन् 1923 में देवालय कार्यों से सम्बन्धित प्रबंधन के विरुद्ध, जो रावल के हाथ में है शिकायत की गयी है, टिहरी दरबार ने उक्त कार्यों के प्रबंधन के लिये एक प्रबंधक भेजा लेकिन रावल ने उसके द्वारा किये जाने वाले अवरोध पर एतराज किया। उसे (मैनेजर) को लेखा जोखा देने की रावल की मनाई पर, जो प्रबंधन योजना के अंतर्गत ऐसा करने के लिये बंधित है। प्रबंधक (जिसे टिहरी दरबार ने लेखा जोखा सुपरवाईज करने भेजा है। उक्त को अपने ताले में बन्द रखे जो रावल का ताला ट्रेजरी द्वार पर लगा है। उसके साथ ताला जड़कर निर्देशित आदेश तक जो परिस्थिति के अंतर्गत करने को प्राप्त हुए है। रावल ने प्रबंधक के खिलाफ स्थानीय आपराधिक कोर्ट में आपराधिक शिकायत का बाद दायर किया जो प्रबन्धक ने सीमा से बाहर रहकर किया है और प्रबंधक पर अभियोग चलाया गया। हालांकि अन्त में मामला वापस ले लिया गया। तदनंतर टिहरी दरबार ने उक्त घटना के प्रति सरकार को बताया की देवालय सम्बन्धित राजस्व प्रबंधन एवं धार्मिक नामले पर इसका ले जाना इसके लिये असंभव या अनुचित था जब जक बदरीनाथ का सिविल एंव आपराधिक क्षेत्र टिहरी राज्य को हस्तांरित था तब भी तब तक ऐसा किया गया। परेशानी, जो ऊपर मामले में बतायी है। अनुभव की गयी है और यह फिर हो सकती है।
17. सर्वरूप से यह मान लिया है कि देवालय कार्यों का प्रबंधन रावल द्वारा भारी के एतराजों के साथ उठाया है, पिछले दस वर्षों के दौरान इसके सुधार के बहुत से प्रस्ताव किये गये है। देवालय की पूजा और फंड के प्रबंधन से जुड़े मामले में एक नोट, जो 28 जनवरी, 1921 का है, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा का लिखा है।

1. टिहरी दरबार देवालय नियुक्ति (व्यक्ति की) का अध्यक्ष है। वह किसी भी समय मामले में दखल कर सकता है। देवालय फंड के उचित प्रबंधन और पूजा-मामले में यह देवालय के निश्चित सकल इतिहास से स्पष्ट है, प्रबंधन की हालिया स्कीम एवं 1915 की एजेंसी की अपील संख्या 8 में आयुक्त द्वारा अनुवाद है, “यदि यह अनुवाद किसी और के लिये है, तो यह टिहरी दरवार के लिये है कि वह रावल के आदेश न्याय निश्चित करे। आयुक्त ने इस तरह की शक्ति टिहरी दरबार को सौंपी है।”

2. वर्तमान में देवालय फंड का प्रबंधन ठीक से नहीं है। और टिहरी दरबार के लिये है कि वह संबंधित मामले में हस्तक्षेप की शक्ति रखता है अथवा मंदिर फंड के उचित प्रबंधन के लिये उचित कदम उठा सकता है, यह आयुक्त के उक्त मामले में स्पष्ट है जो उपर्युक्त को भेजा है। इस मामले में आयुक्त ने नजर रखने या अवलोकन (आब्बर) करने की प्रार्थना की है कि मंदिर फंड के प्रबंधन के मामले में आगे कोई विलंब न हो। उसने उक्त मामले में माना जो पत्र व्यवहार और बाहरी शिकायते इस मामले में मिली है, रावल इन धर्म निरपेक्ष मामले में ज्यादा मदद चाहता है, वर्तमान में वह इस सहायता की आज्ञा चाहता है कि उसे इस सहायता दी आज्ञा दी जाये। पंडित तारादत्त गैरोला को टिहरी दरबार का कानूनी सलाहकार नियुक्त किया गया था और उसने स्वयं टिहरी दरबार को एक रिपोर्ट दी थी जिसमें लिखा था कि टिहरी दरवार इस संबंध में सरकार की मदद के साथ जरूरी कदम उठाये कार्य की शंका की स्थिति के सुधार के लिये जो नोटिस में आयी है। सन 1925 में उत्तर प्रदेश लखनऊ धर्मरक्षा सभा इस निष्कर्ष पर पहुंची कि हालिया परेशानी का बेहतर हल यही है जा टिहरी दरबार को पुरी बदरीनाथ के विशिष्ट न्याय के हस्तांतरण में दर्शाया है जैसा कि टिहरी दरबार ने 19 अप्रैल, 1933 के पत्र में कहा है जो 29 अप्रैल, 1933 के हिन्दुस्तान टाइम्स में छुपा है। सनातन धर्म का स्पष्ट एवं प्रबल भाव यही है कि जनता का विचार एक महत्त्वपूर्ण फेक्टर (लक्षण) है कि टिहरी दरबार संयुक्त प्रांतीय सरकार को प्रतिवेदन दें कि वह पुरी बदरीनाथ के हस्तांतरण को क्षेत्राधिकार टिहरी दरबार को दे।
18. फिर 9 नवम्बर, 1927 के प्रेषित पत्र में ऑनरेबल राजा रामपाल जो उत्तर प्रदेश धर्म रक्षा सभा के अध्यक्ष और टिहरी गढ़वाल राज्य के सम्मानित व्यक्ति है, के सम्मान में धर्मरक्षा सभा के विचारों को बताया- गृह सदस्यों ने सुझाव किया जो मंदिर का रखरखाव ठीक से हो या धर्म रक्षा सभा के द्वारा यह हमारे लिये स्वीकार होगा, ऐसा मैं आपकी उच्चस्थता के लिये समझता हूँ। मुझे आज्ञा दी जाय कि दरबार द्वारा किये गये प्रबंधन के साथ सभा द्वारा किया जाने वाले प्रबंधन का पर्याय है, यदि ऐसा करने के लिये आहूत किया जाता है तो सभा राजा के नाम पर आपकी उच्चस्थता के ऐवज में प्रबंध करेगी जिस पर हमेशा उक्त मार्ग दर्शन और मदद के लिये आश्रित रहती है।
इसी तरह यदि ब्रिटिश सरकार टिहरी गढ़वाल की देशीय जरूरत को सौंपती है, मैं ऐसा करना उचित समझता हूँ, टिहरी दरबार द्वारा देवालय प्रबंधन किया जाना पर्याप्त हो सकता है। मुझे पंडित बृजनाथ सरगा ने विश्वास दिलाया है जिसने सकल कानूनों और जनता एन्डोमेंट का अध्ययन किया है कि सन् 1924 संवत् का कानून (टिहरी एक्ट 1) बेहतर है। यदि देवालय ब्रिटिश भारत में आता है, तो टिहरी दरबार को नियंत्रण के अंतर्गत देवालय स्थित है एवं पर्याप्त विस्तृत क्षेत्र है यह टिहरी दरबार को सौंपा जाये। 19. सन् 1928 में हिंदू चेरीटेबल एंडोमेंट कमेटी टिहरी गढ़वाल विजिट करने आयी थी। उस समय 164 डिमरी संपत्ति मालिक एवं अन्य लोग जिनकी
पंडित धनश्याम डिमरी ने अध्यक्षता की, टिहरी नरेश की हाइनेस को एक प्रत्यावेदन (प्रतिरूप) प्रस्तुत किया, जिसमें उन्होंने कहा कि इस कमेटी के संबंध में आपकी उच्चस्थता से प्रार्थना है कि आपकी हाइनेस (महाराजधिराज ) इस देवालय की आज्ञा नहीं देगी जो सनातन धर्म-प्रथा के अनुसार सुरक्षित है या रखी गयी है, कमेटी के हाथों में दे। परंतु बेहतर संभावित तरीके से मंदिर को सुरक्षित रखे एवं अधिकार रखने वालों का अधिकार निश्चित करे, इसलिये इस तरह भविष्य में उनके बीच किसी तरह का कोई फसाद नहीं होगा और देवालय प्रबंधन के नियम निर्माण के बाद जिम्मेदारी नही जाय एवं मंदिर की सुरक्षा तीर्थ यात्रियों के स्थल आपके हाथ से पास आऊट हो।

आपकी उच्चस्थता इस देवालय को बचाये रखेगी क्योंकि अकेला नाम। हिंदू एंडोमेंट कमेंटी हमारे दिमाग में विश्वास प्रेरित नहीं कर सकती कि यह कमेटी नियमों के साथ सनातन धर्म को संभाले रखेगी और हम आनंद का अनुभव करेंगे और उसी तरीके से देवालय को संरक्षित रखेंगे। जैसे कि टिहरी के महाराजा ने प्राचीन समय में किया है।

20. टिहरी दरबार ने ब्रिटिश सरकार को भेजे आवेदन पत्र में कहा है कि इस तरह यह सनातन धर्म जन संस्था एवं मानव के भावों से मजबूती से मददगार होगा, बदरीनाथ धाम पर जो उक्त लागू है के क्षेत्राधिकार के हस्तांतरण के लिये, टिहरी दरबार ने यह महसूस किया है कि देवालय का धार्मिक, आर्थिक प्रबंध करना असंभव है जब तक कि बदरीनाथ के सिविल, आपराधिक क्षेत्राधिकार हस्तांतरित होता है। उत्तर प्रदेश सरकार ने टिहरी दरबार द्वारा इस ग्रहण करने की स्थिति को न्याय संगत माना है और टिहरी दरबार को पुरी बदरीनाथ के क्षेत्राधिकार को पुनर्हस्तांरित करने की अपनी इच्छा जतायी है। परंतु उन्होंने अंतिम निर्णय आने से पूर्व इस मामले में हिंदूजन- विचार को निश्चित करने की इच्छा की है। उक्त आये हुए डेपुटेशन डिमरी के प्रतिनिधि को उत्तर देते हुए 6 सितम्बर, 1982 पौड़ी (गढ़वाल) में जिसने उस पर प्रतीक्षा की थी उसकी एक्सीलेंसी मॉलकम हेली ने कहा, उत्तर प्रदेश सरकार प्रसन्न होगी यदि बदरीनाथ देवालय का सकल प्रबंधन टिहरी दरबार को दिया जाता है सरकार धर्म संबंधी मामले में कोई दखल नहीं चाहती है। हालांकि सरकार की इच्छा है कि जनता का भावना, जिससे वह प्रभावित है इस मामले में संतुष्ट है। क्योंकि टिहरी शासक क्षेत्राधिकार से कम किसी अन्य बात को हस्तांतरित नहीं चाहता है, इस संबंध में प्रश्न उठता है कि वे लोग, जो भले ही बदरीनाथ में रह रहे हैं, टिहरी शासक के सिविल एवं आपराधिक क्षेत्राधिकार में आने को राजी होंगे। अन्य संबोधन को उत्तर देते हुए उसकी उच्च पदस्थ श्रेष्ठता ने कहा (हिज एक्सीलेसी सैड)- जहां तक विशेषतः बदरीनाथ के संबंध में बात है, हमारी परेशानी इससे अल्पतर है। परंतु संदेह है कि यादे स्थानीय कमेटी उक्त स्थल पर वैयक्तिक प्राप्ति का समझौता करती है. मंदिर के प्राधिकारियों के टकराव दावों को नियंत्रित कर सकती है जिस पर डिमरी एवं पंडे ज्यादा समर्थ हैं वनस्पति इसके जो प्रबंधन स्कीम द्वारा दिये गये सिस्टम के अन्तर्गत रक्षित है और 1999 में उच्च न्यायालय द्वारा मंजूर है। दूसरी ओर यह स्पष्ट जान पड़ता है कि भारत समझौता पत्र समिति कार्य करने में दूरस्थ एवं क्षेत्र से अलग अयोग्य प्रतीत होगी। इसके अतिरिक्त टिहरी गढ़वाल शासक की इस मामले में रूचि है जिसे किसी भी रूप में नकारना… संभव नहीं है। क्योंकि सरकार की नियत उसकी उच्चस्थता द्वारा प्रकट भावों से स्पष्ट है, मात्र सनातनधर्म संगठन ने मजबूती से हस्तांतरण प्रस्ताव का समर्थन किया है जबकि इसके विरोध में कम ही लोग है।

21. इससे सकल दूर भ्रम हटाने के बाद, जैसा कि 9 अप्रैल, 1933 के पत्र में सचिव एवं धर्म रक्षा सभा को संबोधित किया है, टिहरी दरबार के हस्तांतरण प्रस्ताव के संबंध में अपनी इच्छा एवं स्थिति समय पर उद्घोषित की थी, उन्होंने कहा-
“यह सर्वरूप से स्वीकार है कि देवालय का प्रबंधन संतुष्टि से बहुत परे है (यानि कि उक्त का प्रबंधन संतोष जनक नहीं है) और सनातन धर्म जन एवं टिहरी दरबार को बीते समय के सुधार प्रस्ताव के लिये विचार करने की जरूरत है। आपको स्मरण होगा कि सन् 1925 में आपकी सभा इस निक पर आयी थी कि इसकी वर्तमान कठिनाईयों का बेहतर हल यही है जैसा कि टिहरी दरबार को पुरी बदरीनाथ के सत्ता क्षेत्राधिकार हस्तांरण पत्र में वर्णित है। इससे स्पष्ट है। सनातन धर्मजन का प्रबल भाव भी यही है कि सनातन धर्म जन का विचार एक महत्वपूर्ण लक्षण था जो टिहरी दरबार तक ले जाया गया कि वह संघीय प्रांत सरकार को प्रतिवेदन दे के पुरी बदरीनाथ का क्षेत्राधिकार टिहरी दरबार को सौंप उस समय से लेकर और विशेषकर बीते कुछ महीनों के दौरान सनातन धर्म संगठन की बड़ी संख्या में उक्त प्रस्ताव को सहयोग दिया था जबकि बहुत कम लोग उक्त क्षेत्राधिकार हस्तांतरण के विरोध में थे। इसे दृढ़ता से स्वीकार किया जा सकता है कि सनातन धर्म संगठन का विचार प्रबलता से प्रस्ताव के पक्ष में है। टिहरी दरबार को इच्छा है कि जहाँ तक राजा की शक्ति में आता है, वे उक्त प्रस्ताव के संबंध में जो शंकाये हैं उन हर शंका को दूर किया जाय जिसे सनातन धर्म का अनुयायी उक्त से संबंधित मसले को पोषित करता है। टिहरी दरबार के विचार में इस तथ्य के साथ इस कार्यवाही को जताने की इच्छा है। इसका इरादा है कि वह प्रस्ताव को हस्तांतरण के लिये विचारार्थ के लिए ले जो सरकार द्वारा स्वीकार किया जाना है।

“आप संभावित तौर से सावधान है कि टिहरी राज्य में आने वाले सभी देवालय एवं तीर्थ स्थल सुधार अधिनियम के अंतर्गत प्रबंधित हैं जो नियम कानून द्वारा पुराने रीति रिवाजों पर आधारित है, जिन्हें हर तीर्थ स्थल से संबंधित कोर्ट में मिला दिया गया है। टिहरी दरबार स्वीकार करता है कि बदरीनाथ देवालय एक तीर्थस्थल है जिसमें सकल विश्व सनातन धर्म की रूचि है। वास्तव में यह प्रस्तावित किया जाना चाहिए कि उक्त हतारित हो टिहरी दरबार विशेष अधिनियम पास करना चाहता है, वह भी उसी संबंध में जो बदरीनाथ देवालय और इससे संलग्न भूमि के लिये है। ऐसा करते

समय टिहरी दरबार सनातन धर्म संघ एवं अन्य सनातन धर्म के नामित प्रतिनिधियों के विचार लेने को आमंत्रित करेगा और उनके दिये विचारों को अंतिम रूप देगा उक्त से संबंधित कानून बनाने के लिये। टिहरी दरबार सनातन धर्म जन समूह के प्रतिनिधियों के निवासियों को छोड़ना चाहता है। उन सभी को जो उन समूहों एवं सनातन धर्म के नेताओं के हाथ में है और ब्रिटिश भारत में हैं।”

अन्य भय यह भी प्रकट किया गया है कि बदरीनाथ पुरी में संपत्ति स्वामी के अधिकार प्रस्तावित हस्तांतरण से प्रभावित होंगे। यह भय बुनियाद के बिना है। टिहरी कस्बे एवं देवप्रयाग के संपत्ति स्वामी, जो टिहरी राज्य में आते है, उस स्वामित्व अधिकार एवं विशेषाधिकार का भोग चैन से होंगे जैसे कि संपत्ति स्वामी बदरीनाथपुरी में चैन से आनंद सुख मानते है। इसके अतिरिक्त टिहरी दरवार ने पत्र प्रेषित किया है कि बदरीनाथ पुरी में संपत्ति स्वामी के अधिकार अप्रभावित होंगे यदि क्षेत्राधिकार का प्रस्तावित हस्तांतरण होता है।”
“मैने अपने विचार ऊपर बताये है जो टिहरी दरबार के पास वर्तमान में कार्यवाही करने को है प्रस्तावित हस्तांतरण होने की स्थिति में। परंतु किसी अन्य प्रस्ताव को निश्चित करने या मानने में खुशी होगी जिसका सुझाव हो सकता है और सनातन जनों को आमंत्रित करे इस देवालय के महत्त्वपूर्ण प्रबंधन के होने में सनातनी जनों के सहयोग को आमन्त्रित करें। इस देवालय के महत्त्वपूर्ण प्रबंधन होने में जितना नींव की रूचि रखने में है वह संभव हो सकता है की स्थिति में संभव हो सकता है।” पुरी क्षेत्र के हर निवासियों एवं सनातन धर्म के अनुयाईयों को इससे पूरा संतो होना चाहिए।
22. यह सब तरफ से स्वीकार है कि वर्तमान टिहरी राज्य नरेश पूर्ण रूप से सनातनी है। परन्तु यह पूछा जाता है कि इस की क्या गांरटी है कि उसकी मर्यादा और सत्यधर्मता रहेगी? इसके लिये मेरा उत्तर है कि इस बात की प्रकृति में ज्यादा गारंटी है कि धार्मिक प्रचलन एवं धर्म सत्यता व्यवहृत रहती हैं जो मानी गयी है तेरहवीं शताब्दी तक निरीक्षण की जाने को निरंतर रहेगी वनस्पति इसके कि वे कमेटी के प्रशासन के अंतर्गत अनुश्रवण किया जायेगे जो विभिन्न विश्वासों व निश्चयों एवं विधान सभा के सदस्यों द्वारा समय समय पर नियुक्त किये जाते हैं हिमालय के दूरस्थ बर्फीले क्षेत्र की विश्वसनीयता में कार्य करने हेतु। यह गारंटी और मजबूत होती जान पड़ती है जब स्मरण किया जाता है। कि इस प्रश्न के मामले में यही है कि टिहरी राज्य सदियों से विपुल संपत्ति दान करता रहा है एवं अन्य अंशदान भी करता रहा है जब भी देवालय में पूजा आदि कराने की जरूरत हुई है। यह भी स्मरण किया जाय कि गंगोत्री-यमनोत्री के तीर्थ स्थलों का चार्ज टिहरी ‘दरबार के पास है जो कि टिहरी राज्य में हैं और जो पर्वतीय अंचल के पवित्र क्षेत्र में संबंद्ध है। स्पष्टता यह इन तीर्थ स्थलों प्रचलन के रखने के प्रति ज्यादा प्रवृत्त होगा यदि वे सभी प्रबंधन के अंतर्गत है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि उन तीर्थ स्थलों की भांति बदरीनाथ देवालय टिहरी दरबार में शाश्वत बना रहेगा, गढ़वाल पर गोरखाओं द्वारा किये गये आक्रमण से उक्त क्षेत्र प्रभावित नहीं है। गढ़वाल के उस समय के शासक के लिये जरूरी है। कि गढवाल- नरेश अपनी खोई राज्य सत्ता पाने के अंग्रेजी सरकार से मद ले और उसके परिणाम में वह सरकार को पुरी क्षेत्र को सौपें प्रत्येक हिन्दू विश्वास पूर्ति के लिये धन्यवाद का अनुभव करें जो टिहरी शासक को दिया था। सरकार प्राचीन हिन्दु स्टेट को वापस देने की इच्छुक है। टेरीट्री के सौपे गये भाग को जिसमें अधिकांश बदरीनाथ का पवित्र तीर्थ है। क्योंकि टिहरी के वर्तमान शासक को अपने विश्वास एवं पूजा उपायों से सत्य धर्म होना एवं बदरीनाथ का भक्त होना प्रसन्नता से स्वीकार है हमें उसके प्रति विश्वास करना चाहिए और अधिनियम को पास करके मंदिर में शाश्वत प्रचलित पूजा उपायों को विश्वास करने के लिये मदद करनी चाहिए, “इसी प्रकार उसने “तीर्थ सुधार अधिनियम के अंतर्गत उसे पहले ही पास कर दिया है, बदरीनाथ देवालय के उचित प्रबंधन के लिये, वह भी हिन्दू राज्य के सनातनी प्रतिनिधियों के अधिकार पत्र के विचार निश्चित करने एवं आमंत्रित करने के बाद एवं सनातन धर्म के इक्नोलोजिस्ट नेताओं के पश्चात जिसे राजा की उच्चस्थता ने उक्त के संबंध में कार्य सहमति करने ने के लिये अपनी इच्छा जाहिर कर दी है।

22. कुछ समय बीता हिन्दू, मुसलमानों के सदस्य, जो उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य हैं, की संख्या के हस्ताक्षरों का एक विवरण इलाहाबाद से प्रकाशित लीडर पत्र में छपा था, जिसमें कहा गया था कि उनके विचार में यह हिंदू कम्यूनिटी की रूचि में नहीं है कि बदरीनाथ मंदिर राज्य सरकार को सौंप दिया जाये। यह विचार तथ्यों पर आधारित था कि यदि बदरीनाथ टेरीट्री का हिस्सा रहता है तो ब्रिटिश भारत के लोग मंदिर प्रबंधन में जरूरी सुधार लाने के लिये अवसर प्राप्त करेंगे, पीड़ा सुधार कर उपाय खोजेंगे जिसे उनको मना

कर दिया जायेगा यदि पुरी क्षेत्र का कब्जा एवं नियंत्रण राज्य को सौंप दिया जाये। मेरे विचार में सत्य विश्वास एवं न्याय की मांग के स्थान पर पुरी क्षेत्र का कब्जा एवं नियंत्रण ब्रिटिश सरकार द्वारा उसे दिये गये विश्वास की पूर्ति में टिहरी राज्य को सौंप दिया जाय, जैसा अनुभव से दृष्ट हुआ है कि वह इस हस्तांतरण के बिना दिये गये आश्वासन को प्रभावित नहीं कर सकता है। दूसरे मुझे मालूम होता है कि यथार्थ के द्वारा ऊपर दर्शाया गया जो एतराज मुझे मिला है कि टिहरी राज्य के राजा साहेब ही उच्च स्वतार बदरीनाथ देवालय के आर्थिक, धार्मिक कार्यों के प्रशासनार्थ विशेष अधिनियम पास करने को तैयार हो गयी है धार्मिक आचार्यों के परामर्श को निश्चित और आमंत्रित करने के उपरान्त, भारत राज्य के प्रतिनिधि शासक एवं सनातन धर्म संगठन एवं सनातन धर्म के प्रोमीनॅट प्रतिनिधि दोनों जो ब्रिटिश इंडिया एवं इंडियन इंडिया में आते है। यह मानना भी जरूरी है कि शासक सरकार द्वारा बनाये गये देवालय के प्रशासनार्थ स्कीम जो बदरीनाथ की सेवा करने के लिये भक्त जाना जाता है और जिसके पूर्वज उस तीर्थ स्थल में सालों वर्ष तक पूजा करने के बावजूद ज्यादा पूजक एवं भक्त रहे हैं, धर्म के अनुयामियों के लिये ज्यादा स्वीकार होगा। वह भी सनातन धर्म के प्रतिनिधियों को परामर्श के पश्चात बावजूद इसके संयुक्त प्रांत की विधान परिषद के नियंत्रण के अंतर्गत देवालय संबंधी कार्य रखे जाये जो उसी रूप में निर्मित है और उसी रूप में होगे सदस्यों की अधिक संख्या को होने से, जो देवालय के धार्मिक प्रशासन में कोई रूचि नहीं रखते है। केवल वे लोग, जो परिषद के हिंदू सदस्य है शामिल होंगे जो सनातन धर्म के अनुवाई नहीं है और ईश्वर पूजा में विश्वास नहीं रखते है वे रूचि नहीं रखते हैं उसमें शामिल नहीं होंगे। इसलिये विधान परिषद के उन सभी सदस्यों से अपील करता हूँ कि जिनका हस्ताक्षरित मेनीफेस्टो 16 जुलाई, 1993 को लीडर पत्र में छपा है इस मामले पर पुनर्विचार करे जो विवरण बीती 31 जुलाई, 1935 की प्रकाश में लाने को लीडर पत्र में मेरे द्वारा प्रकाशित हुआ है। मेरी उनसे प्रार्थना है कि दे दिमाग में रखे कि यदि पुरी बदरीनाथ और मंदिर संबंधित कार्यों का प्रशासन ब्रिटिश भारत का हिस्सा होता है तो यह ब्रिटिश भारत में किसी भी लेजिस्लेचर के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत होगा, अधिक कारणों के साथ दर्ज होगी जैसा कि भारतीय राज्यों को मिलाकर भारत के सभी हिस्सों के हिंदुओं से संबंधित बदरीनाथ देवालय और इसके कार्य केंद्र सरकार के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत रखे जाये न कि संघीय प्रांतों की सरकार के अंतर्गत रखे जाये।

23.
परन्तु स्थानिय विधान परिषद के सदस्यों एवं अपने धर्म अनुयाईयों साथियों से प्रार्थना करता हूँ, जो यह जानते है कि कन्वेसिंग कैसा है और दलीय राजनीति लेजिसलेचर में जनता के प्रश्न के निश्चयन को अप्रायः प्रभावित नहीं करती है वह भी पावन बदरीनाथ तीर्थ के प्रबंधन को रखने हेतु एवं (सामान्यतः मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि) भिन्न विश्वास एवं नामों से संबंध रखने वाले सदस्यों के निर्मित लेजिस्लेचर के क्षेत्राधिकार के बाहर है यदि हमारी धार्मिक संख्या के कार्य विभिन्न व्यक्ति के निर्मित लेजिस्लेचर नियंत्रण के अधीन लाया जाता है, तो यह एक स्पष्ट बुराई हो सकती है कि ऐसे संस्थागत उद्देश्य के लिये फंड डाइवर्ट करने का प्रयास किया जाय ताकि उनके लिए जिसके लिये वे उद्देश्य रखते हैं। यह एक वास्तविक खतरा है। जिससे स्पष्ट निर्मित है और हमने इस मामले में देखा है। ब्रिटिश गढ़वाल के जिला बोर्ड ने उसकी एक्सीलेंसी दि गवर्नर के उनके संबोधन में विरोध किया है, प्रस्ताव जो टिहरी दरबार को मंदिर क्षेत्र हस्तांतरित करने के लिए या उनके विचार में देवालय फंड जिला बोर्ड के उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाना चाहिए न कि धार्मिक उद्देयों के लिए रखा है, इस प्रस्ताव के संदर्भ के साथ उसकी एक्सीलेन्सी में प्रतिनिधियों को बताया में आपके सुझाव के भाव को प्रसाशित नहीं करता कि बदरीनाथ केदारनाथ के शेष फंड (सरप्लस फंड) को जिला बोर्ड एवं सड़क आदि के कार्यों में खर्च किया जाए। हमने सरप्लस राजस्व के स्थिति के बारे में ऐसा नहीं सुना है। इस केस में इसकी प्रतिकूलता वास्तविक यही है न ही विश्वास करता हूँ इस सूबे में जनता के विचार धार्मिक फंड के प्रतिभूत किसी ऋणी व्यक्ति की संपत्ति पर अधिकार रखने वाला व्यक्ति पर अधिकार जमाने के लिए समर्थन करेंगे चाहे स्थानीय अधिकारी द्वारा इसके उपयोग करने हेतु हिन्दु हो या मुसलमान यह अच्छा है कि उसकी एक्सीलेन्सी के सुझाव की अस्वीकृति के लिए स्पष्ट प्रकट है परन्तु यह मानना न्यायोचित है कि यदि देवालय संबंधी का लेजिस्लेचर क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत लाये जाते हैं जो इससे परेशानी खड़ी होगी इसे बचाया जाना चाहिए।

सभी कारण ऊपर बता दिया गया है मैं महसूस करता हूँ कि मेरे कथन में प्रबंधन हेतु जो सुझाव दिये गए है जिसमें देवालय प्रबंधन के लिए विशिष्ट अधिनियम की बात कही गई है। जिसे टिहरी नरेश पास करने के लिए सहमत हो गया है। उस अधिनियम को बना दिया जायेगा। लेकिन भारत जिन एवं राजकुमार आदि दोनों के बीच में सनातन धर्म के अनुयायियों के विचार आमंत्रण एवं निश्चय करने पर उक्त अधिनियम बना दिया जाऐगा। जिसके अधीन (एक्जीक्यूटिव) नियंत्रण एवं विपुल संपत्ति आय रक्षित होगी। बदरीनाथ देवालय आदि अन्य कार्य हिन्दु राज्य के शासक के हाथों में होंगे। जिसकी संबंधित मामले में रूचि है जैसा कि सर मेल्कम हैली ने ठीक से निरीक्षण (आब्जर्व) किया है यह किसी भी उपाय से नकारना संभव नहीं है। राज्य जो कुछ शताब्दियों से सेवी भक्त व संरक्षक है जिसका सहयोग एवं समर्थन आवश्यक है बदरीनाथ देवालय संबंधी उत्सव व प्रचलित पूजा आदि के रखरखाव के लिए उक्त से संबंधित प्रबंधन देवालय के भावी प्रबंधन के लिए संतोषजनक होगा। दोनों का एक उक्त के लिये यह कार्य निष्पक्ष एवं धार्मिकता से मनोरथी होना है। मैं विनीत भाव से आशा करता हूँ कि उन सभी के निश्चय के पश्चात जो विषय से संबंधित कहा गया है, सनातन धर्म का हर प्रेमी या भक्त प्रस्तावित हस्तांतरण के सपोर्ट को प्राप्त करने के लिये। हृदय से सहमत होगा क्योंकि उक्त विषय वस्तु के तथ्य कथन सही प्रस्तुत

1. बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय
बनारस,
मदन मोहन मालवीय 15 जनवरी, 1994 बदरीनाथ मन्दिर का हस्तान्तरण क्षेत्राधिकार का प्रश्न के प्रभाव में इलाहाबाद से प्रकाशित लीडर समाचार पत्र में प्रकाशित लेख में उल्लेख किया है कि न्याय और सत्य के पक्ष या रूचि में भविष्य में प्रबंधन सन्तुष्टि के लिए पुरी बदरीनाथ मन्दिर क्षेत्र का क्षेत्राधिकार टिहरी राज्य को पुनः हस्तांतरित किया जाये।”

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *