हिमशिखर धर्म डेस्क
धर्म के तीन हेतु कहे गए हैं-यज्ञ, दान और तप। मूल में तीनों का अर्थ त्याग है। त्याग की भावना अत्यंत पवित्र है। त्याग करने वाले पुरुषों ने ही संसार को प्रकाशमान किया है। जिसने भी जीवन में त्यागने की भावना को अंगीकार किया, उसने ही उच्च से उच्च मानदंड स्थापित किए हैं। सच्चा सुख व शांति त्यागने में है, न कि किसी तरह कुछ हासिल करने में। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि त्याग से तत्काल शांति की प्राप्ति होती है और जहां शांति होती है, वहीं सच्चा सुख होता है। मनुष्य अपने जीवन में सारा श्रम भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही लगा देता है। वह अपने सीमित जीवन में सभी कुछ पा लेना चाहता है। इसी में सारा जीवन खप जाता है। वह जितना भौतिक लाभ प्राप्त करता जाता है, उसकी सांसारिक तृष्णा उतनी ही बलवती होती जाती है। उसे शांति से बैठने नहीं देती। उसकी बेचैनी को बढ़ाती रहती है। मनुष्य जीवन की कुछ मूलभूत आवश्यकताएं होती हैं, उनकी पूर्ति तो आवश्यक है। उनके बिना तो जीवन की निरंतरता को बनाए रखना असंभव है। इस निरंतरता को बनाए रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति तो ईश्वर करता ही रहता है। उन मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाने के पश्चात फिर मनुष्य को क्या चाहिए? बस यहां पर रुककर विचारने की आवश्यकता होती है कि अब हमें किस मार्ग की ओर बढ़ना है।
ईश्वर की अनुभूति करने और समाज में उच्च मानदंड स्थापित करने के लिए त्याग की भावना को अंगीकार कर, उस पथ पर बढ़ने की आवश्यकता होती है। उस मार्ग में व्यक्तिगत व शारीरिक सुखों का त्याग करना होगा। उन सभी आसक्तिओं को छोड़ना होगा, जो मानव जीवन को संकीर्णता की ओर ले जाने वाली होती है। तब यही त्याग वृत्ति अंत:करण को पवित्र कर भीतर के तेज को देदीप्यमान करती है। भारत में त्याग की परंपरा पुरातनकाल से चली आ रही है। आसक्ति से विरत हो जाने वालों की यहां पूजा की जाती है। भगवान राम द्वारा अयोध्या के राज्य को एक क्षण में त्याग देने जैसे स्थापित किए गए आदर्श को संसार पूजता है। राज्य का त्याग कर वन में जाने से उन्होंने समाज में उच्चतम मानदंड स्थापित किया। साथ ही लोगों को धर्म, अध्यात्म, ज्ञान व भक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा भी प्रदान की। त्याग से मनुष्य ईश्वर को प्राप्त कर सच्चे सुख व शांति का लाभ पाता है, वहीं समाज को भी उच्च आदर्र्शों के मानदंड बरकरार रखने की प्रेरणा प्रदान करता है।
धर्म की ऐसी क्या आवश्यकता है? कृष्ण कहते हैं-‘जो शास्त्र विधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धि को प्राप्त होता है, न ही परम गति को, न सुख को’ (गीता १६/२३)। अत: शास्त्र विधि से नियत कर्म ही करने योग्य हैं। (गीता १६.२४)। क्योंकि जीवन पुरुषार्थ पर आधारित है, परमगति लक्ष्य है। इसका आधार धर्म ही है-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। जिस विद्या से अविद्या, अस्मिता, आसक्ति, अभिनिवेश के आवरण दूर होते हैं, वे भी धर्म आधारित ही हैं-धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य। अत: हमारे सभी कर्मों का आधार धर्म ही हो, यह आवश्यक है।
धर्म आधारित कर्म तब संभव है, जब व्यक्ति पहले सत्वगुण की ओर अग्रसर हो, श्रद्धा से युक्त हो। यज्ञ को भी विधि से किया जाए, मन को साधन समाधान (निश्चय) करके फल की आशा न करके किया जाए (१७/११)। मन की प्रसन्नता, ईश चिन्तन, मन का निग्रह, अन्त:करण की पवित्रता मानस तप कहलाता है। दान में भी कोई अपेक्षा भाव न हो, सुपात्र को दिया जाए, तब ही उसका अर्थ होता है।
यूं तो संन्यास को ही हम त्याग का पर्याय मानते हैं, किन्तु ऐसा नहीं है। क्योंकि तप का निषेध तो त्याग में भी नहीं है। दान संन्यासी भी कर सकता है। प्रश्न यह है कि त्याग में क्या आसक्ति है ? क्या हम त्याग में या संन्यास में प्रतिफल की कामना रखते हैं? मोक्ष की कामना भी नहीं। क्लेश के भय से किया गया भी त्याग नहीं हो सकता। जीवन में कर्मत्याग संभव नहीं है, अत: कर्मफल त्याग की सलाह दी गई है।
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।। (2.59)
सही कहा। त्याग में यज्ञ, दान एवं तप का समावेश है।