सुप्रभातम्:जीवन जीने की कला सिखाती है गीता

भगवान कृष्ण ने गीता के माध्यम से सिर्फ अर्जुन की तमाम शंकाओं और समस्याओं का समाधान नहीं किया था, बल्कि उन्होंने मानव मात्र को जीवन जीने की सही दिशा दिखाई थी। महाभारत के युद्ध के दौरान भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेश आज भी लोगों के लाइफ मैनेजमेंट का काम करते हैं। 

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भारतीय संस्कृति में श्रीमद्भगवत गीता का स्थान सर्वोच्च है। कथा-प्रवचनों से लेकर घर-घर तक जीवन-सुधार परक उपदेश, नीति-नियमों का जो भी ज्ञान दिया जाता है, उसमें गीता का प्रकाश कहीं न कहीं अवश्य पड़ता है। धरती पर शायद ही ऐसा कोई स्थान हो, जो गीता के प्रभाव से मुक्त हो। भारत भूमि तो उसके स्पर्श से धन्य हो गई है।

सभी शास्त्रों का सार एक जगह कहीं यदि इकट्ठा मिलता हो, तो वह जगह है-गीता। गीता रूपी ज्ञान-गंगोत्री में स्नान कर अज्ञानी सद्ज्ञान को प्राप्त करता है। पापी पाप-ताप से मुक्त होकर संसार सागर को पार कर जाता है। श्रीमद्भगवत गीता को साक्षात श्री कृष्ण का स्वरूप माना जाता है और इनमें दिए गए ज्ञान से व्यक्ति अपने जीवन में अधर्म रूपी अंधकार को दूर कर सकता है।

गीता को माँ भी कहा गया है। यह इसलिए कि जिस प्रकार माँ अपने बच्चों को प्यार-दुलार देती और सुधार करते हुए महानता के शिखर पर आरूढ़ होने का रास्ता दिखाती है, उसी तरह गीता भी अपना गान करने वाले भक्तों को सुशीतल शांति प्रदान करती है। यह मनुष्यों को सद्शिक्षा देती और नर से नारायण बनने के राह पर अग्रसर होने की प्रेरणा प्रदान करती है। गीता का गान करते-करते मनुष्य उस भावलोक में प्रवेश कर जाता है, जहाँ उसे अलौकिक ज्ञान-प्रकाश, अपरिमित आनन्द प्राप्त होता है। हो भी न कैसे? एक गीता का गान ही अपने आप में इतना सक्षम है कि इसे पाने के बाद और कुछ पाने की जरूरत ही नहीं पड़ती। क्योंकि यह स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मुख-कमल से ही निःसृत हुई है।

गीता का जितना स्वाध्याय किया जाय, उतने ही जीवन को महान बनाने के नए-नए सूत्र हाथ लगते हैं। मनुष्य को संपूर्ण बनाने के लिए जो भी तत्त्व आवश्यक है, वह सब गीता में है। भगवान् श्रीकृष्ण ने उस महान ज्ञान-तत्त्व रूपी दुग्ध को उपनिषद रूपी गायों से दोहन करके निकाला है, जिसे गीतामृत कहा गया है।

यहाँ एक विशेष बात है-‘गोपालनन्दन’ जिसका अर्थ है गो अर्थात् ग्वालबालों को पालने के साथ-साथ आनन्द प्रदान करने वाले एवं गो अर्थात् गौओं को सस्नेह पालने वाले, यानी कि राजा नन्द का पुत्र। दूसरे अर्थ में राजा नन्द को सदा आनन्दित रखने वाले एवं समस्त ग्वालबालों का पालन-संरक्षण करने तथा उन्हें सदा आनन्दित रखने वाले हैं। इसके अतिरिक्त एक और अर्थ है, जो विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है। वह यह कि पालन करने वाले तो संसार में बहुत हैं, पर पशुओं को भी यहाँ पशु से तात्पर्य सद्ज्ञान से रहित मनुष्यों को भी लिया जा सकता है, जो अज्ञानता के कारण पशु जैसे ही होते हैं और अधिकतर हानिकर कार्य ही करते रहते हैं, ऐसे अज्ञानी मनुष्यों को भी अपनी संतान के समान पालना विशेष महत्त्व रखता है, जो भगवान् श्रीकृष्ण में एक अनन्य विशेषता है। इसी से उनकी भगवत्ता झलकती है। ऐसे महापुरुष, सद्पुरुष, अवतारी सत्ता जब कुछ बोलते हैं, तो निश्चय ही वह गीता ही हो सकती है। यहाँ गीता और श्रीकृष्ण, ज्ञान और उसके प्रदाता भिन्न-भिन्न नहीं हैं, बल्कि एक हैं।

गीता सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान कर सभी दुःखों को हरने वाली कामधेनु जैसी है। गीता अपनी शरण में आए हुए हर पुत्र की समस्याओं का समाधान करती है। माता सर्वापरि होती है-गुरु से भी ऊपर। इसी कारण शपथ भी ली जाती है तो गीता के ऊपर हाथ रखकर। अदालत के लिए सद्ग्रन्थों की कमी नहीं है, पर गीता तो गीता है, वह माता है, सबकी माता। वह न कोई शास्त्र है, न ग्रन्थ है। वह तो सबको छाया देने वाली, ज्ञान का प्रकाश देने वाली माता है।

जीवन स्वयं महाभारत ही है जिसमें पग-पग पर संशय, किंकर्तव्यविमूढ़ता है। निणर्य-अनिर्णय के बीच सौ वर्ष का जीवन फंसा है। कर्म और धर्म इस जीवन यात्रा के दो पहिए हैं। दोनों का सन्तुलन रखकर पार पा सकूं। इसके लिए अर्जुन बनकर गीता को जीवन में उतार सकूं। इस महाभारत के कुरुक्षेत्र में मुझे अपना गाण्डीव उठाना है। कृष्ण ने कहा-मैं ही अर्जुन, वासुदेव भी मैं हूं। इस अद्वय स्वरूप को कृष्ण बनकर कैसे जीवन में लागू करुं, यही तो गीता बता रही है।

अर्जुन तो वहां कृष्ण से अपने सखा भाव से प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहा था। वह भक्त नहीं था। अत: महाभारत के बाद दुबारा गीता का उपदेश सुनाने का आग्रह कर बैठा। अर्जुन के पास प्रश्न थे। उधर राम के दौर में अर्जुन की भांति हनुमान थे। हनुमान के प्रश्नों का तूणीर हमेशा रिक्त रहा, केवल भक्ति का भाव था। अर्जुन शोकग्रस्त था, संशयों से घिरा था, वहां तीनों योग-कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग गायब थे। ‘तू क्षत्रिय है, युद्ध कर। इसी घोषणा के बाद अर्जुन का योग में प्रवेश प्रारम्भ हो सका। संशय हटा। धर्म की ग्लानि की स्थितियां स्पष्ट हुईं तो धर्म की स्थापना के लिए कृष्ण के कहे मार्ग को पकड़ा।

गीता है तो कर्म शास्त्र ही किन्तु यह भी समझाया है कि धर्म ही कर्म और कर्म ही धर्म तब बनेगा जब कर्म को धर्म मानकर करेंगे। जीवन के पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में कृष्ण का लक्ष्य भी धर्म के सहारे मोक्ष ही है। इसी के लिए विराट् रूप दिखाया, अपनी विभूतियां भी गिना दी। शरीर और शरीर के बाहर तो मूढ़ भी जी सकता है।

स्वयं भीतर में ब्रह्म हैं, अपने स्वरूप की पहचान करने की पहली आवश्यकता है। तभी व्यक्ति दूसरों को भी पहचान सकता है। अपनी विभूतियों से कृष्ण भी बता रहे हैं कि मैं अपने भीतर को शीघ्र समझ सकूं तब भीतर के युद्ध का सामना कर सकूंगा। ‘मैं ही तो भीतर बैठा हूं। आवाज दो-अहंकार के बगैर, तो तत्काल उपस्थित हूं।

कौरवों की सभा में द्रौपदी चीरहरण के दृश्य में दु:शासन अनवरत द्रौपदी के चीर को खींच रहा था। द्रौपदी अपने सम्मान की रक्षा हेतु द्वारकाधीश को पुकारे जा रही थी। जब उसे लगा कि अब द्वारकाधीश सुन नहीं रहे तब उसने अन्तर्मन में बैठे कृष्ण को आवाज लगाई। तत्क्षण कृष्ण उपस्थित हो गए और उसका चीर बढ़ाते चले गए।

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