एक प्रसंग अवश्य पढ़ें : “मैं न होता, तो क्या होता?”

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

बहुत बार हमारे मन में विचार आ जाता है कि अगर “मैं ना होता तो क्या होता” लेकिन हम जो कुछ भी करते हैं ईश्वर की इच्छा से करते हैं। हम तो किसी कार्य को करने के लिए एक निमित्त मात्र है वरना भगवान की मर्जी के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता।

लंका दहन करने के पश्चात वापस आने पर हनुमान जी प्रभु श्री राम से कहते हैं कि प्रभु जब मैं अशोक वाटिका में पहुँचा तो वहाँ रावण आकर सीता जी को धमकाने लगा. सीता माता तिनके की ओट कर कहती है कि,”दुष्ट तू धोखे से मुझे हर लाया है, तुझे लाज नहीं आती”।

सीता माता के कठोर वचन सुनकर रावण तलवार लेकर उन्हें मारने दौड़ा कि या तो मेरी बात मान लो नहीं मै तुम्हें काट दूंगा। प्रभु मेरा मन हुआ कि इसकी तलवार छीन कर इसका सिर काट दूं। लेकिन उसी क्षण रावण की पत्नी मंदोदरी ने नीति कहकर उसे सीता जी पर प्रहार करने के रोका लिया।

प्रभु उसी क्षण आपने मुझे आभास करवाया कि यदि मैं कूद जाता तो मुझे भ्रम हो जाता कि अगर “मैं ना होता तो क्या होता? सीता जी को कौन बचाता? प्रभु आपकी लीला आप ही जाने आपने रावण की पत्नी को ही सीता जी को बचाने का कार्य सौंप दिया। प्रभु उस समय मेरा भ्रम दूर हो गया और मैं समझ गया कि आप जिस से जो कार्य लेना चाहते हैं उसी से लेते हैं किसी अन्य का कोई महत्व नहीं है।

हनुमान जी कहने लगे कि,”प्रभु रावण के जाने के पश्चात जब राक्षसियां सीता जी को भय दिखा रही थी, तब त्रिजटा नाम की राक्षसी जिसका प्रभु श्री राम के चरणों में अनुराग था, वह कहने लगी कि,” मैंने स्वप्न में देखा है कि एक वानर ने लंका जलाई है”।

प्रभु उसकी बात सुनकर मैं विचार करने लगा कि प्रभु ने तो लंका जलाने को कहा ही नहीं था। लेकिन त्रिजटा कह रही है कि वानर ने लंका जलाई. लेकिन प्रभु उसका भी अनुभव मुझे बाद में हो गया।

जब मेघनाद मुझे ब्रह्मास्त्र लगते ही नागपाश में बांधकर रावण के समक्ष ले गया तो रावण कहने लगा कि,”वानर तू कौन है “? मैंने कहा कि,” मैं श्री राम का का दूत हूँ और श्रीराम का कार्य करने आया हूँ। रावण तू अभिमान छोड़ कर सीता जी को श्री राम को देकर श्री राम की शरण में जाओ”।

इतना सुनते ही रावण के आदेश पर राक्षस मुझे मारने दौड़े। उसी समय रावण का भाई विभीषण आ गया और कहने लगा कि, “नीति के अनुसार वानर को मारना नही चाहिए”।

प्रभु उस समय भी मेरा मोह जाता रहा प्रभु मेरी रक्षा के लिए आपने रावण के भाई को जरिया बनाया। प्रभु मेरे आश्चर्य की पराकाष्ठा तब हुई जब त्रिजटा के वचन सत्य होते दिखे कि स्वप्न में वानर ने लंका जलाई है।

जब विभीषण ने कहा कि,”नीति अनुसार दूत को मारना नहीं चाहिए”। रावण कहने लगा कि “बंदर की ममता पूंछ में होती है इसकी पूंछ पर कपड़ा, तेल में डूबोकर बांध कर उसमें आग लगा दो”।

प्रभु लंका जलाने के लिए तेल, कपड़े और आग का प्रबंध स्वयं रावण ने ही कर दिया। प्रभु आप तो रावण जैसे दुष्ट राक्षस से भी अपना कार्य करवा लेते हो तो मुझ वानर ने कोई कार्य कर दिया तो कौन सी बड़ी बात है।

इस संसार में जो कुछ भी होता है ईश्वर की प्रेरणा से होता है उसकी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। हम सब के मन में बहुत बार अहंकार घर कर लेता है कि शायद मैं ना होता है क्या होता? लेकिन हनुमान जी के जीवन से निरअहंकारी रहने वाली की प्रेरणा ले सकते हैं।

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