सुप्रभातम्: मूर्ति पूजा करना सही या गलत?

सनातन धर्म के सबसे कठिन और अस्पष्ट अवधारणाओं में से एक है मूर्ति पूजा, अक्सर इसे गलत समझा गया और गलत व्याख्या की गई। आखिर क्यों हिंदु मूर्तियों की पूजा करतें है? और वे वास्तव में इन मूर्तियों को कैसे देखते हैं? आखिर मूर्ति क्या है? परमात्मा निराकार, निर्गुण, असीम, अनन्त व सर्वज्ञ है एवम् हम साकार, सगुण, ससीम, सान्त व अल्पज्ञ। ऐसी स्थिति में एक साधारण व्यक्ति अपना ईश्वर के साथ कैसे सम्बन्ध स्थापित करे, उसे कैसे समझे और कैसे उस सम्बन्ध को निरन्तर स्मरण रखे? इस समस्या के समाधान के लिए जब हम ईश्वर को भी साकार, सगुण व ससीम बना लेते हैं तो वह हमें हमारे जैसा ही लगने लगता है, अतः उसके समीप बैठ, उसकी उपासना (उप=पास, आसन=बैठना) करना आसान हो जाता है। मूर्तिपूजा योग साधना या अध्यात्म की सीढी का पहला पायदान होता है। इसलिए जब इसकी सार्थकता पूर्ण हो जाती है तो इसे छोड़ देना पड़ता है, तभी हम अगले पायदान पर जा सकते हैं। 

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हिमशिखर धर्म डेस्क

भारतीय संस्कृति में प्रतीकवाद का महत्वपूर्ण स्थान है। सबके लिए सरल सीधी पूजा-पद्धति को आविष्कार करने का श्रेय प्राप्त है। पूजा-पद्धति की उपयोगिता और सरलता की दृष्टि से सनातन हिन्दू धर्म की तुलना अन्य सम्प्रदायों से नहीं हो सकती। हिन्दू धर्म में ऐसे वैज्ञानिक मूलभूत सिद्धांत दिखाई पड़ते हैं। मूर्ति-पूजा ऐसी ही प्रतीक पद्धति है।

मूर्ति-पूजा क्या है?

पत्थर, मिट्टी, धातु या चित्र इत्यादि की प्रतिमा को मध्यस्थ बनाकर हम सर्वव्यापी अनन्त शक्तियों और गुणों से सम्पन्न परमात्मा को अपने सम्मुख उपस्थित देखते हैं। निराकार ब्रह्म का मानस चित्र निर्माण करना कष्टसाध्य है। बड़े योगी, विचारक, तत्ववेत्ता सम्भव है यह कठिन कार्य कर दिखायें, किन्तु साधारण जन के लिए तो वह निताँत असम्भव-सा है। भावुक भक्तों, विशेषतः नारी उपासकों के लिए तो किसी प्रकार की मूर्ति का आधार रहने से उपासना में बड़ी सहायता मिलती है। मानस चिन्तन और एकाग्रता की सुविधा को ध्यान में रखते हुए प्रतीक रूप में मूर्ति-पूजा की योजना बनी है। साधक अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान की कोई भी मूर्ति चुन लेता है और साधना करने लगता है। उस मूर्ति को देखकर हमारी अन्तः चेतना ऐसा अनुभव करती है मानो साक्षात् भगवान से हमारा मिलन हो रहा है।

मूर्ति-पूजा चित्त-शुद्धि का साधन

मनुष्य का यह स्वभाव है कि जब तक वह यह जानता है कि कोई उसके कामों, चरित्र या विविध हाव-भाव विचारों को देख रहा है, तब तक वह बड़ा सावधान रहता है। बाह्य नियन्त्रण हटते ही वह शिथिल-सा होकर पुनः पतन में बहक जाता है। मंदिर में भगवान की मूर्ति के सम्मुख उसे सदैव ऐसा अनुभव होता रहता है कि वह ईश्वर के सम्मुख है, परमात्मा उसके कार्यों, मन्तव्यों और विचारों को सतर्कता से देख रहे हैं, अतः उसे चित्त- शुद्धि में सहायता मिलती है। मूर्ति चित-शुद्धि के लिए प्रत्यक्ष परमेश्वर का प्रतिनिधित्व करती है। जिन भारतीय ऋषियों ने भगवान की मूर्ति की कल्पना की थी, वे मनोविज्ञान-वेत्ता भी थे। उनके इस उपाय से भोली भावुक जनता की चित्त-शुद्धि हुई। मनुष्य ने अपने सात्विक प्रवृत्तियों, कला और सौंदर्य-वृत्ति का सारा प्रदर्शन मन्दिरों में किया हैं। मूर्ति में भगवान की भावना और अपनी श्रद्धा भरकर उन्होंने आत्मविकास किया।

योगीजन कहते हैं कि मूर्ति न होती तो बगीचे में से फूल तोड़कर मनुष्य केवल उसे अपनी नाक तक ही लगाता, किन्तु सात्विक भावना से भरकर भगवान की मूर्ति पर फूल चढ़ाकर, जो कि फूल के लिए शायद सर्वोच्च स्थान है- मनुष्य ने अपनी गंध वासना संयत और उन्नत की। अपनी वासना को उन्नत, परिष्कृत और संयमित करने के लिये भगवान के समर्पण की युक्ति निकाली।”

मन्दिर में ईश्वर की कोई प्रतिमा स्थापित कर निरन्तर उन्हें अपने कार्यों का दृष्टा मानकर हम जो सदाचरण करते हैं, अपने कर्तव्यों को पूर्ण करते हैं, भजन, पूजन, स्वाध्याय, प्रार्थना करते हैं, वही भगवान का वैभव बढ़ाने वाली बातें हैं। जिन विचारों या कार्यों से हमारा देवत्व प्रकट होता है, वे ही इस दुर्लभ मानव-देह से करने योग्य कार्य हैं। वाणी से भगवान के दिव्य गुणों, अतुल सामर्थ्यो का गुण-गान करें, हाथों से पवित्र कार्य करे, ब्रह्म-चिन्तन भजन-गायन, और अर्चन से बुद्धि को शुद्ध बनाये, यही हमारे अहंकार को दूर कर सकता है और चित्त शुद्ध कर सकता है।

जब मूर्ति में हम भगवान की आस्था, श्रद्धा और विश्वास के साथ स्थापित कर देते हैं, तो वही दिव्य सामर्थों से पूर्ण हो जाती है। उसी पत्थर की प्रतिमा के सामने हमारा सिर अपने आप झुक जाता है। यह मनुष्य की श्रद्धा का चमत्कार है। इस मूर्ति के सामने निरन्तर रहने से चित्त-शुद्धि होती है और आत्मानुशासन प्राप्त हो जाता है। जीवन का चरम लक्ष्य होना चाहिए ईश्वर से तादात्म्य और इसी को मानना चाहिए- परम पुरुषार्थ। मूर्ति-पूजा वह प्रारम्भिक अवस्था है जिसमें मनुष्य दिव्य गुणों के विकास की पहली सीढ़ी पर चढ़ता है। योगसूत्र में भगवान की व्याख्या “रागद्वेषादि रहित पुरुष विशेषः” की है। इस प्रकार मूर्ति-पूजा करते-करते मनुष्य निरहंकार बनता है। जिस मूर्ति में वह जिन देव गुणों का आरोपण का पूजा करने लगता है, कालान्तर में वे ही उसके चरित्र में प्रकट होने लगते हैं। इस प्रकार मूर्ति-पूजा उपयोगी है और आवश्यक भी।

एक देवता की छवि जिसका उद्देश्य पूजा है उसी को ही हिन्दू धर्म में मूर्ति कहते हैं। हिंदू धर्म में मूर्तियों को प्रतिमा, विग्रह भी कहा जाता है।

1.) प्रतिमा- यह एक संस्कृत शब्द है जिसका मतलब है किसी देवता की छवि या समानता।

2.) मूर्ति- यह एक संस्कृत शब्द है जिसका मतलब है किसी भी प्रतिबिम्ब को साकार रूप में अभिव्यक्ति।

3.) विग्रह- यह एक संस्कृत शब्द है जिसका तात्पर्य है आकार यह एक देवता की पवित्र छवि या चित्रण करने के लिए संदर्भित होता है, की हिंदू धर्म में मूर्तियों के स्थिर प्रतीकों का एक हिस्सा हैं।

मूर्ति निर्माण एक विज्ञान है

मूर्ति निर्माण के पीछे भी एक पूरा विज्ञान छिपा हुआ है। इसका मतलब है कि एक खास सामग्री से एक खास आकार की रचना करके उसमें ऊर्जा प्रवाहित की जाती है और वह इंसान जैसा हो जाता है। अलग-अलग प्रतिमाएं अलग-अलग तरीकों से बनाई जाती हैं और चक्रों को खास जगहों पर कुछ इस तरह पुनर्स्थापित किया जाता है कि वे प्रतिमाएं बिल्कुल ही अलग तरह की संभावनाएं बन जाती हैं। इसलिए मूर्ति-निर्माण वह विज्ञान है, जिसके जरिए एक खास तरीके से ऊर्जा को व्यवस्थित की जाती है, ताकि उसकी मदद से आपके जीवन में निखार आ सके।

भारत के प्राचीन मंदिरों का निर्माण पूजा-अर्चना के मकसद से नहीं किया जाता था। पर समय के साथ मंदिरों के स्वरूप में बदलाव आता गया और मंदिरों का इस्तेमाल पूजा पाठ के मकसद से किया जाने लगा। मंदिर निर्माण एक गहन विज्ञान है। जब मंदिर की बुनियादी चीजें प्रतिमा का आकार और ऊंचाई, उसकी मुद्रा, परिक्रमा, गर्भ गृह, जिन मंत्रों के साथ उसे प्रतिष्ठित किया गया जाता है, ये चीजें पूरी तरह एक दूसरे से मेल खाती हों, तभी मंदिर में एक सकारात्मक ऊर्जा प्रणाली तैयार होती है।

मंदिर की ऊर्जा आत्म-सात करने की परंपरा

भारतीय संस्कृति में किसी से यह नहीं कहा गया कि मंदिर जाने पर उसे क्या मांगना है और क्या नहीं। पर यह जरूर बताया जाता है कि जब भी मंदिर जाओ, वहां थोड़ी देर बैठो। लेकिन आज होता यह है कि हम मंदिर में जाते है और जमीन से अपना सिर झुकाकर जल्दी से बाहर आ जाते हैं। तरीका यह नहीं है। आपको वहां बैठना ही चाहिए, क्योंकि उस मंदिर में एक खास तरह का ऊर्जा मंडल मौजूद है।

सुबह अपनी दिनचर्या शुरू करने से पहले या अपने रोजगार पर निकलने से पहले आप मंदिर में जाकर थोड़ी देर बैठें और फिर काम पर जाएं। यह जीवन के सकारात्मक स्पंदन से खुद को रीचार्ज करने जैसा है, जिससे आप एक अलग नजरिए के साथ दुनियादारी में प्रवेश करते हैं।

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