महाभारत में राजा जनमेजय की कथा काफी प्रसिद्ध है। वे पाण्डवों के पौत्र राजा परीक्षित के पुत्र थे। जिन्होंने तक्षक नाग से पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्प यज्ञ किया था। उस यज्ञ में सृष्टि के सभी सांप जलकर भस्म होने लगे थे। फिर एक ज्ञानी बालक आस्तिक ने तक्षक सहित बाकी बचे नागों की रक्षा की थी। आज हम आपको वही कथा बता रहे हैं।
- जनमेजय पाण्डवों के पौत्र राजा परीक्षित के पुत्र थे
- तक्षक नाग से पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए उन्होंने सर्प यज्ञ किया था
- एक ज्ञानी बालक आस्तिक ने तक्षक सहित बाकी बचे नागों की रक्षा की थी
हिमशिखर धर्म डेस्क
राजा जनमेजय के पिता राजा परीक्षित एक समय शिकार खेलते हुए ऋषि शमीक के आश्रम चले गए थे। वहां ध्यान मग्न शमीक ने उन पर ध्यान नहीं दिया तो गुस्से में परीक्षित उनके गले में मरा सांप डालकर लौट आए। जब उनके पुत्र ऋषि श्रृंगी को इसका पता चला तो उन्होंने परीक्षित को सात दिन में तक्षक नाग के काटने से मृत्यु का श्राप दे दिया।
उग्रश्रवाजी कहते हैं–’शौनकादि ऋषियो! अपने पिता की मृत्यु का इतिहास सुनकर जनमेजय को बड़ा दुःख हुआ। वे क्रुद्ध होकर हाथ से हाथ मलने लगे। शोक के कारण उनकी लम्बी और गरम साँस चलने लगी। आँखें आँसू से भर गयीं। वे दुःख, शोक तथा क्रोध से भरकर आँसू बहाते हुए शास्त्रोक्त विधि से हाथ में जल लेकर बोले–’मेरे पिता किस प्रकार स्वर्गवासी हुए, यह बात मैंने विस्तार के साथ सुन ली है। जिसके कारण मेरे पिता की मृत्यु हुई है, उस दुरात्मा तक्षक से बदला लेने का मैंने पक्का निश्चय कर लिया है। उसने स्वयं मेरे पिता का नाश किया है, शृंगी ऋषि का शाप तो एक बहाना मात्र है। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि उसने काश्यप ब्राह्मण को, जो विष उतारने के लिये आ रहे थे और जिनके आने से मेरे पिता अवश्य ही जीवित हो जाते, धन देकर लौटा दिया। यदि हमारे मन्त्री काश्यप ब्राह्मण का अनुनय-विनय करते और वे अनुग्रह पूर्वक मेरे पिता को जीवित कर देते तो इससे उस दुष्ट की क्या हानि होती। ऋषि का शाप पूरा हो जाता और मेरे पिता जीवित रह जाते। मेरे पिता की मृत्यु में सारा अपराध तक्षक का ही है, इसलिये मैं उससे अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने का संकल्प करता हूँ।’ मन्त्रियों ने महाराज जनमेजय की इस प्रतिज्ञा का अनुमोदन किया।
अब राजा जनमेजय ने पुरोहित और ऋत्विजों को बुलाकर कहा, ‘दुरात्मा तक्षक ने मेरे पिता की हिंसा की है। आप लोग ऐसा उपाय बताइये, जिससे मैं बदला ले सकूँ। क्या आप लोग ऐसा कर्म जानते हैं, जिससे मैं उस क्रूर सर्प को धधकती आग में होम सकूँ ?’
ऋत्विजों ने कहा–’राजन् ! देवताओं ने आपके लिये पहले से ही एक महायज्ञ का निर्माण कर रखा है। यह बात पुराणों में प्रसिद्ध है। उस यज्ञ का अनुष्ठान आपके अतिरिक्त और कोई नहीं करेगा, ऐसा पौराणिकों ने कहा है और हमें उस यज्ञ की विधि मालूम है।’ ऋत्विजों की बात सुनकर जनमेजय को विश्वास हो गया कि निश्चय ही अब तक्षक जल जायगा। राजा ने ब्राह्मणों से कहा, ‘मैं वह यज्ञ करूँगा। आप लोग इसके लिये सामग्री संग्रह कीजिये।’
वेदज्ञ ब्राह्मणों ने शास्त्र विधि के अनुसार यज्ञ-मण्डप बनाने के लिये जमीन नाप ली, यज्ञशाला के लिये श्रेष्ठ मण्डप तैयार कराया तथा राजा जनमेजय यज्ञ के लिये दीक्षित हुए। इसी समय एक विचित्र घटना घटित हुई। किसी कला-कौशल के पारङ्गत विद्वान्, अनुभवी एवं बुद्धिमान् सूत ने कहा–’जिस स्थान और समय में यज्ञ मण्डप मापने की क्रिया प्रारम्भ हुई है, उसे देखकर यह मालूम होता है कि किसी ब्राह्मण के कारण यह यज्ञ पूर्ण नहीं हो सकेगा।’ राजा जनमेजय ने यह सुनकर द्वारपाल से कह दिया कि मुझे सूचना कराये बिना कोई मनुष्य यज्ञ मण्डप में न आने पावे।
अब सर्पयज्ञ की विधि से कार्य प्रारम्भ हुआ। ऋत्विज् अपने-अपने काम में लग गये। ऋत्विजों की आँखें धूएँ के कारण लाल-लाल हो रही थीं। वे काले-काले वस्त्र पहनकर मन्त्रोच्चारण पूर्वक हवन कर रहे थे। उस समय सभी सर्प मन-ही-मन काँपने लगे। अब बेचारे सर्प तड़पते, पुकारते, उछलते, लम्बी साँस लेते, पूँछ और फनों से एक-दूसरे को लपेटते आग में गिरने लगे। सफेद, काले, नीले, पीले, बच्चे, बूढ़े सभी प्रकार के सर्प चिल्लाते हुए टपाटप आग के मुँह में गिरने लगे। कोई चार कोस तक लंबे और कोई-कोई गाय के कान बराबर लंबे सर्प ऊपर-ही-ऊपर कुण्ड में आहुति बन रहे थे।
सर्प-यज्ञ में च्यवनवंशी चण्डभार्गव होता थे। कौत्स उद्गाता, जैमिनि ब्रह्मा तथा शार्ङ्गरव और पिंगल अध्वर्यु थे। एवं पुत्र और शिष्यों के साथ व्यासजी, उद्दालक, प्रमतक, श्वेतकेतु, असित, देवल आदि सदस्य थे। नाम ले-लेकर आहुति देते ही बड़े-बड़े भयानक सर्प आकर अग्नि-कुण्ड में गिर जाते थे। सर्पों की चर्बी और मेद की धाराएँ बहने लगीं, बड़ी तीखी दुर्गन्ध चारों ओर फैल गयी तथा सर्पों की चिल्लाहट से आकाश गूंज उठा। यह समाचार तक्षक ने भी सुना। वह भयभीत होकर देवराज इन्द्र की शरण में गया। उसने कहा–’देवराज! मैं अपराधी हूँ। भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये। ‘
इन्द्र ने प्रसन्न होकर कहा–’मैंने तुम्हारी रक्षा के लिये पहले से ही ब्रह्माजी से अभय वचन ले लिया है। तुम्हें सर्प-यज्ञ से कोई भय नहीं। तुम दुःखी मत होओ।’ इन्द्र की बात सुनकर तक्षक आनन्द से इन्द्र भवन में ही रहने लगा। उग्रश्रवाजी कहते हैं–जनमेजय के यज्ञ में सर्पों का हवन होते रहने से बहुत से सर्प नष्ट हो गये। केवल थोड़े से ही बच रहे इससे वासुकि नाग को बड़ा कष्ट हुआ। घबराहट के मारे उनका हृदय व्याकुल हो गया। उन्होंने अपनी बहिन जरत्कारु से कहा–’बहिन! मेरा अंग-अंग जल रहा है। दिशाएँ नहीं सूझतीं। चक्कर आने के कारण बेहोश-सा हो रहा हूँ। दुनिया घूम रही है। कलेजा फटा जा रहा है। मुझे ऐसा दीख रहा है कि अब मैं भी विवश होकर इस धधकती आग में गिर जाऊँगा। इस यज्ञ का यही उद्देश्य है। मैंने इसी समय के लिये तुम्हारा विवाह जरत्कारु ऋषि से किया था। अब तुम हम लोगों की रक्षा करो। ब्रह्माजी के कथनानुसार तुम्हारा पुत्र आस्तीक इस सर्प-यज्ञ को बन्द कर सकेगा। वह बालक होने पर भी श्रेष्ठ वेदवेत्ता और वृद्धों का माननीय है। अब तुम उससे हम लोगों की रक्षा के लिये कह दो।’
अपने भाई की बात सुनकर ऋषि-पत्नी जरत्कारु ने सब बात बतलाकर नागों की रक्षाके लिये आस्तीक को प्रेरित किया।आस्तीक ने माता की आज्ञा स्वीकार कर वासुकि से कहा–’नागराज ! आप मन में शान्ति रखिये। मैं आपसे सत्य-सत्य कहता हूँ कि उस शाप से आप लोगों को मुक्त कर दूँगा। मैंने हास-विलास में भी कभी असत्य भाषण नहीं किया है। इसलिये मेरी बात झूठ न समझो। मैं अपनी शुभ वाणी से राजा जनमेजय को प्रसन्न कर लूँगा और वह यज्ञ बन्द कर देगा। मामाजी ! आप मुझ पर विश्वास कीजिये।’
इस प्रकार वासुकि नाग को आश्वासन देकर आस्तीक सर्पों को मुक्त करने के लिये यज्ञशाला में जाने के उद्देश्य से चल पड़े। उन्होंने वहाँ पहुँचकर देखा कि सूर्य और अग्नि के समान तेजस्वी सभासदों से यज्ञशाला भरी है। द्वारपालों ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया। अब वे भीतर प्रवेश पाने के लिये यज्ञ की स्तुति करने लगे। उनके द्वारा यज्ञ की स्तुति सुनकर जनमेजय ने उन्हें भीतर आने की आज्ञा दे दी। आस्तीक यज्ञ मण्डप में जाकर यजमान, ऋत्विज्, सभासद् तथा अग्नि की और भी स्तुति करने लगे।
आस्तीक के द्वारा की हुई स्तुति सुनकर राजा, सभासद्, ऋत्विज् और अग्नि सभी प्रसन्न हो गये। सबके मनोभाव को समझकर जनमेजय ने कहा–’यद्यपि यह बालक है, फिर भी बात अनुभवी वृद्धों के समान कर रहा है। मैं इसे बालक नहीं, वृद्ध मानता हूँ। मैं इस बालक को वर देना चाहता हूँ, इस विषय में आप लोगों की क्या सम्मति है ?’
सभासदों ने कहा–’ब्राह्मण यदि बालक हो तो भी राजाओं के लिये सम्मान्य है। यदि वह विद्वान् हो, तब तो कहना ही क्या। अतः आप इस बालक को मुँहमाँगी वस्तु दे सकते हैं।’
जनमेजय ने कहा–’आप लोग यथाशक्ति प्रयत्न कीजिये कि मेरा यह कर्म समाप्त हो जाय और तक्षक नाग अभी यहाँ आ जाय। वही तो मेरा प्रधान शत्रु है।’
ऋत्विजों ने कहा–’अग्निदेव का कहना है कि तक्षक भयभीत होकर इन्द्र के शरणागत हो गया है। इन्द्र ने तक्षक को अभयदान भी दे दिया है।’ जनमेजय ने कुछ दुःखी होकर कहा–’आप लोग ऐसा मन्त्र पढ़कर हवन कीजिये कि इन्द्र के साथ तक्षक नाग आकर अग्नि में भस्म हो जाय।’
जनमेजय की बात सुनकर होता ने आहुति डाली। उसी समय आकाश में इन्द्र और तक्षक दिखायी पड़े। इन्द्र तो उस यज्ञ को देखकर बहुत ही घबरा गये और तक्षक को छोड़कर चलते बने। तक्षक क्षण-क्षण अग्निज्वाला के समीप आने लगा। तब ब्राह्मणों ने कहा–’राजन्! अब आपका काम ठीक हो रहा है। इस ब्राह्मण को वर दे दीजिये। ‘
जनमेजय ने कहा–ब्राह्मणकुमार! तुम्हारे जैसे सत्पात्र को मैं उचित वर देना चाहता हूँ। अतः तुम्हारी जो इच्छा हो, प्रसन्नता से माँग लो। मैं कठिन से कठिन वर भी तुम्हें दूँगा।’
आस्तीक ने यह देखकर कि अब तक्षक अग्निकुण्ड में गिरने ही वाला है, अवसर से लाभ उठाया। उन्होंने कहा–’राजन्! आप मुझे यही वर दीजिये कि आपका यह यज्ञ बन्द हो जाय और इसमें गिरते हुए सर्प बच जायँ।’ इस पर जनमेजय ने कुछ अप्रसन्न होकर कहा–’समर्थ ब्राह्मण ! तुम सोना, चाँदी, गौ और दूसरी वस्तुएँ इच्छानुसार ले लो। मैं चाहता हूँ कि यह यज्ञ बन्द न हो।’
आस्तीक ने कहा–’मुझे सोना, चाँदी, गौ अथवा और कोई भी वस्तु नहीं चाहिये; अपने मातृकुल के कल्याण के लिये मैं आपका यज्ञ ही बन्द कराना चाहता हूँ।’ जनमेजय ने बार-बार अपनी बात दुहरायी, परन्तु आस्तीक ने दूसरा वर माँगना स्वीकार नहीं किया। उस समय सभी वेदज्ञ सदस्य एक स्वर से कहने लगे–’यह ब्राह्मण कुछ माँगता है, वही इसको मिलना चाहिये।’
शौनकजी ने पूछा–सूतनन्दन ! उस यज्ञ में तो बड़े विद्वान् ब्राह्मण थे। किन्तु आस्तीक से बात करते समय जो तक्षक अग्नि में नहीं गिरा, इसका क्या कारण हुआ ? क्या उन्हें वैसे मन्त्र ही नहीं सूझे?
उग्रश्रवाजी ने कहा–’इन्द्र के हाथोंसे छूटते ही तक्षक मूर्छित हो गया। आस्तीक ने तीन बार कहा–’ठहर जा ! ठहर जा ! ठहर जा! इसी से वह आकाश और पृथ्वी के बीच में लटका रहा और अग्निकुण्ड में नहीं गिरा।’
शौनकजी ! सभासदों के बार-बार कहने पर जनमेजय ने कहा–’अच्छा, आस्तीक की इच्छा पूर्ण हो। यह यज्ञ समाप्त करो। आस्तीक प्रसन्न हों। हमारे सूत ने जो कहा था, वह भी सत्य हो।’ जनमेजय के मुँह से यह बात निकलते ही सब लोग आनन्द प्रकट करने लगे। सभी को प्रसन्नता हुई। राजा ने ऋत्विज् और सदस्यों को तथा जो अन्य ब्राह्मण वहाँ आये थे, उन्हें बहुत दान दिया। जिस सूत ने यज्ञ बन्द होने की भविष्यवाणी की थी, उसका भी बहुत सत्कार किया।
यज्ञान्त का अवभृथ-स्नान करके आस्तीक का खूब स्वागत-सत्कार किया और उन्हें सब प्रकार से प्रसन्न करके विदा किया। जाते समय जनमेजय ने कहा–’आप मेरे अश्वमेध यज्ञ में सभासद् होने के लिये पधारियेगा।’ आस्तीक ने प्रसन्नतासे ‘तथास्तु’ कहा। तत्पश्चात् अपने मामा के घर जाकर अपनी माता जरत्कारु आदि से सब समाचार कह सुनाया।
उस समय वासुकि नाग की सभा यज्ञ से बचे हुए सर्पों से भरी हुई थी। आस्तीक के मुँह से सब समाचार सुनकर सर्प बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने उन पर प्रेम प्रकट करते हुए कहा–’बेटा! तुम्हारी जो इच्छा हो, वर माँग लो।’ वे बार-बार कहने लगे–‘बेटा ! तुमने हमें मृत्यु के मुँह से बचा लिया। हम तुम पर प्रसन्न हैं। कहो तुम्हारा कौन-सा प्रिय कार्य करें ?’
आस्तीक ने कहा–’मैं आप लोगों से यह वर माँगता हूँ कि जो कोई सायंकाल और प्रातःकाल प्रसन्नता पूर्वक इस धर्ममय उपाख्यान का पाठ करे उसे सर्पों से कोई भय न हो।’ यह बात सुनकर सभी सर्प बहुत प्रसन्न हुए। उन लोगों ने कहा–’प्रियवर! तुम्हारी यह इच्छा पूर्ण हो। हम बड़े प्रेम और नम्रता से तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करते रहेंगे। जो कोई असित, आर्तिमान् और सुनीथ मन्त्रों में से किसी एक का दिन या रात में पाठ कर लेगा, उसे सर्पों से भय कम होगा। वे मन्त्र क्रमशः ये हैं—
यो जरत्कारुणा जातो जरत्कारौ महायशाः।
आस्तीकः सर्पसत्रे वः पन्नगान् योऽभ्यरक्षत।
तं स्मरन्तं महाभागा न मां हिंसितुमर्हथ॥
(५८।२४)
‘जरत्कारु ऋषि से जरत्कारु नामक नाग कन्या में आस्तीक नामक यशस्वी ऋषि उत्पन्न हुए। उन्होंने सर्पयज्ञ में तुम सर्पों की रक्षा की थी। महाभाग्यवान्सर्पो ! मैं उनका स्मरण कर रहा हूँ। तुम लोग मुझे मत डँसो।’
सर्पापसर्प भद्रं ते गच्छ सर्प महाविष।
जनमेजयस्य यज्ञान्ते आस्तीकवचनं स्मर॥
(५८।२५)
‘हे महाविषधर सर्प ! तुम चले जाओ। तुम्हारा कल्याण हो। अब तुम जाओ। जनमेजय के यज्ञ की समाप्ति में आस्तीक ने जो कुछ कहा था, उसका स्मरण करो।’
आस्तीकस्य वचः श्रुत्वा यः सर्पो न निवर्तते।
शतधा भिद्यते मूर्ध्नि शिंशवृक्षफलं यथा॥
(५८।२६)
‘जो सर्प आस्तीक के वचन की शपथ सुनकर नहीं लौटेगा, उसका फन शीशम के फल के समान सैकड़ों टुकड़े हो जायगा।’
धार्मिक शिरोमणि आस्तीक ऋषि ने इस प्रकार सर्प यज्ञ से सर्पों का उद्धार किया। शरीर का प्रारब्ध पूरा होने पर पुत्र-पौत्रादि को छोड़कर आस्तीक स्वर्ग चले गये। जो आस्तीक-चरित्र का पाठ या श्रवण करता है, उसे सर्पों का भय नहीं होता।