हिमशिखर धर्म डेस्क
अपने देश में प्रकृति और ईश्वर दोनों को पर्याय ही माना गया है। चाहे लोक हो या शास्त्र, दोनों ने प्रकृति के महत्व को बराबर स्वीकार किया है। हमारा प्राचीन साहित्य इस बात का प्रमाण है कि प्रकृति सदैव पूजनीय रही है। प्रकृति से हमारा आशय केवल नदी-नाले, जंगल, पर्वत या हिमशिखर ही नहीं, वे समस्त जीव-जंतु भी हैं, जो इस समस्त सृष्टि को निर्मित करते हैं।
यजुर्वेद के शांतिपाठ में पर्यावरण के सभी तत्वों को शांत और संतुलित बनाए रखने का उत्कट भाव है, वहीं इसका तात्पर्य है कि समूचे विश्व का पर्यावरण संतुलित और परिष्कृत हो। ऋग्वेद की ऋचा कहती है- हे वायु! अपनी औषधि ले आओ और यहां से सब दोष दूर करो क्योंकि तुम ही सभी औषधियों से भरपूर हो।
सामवेद कहता है- इन्द्र! सूर्य रश्मियों और वायु से हमारे लिए औषधि की उत्पत्ति करो। हे सोम! आपने ही औषधियों, जल और पशुओं को उत्पन्न किया है।
अथर्ववेद मानता है कि मानव इस संसार के अधिक सन्निकट है। व्यक्ति स्वस्थ, सुखी दीर्घायु रहे, नीति पर चले और पशुओं, वनस्पति एवं जगत के साथ साहचर्य रखे।
गीता में प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण बताया गया है। प्रकृति के कण-कण में सृष्टि का रचयिता समाया हुआ है। गीता कहती है, ‘न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा। ‘प्रत्येक व्यक्ति, पशु, पक्षी, जीव, जंतु आदि सभी आत्मा हैं। खुद को यह समझना कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूं। यह आत्मज्ञान के मार्ग पर रखा गया पहला कदम है।
अर्थात, एक बार मनुष्य की समझ में यह आ जाए कि वह आत्मा है, और धरती के कण-कण में आत्मा का वास है तो शायद प्रकृति के प्रति उसका दृष्टिकोण भी बदल जाएगा।
इसलिए आश्चर्य इस बात का होता है कि जिस देश में प्रकृति के साथ साहचर्य की इतनी सुदीर्घ और समृद्ध परम्परा है, वहाँ हम प्रकृति की हर सुन्दर वस्तु का दोहन करके, उसे निचोड़ करके अपने पक्ष में कर लेना चाहते हैं। मनुष्य की तमाम बीमारियों के पीछे आज यह परिग्रह भाव ही सर्वोपरि है। यदि मनुष्य प्रकृति के प्रति थोड़ी भी अपनी जिम्मेदारी को समझे, तो शायद संसार से अनेक कष्ट दूर हो जाएँ।
हर वर्ष प्रकृति अपना भयावह रूप दिखाने में कोई कमी नहीं छोड़ रही। वैज्ञानिक कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसा हो रहा है। कभी अतिवृष्टि होती है, कभी अति सूखा पड़ जाता है, कभी अत्यधिक शीत पड़ती है तो कहा जाता है कि शायद हिम युग की वापसी होने वाली है। साल-दर-साल पहाड़ों में बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं। आपदा आती है, भू-स्खलन होते हैं, सूनामी का कहर बरपता है। उन्नत कहे जाने वाले देशों के पास इनका कोई जवाब नहीं है। हो भी कैसे? आखिर वे ही इन समस्याओं के जनक जो हैं।
इसी तरह पहाड़ों में रहने वालों का जीवन दूभर होता जा रहा है। वन्य जीव-जंतुओं का हस्तक्षेप बढ़ता ही जा रहा है। लोग कहते हैं कि कृषि करें तो किसके लिए? सब कुछ तो बन्दर और सूअर नष्ट कर जाते हैं. बाघ और हाथियों का आतंक बढ़ता ही जा रहा है। जब मनुष्य ने उनके क्षेत्र में घुसपैठ की तो उन्होंने भी मानव-बस्तियों में घुसपैठ कर दी। ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि मनुष्य, खास करके शहरी मनुष्य ने खुद को प्रकृति से एकदम दूर कर लिया है. शहर बढ़ते जा रहे हैं। प्रकृति के साहचर्य के साथ बसे गाँव उजड़ते जा रहे हैं। शहरों से बंदरों को पकड़-पकड़ कर पहाड़ों और जंगलों में छोड़ दिया जाता है, जिससे ये जानवर अपने व्यवहार को खो बैठते हैं।
भविष्य को सुखद बनाए रखने का सूत्र भारतीय जीवन दर्शन देता है, जो हमें लगातार प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनाए रखता है। दुर्भाग्य से, हमने अपनी परंपराओं और मान्यताओं के मूल मंतव्य को समझने की अपेक्षा उन्हें अंधविश्वास समझा और पूरी तरह नकार दिया। परिणाम यह हुआ कि नदी, हवा, वृक्ष, अग्नि, पृथ्वी और व्योम जैसे तत्वों को देवता मानकर अपनी श्रद्धा का अघ्र्य चढ़ाने वाला समाज ही प्रकृति की शुचिता के संरक्षण के प्रति लापरवाह हो गया। हमने विकास के नाम पर तेजी से जंगल काटे हैं, नदियों को प्रदूषित किया है, पृथ्वी के सीने को छलनी कर अपने स्वार्थ की पूर्ति की है और हवा को ऐसे महीन जहरीले कणों से भर दिया है कि बड़े शहरों में तो खुली हवा में सांस लेना तक दूभर हो चला है।
ऋग्वेद जल के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहता है -‘अप्सु अन्त: अमृतं, अप्सु भेशजं।Ó (1.23.248) यानी जल में अमृत है, जल में औषधि गुण विद्यमान है। अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में तो स्वस्थ जीवन के लिए जल की शुद्धता को बहुत आवश्यक बताया गया है। (शुद्धा न आपस्तन्वे क्षरन्तु।) ऋग्वेद तो संपूर्ण परिवेश को शुद्ध बनाए रखने की सलाह देता हुआ कहता है कि समग्र पृथ्वी, संपूर्ण परिदृश्य परिशुद्ध रहे। नदी, पर्वत, वन, उपवन- सब स्वच्छ रहें। गांव नगर सबको विस्तृत और उत्तम परिसर प्राप्त हो, तभी जीवन का समुचित विकास संभव है। एक अन्य स्थान पर ऋग्वेद के ऋषि कहते हैं कि वायु में जीवनदायिनी शक्ति है। इसलिए इसकी स्वच्छता पर्यावरण की अनुकूलता के लिए बहुत आवश्यक है। वेदों में कहा गया है कि द्युलोक, पृथ्वी, अंतरिक्ष, अग्नि, सूर्य, जल एवं विश्व के समस्त देवों ने इस सृष्टि की रचना की है (सृष्टि को व्याप्त किया है) इसलिए पृथ्वी इन सभी शक्तियों को ग्रहण करे और इन सब के लिए भी कल्याणप्रद रहे। इस प्रार्थना का स्पष्ट मंतव्य है कि पृथ्वीवासी उन प्राकृतिक शक्तियों को प्रदूषित न करें, जो जीवन का मूल हैं। यजुर्वेद के एक सूक्त में कहा गया है कि ‘ऊध्र्वमुख यज्ञकुण्ड की भांति पृथ्वी अपने विशाल हृदय को मातृवत प्राणशक्ति संचारक वायु, जल एवं वनस्पतियों से पूर्ण करे। वायुदेव दिव्य प्राण ऊर्जा से संचारित होते हैं। इसलिए कोई उन्हें कोई भी दूषित न करे।
पेड़ों को अलग-अलग ग्रहों या नक्षत्रों के कारक के रूप में पूजने के मूल में भी प्रकृति के संरक्षण का भाव रहा है। हम उन समस्त स्रोतों के प्रति कृतज्ञ रहें, जिनसे हमें जीवन जीने के लिए ऊर्जा मिलती है। इसलिए हमारी परंपराओं में सूरज, चांद, नदी, तालाब, कुएं, पेड़ और पशु-पक्षी तक पूजे जाते हैं। दुर्भाग्य से सनातन परंपराओं के मूल को समझे बिना कतिपय बुद्धिजीवियों ने उन्हें अंधविश्वास साबित करने में ही अपनी सारी शक्ति व्यय कर दी और लोगों ने सच को समझे बिना उनकी बातों पर भरोसा भी कर लिया। हमारी परंपराएं कहती हैं कि हमें प्रकृति के साथ तादात्म्य स्थापित करके अपने विकास को आकार देना चाहिए, क्योंकि प्रकृति के पास संपूर्ण मानवता के हित साधने लायक संसाधन तो हैं, लेकिन वह लालच किसी का पूरा नहीं कर सकती। लालच रिश्तों या भावों में ही नहीं, परिवेश में भी असंतुलन लाता है। दुनिया के किसी हिस्से में बार-बार आते भूकंप, कहीं अचानक सक्रिय हो उठे ज्वालामुखी, कहीं दरकते हुए पहाड़, कहीं रास्ता बदलने पर मजबूर नदी, कहीं उफनता हुआ समुद्र और कहीं पिघलते हुए हिमखण्ड- सब इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि हमें प्रकृति की मर्यादा का सम्मान करना होगा और यदि हमने इस सीख को नहीं माना तो संपूर्ण मानवता के सम्मुख आने वाले दिन सचमुच कठिन चुनौती बन कर उभरेंगे।
इसलिए मानव सभ्यता अपनी जड़ों की ओर देखे। अपने पूर्वजों की जीवनशैली पर नजर डाले। अपने प्राच्य ज्ञान पर नजर डाले। सब कुछ हमारे पास मौजूद है। प्रकृति के साथ संघर्ष की बजाय उसके साथ सहयोग और साहचर्य का रुख अख्तियार करे। तभी हमारा भविष्य सुरक्षित रह पायेगा।