सुप्रभातम् : जीवन जीए तो ऐसे जीएं

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने एक अवधूत महात्मा को निर्भय विचरते हुए देखकर पूछा, ‘ब्राह्मण! आप कोई कर्म तो करते नहीं, फिर यह अत्यन्त निर्मल बुद्धि आपको कैसे प्राप्त हुई जिसके बल पर पूर्ण विद्वान होते हुए भी आप एक बालक के समान पृथ्वी पर विचरते हैं?

मनुष्य, आयु, यश, सौन्दर्य और धन सम्पति की ही इच्छा से धर्म, अर्थ, काम अथवा तत्व जिज्ञासा में प्रवृत होते हैं। अकारण कहीं किसी की प्रवृति इनमें नहीं देखी जाती। पर मैं देख रहा हूं कि कर्म करने में समर्थ विद्वान, निपुण और सुन्दर होते हुए भी आप जड़ और उन्मत्त के समान विचरण कर रहे हैं। संसार के अधिकांश लोग काम और लोभ के वश में होकर कष्ट पा रहे हैं। पर आप तो जीवन मुक्त प्रतीत होते हैं। कृपा कर मुझे यह बताइए कि आपको आत्मा में ही परमानन्द का अनुभव कैसे होता है?’

महात्मा ने प्रसन्न मुद्रा में उतर दिया, ‘मैंने अपनी बुद्धि से जिन अनेक गुरुओं का सहारा लिया है, उनके मूल उपदेश लेकर मैं मुक्त भाव से इस जगत मेें स्वच्छन्द घूमता हूं। मेरे गुरुओं के नाम हैं-पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतंग, भौंरा, हाथी, हिरण, मछली, पिंगला, बालक, कन्या, सर्प, मकड़ी आदि।

मैंने जो-जो इन गुरुओं से सीखा है, वह सब तुम्हें सुनाता हूं।

मैंने पृथ्वी से धैर्य और क्षमा की शिक्षा ली है। लोग पृथ्वी पर कितना आघात और उत्पात करते हैं, पर न तो यह किसी से बदला लेती है और न ही रोती-चिल्लाती है। प्राणी जाने या अनजाने में एक-दूसरे का अपकार कर ही डालते हैं। धीर पुरुष को चाहिए कि दूसरे की विवशता को समझ क रवह न तो अपना धीरज खोए और न ही किसी पर क्रोध करे। जैसे पर्वत और वृक्षों की सारी प्रवृतियां सदा ही दूसरों के लिए होती हैं। वैसे ही साधु पुरुषों को सदैव परोपकार करना चाहिए।

वायु से हमें शिक्षा मिलती है, कि जैसे वह आहार मात्र से इच्छा रखता है उसके प्राप्त हो जाने से ही संतुष्ट हो जाता है वैसे ही मनुष्य को चाहिए कि जितनी कम चीजों से काम चल सकता है उतनी ही चीजें खरीदें, उतना ही भोजन करें। वायु तो हरेक जगत जाती है, गन्दी जगह पर और अच्छी जगह पर। मगर वो उस जगह को अपने साफ हवा वहां भर जाती है। अर्थात् मनुष्य को भी अच्छे गुण अपनाने चाहिए। खराब गुण नहीं।

आकाश से हमें यह शिक्षा मिलती है कि आकाश में प्रकृति के सारे विकार होते हुए भी जैसे वह निर्लिप्त रहता है। आकाश शून्य है। उन सबसे ब्रह्म आत्मा रूप में सर्वत्र व्याप्त है। इसलिए मनुष्य को आत्मा की आकाश रूपता की भावना करनी चाहिए। जल स्वभाव से ही स्वच्छ मधुर और पवित्र है। वैसे ही मनुष्य को स्वभाव से शुभ, मधुरभाषी और लोक पावन होना चाहिए।

Uttarakhand

अग्नि तेजस्वी तथा ज्योतिर्मय होती है और उसे अपने तेज से कोई दबा नहीं सकता। जैसे उसके पास संग्रह के लिए कोई पात्र नहीं और वह सब कुछ भस्म कर डालती है। किन्तु जला देने से भी किसी वस्तु के दोषों से वह लिप्त नहीं होती। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि अपने तेजस्वी मन को वश में रखते हुए सब दोषों से दूर रहने का प्रयास करें।

चन्द्रमा की गति नहीं जानी जा सकती है। लेकिन काल के प्रभाव से उसकी कलाएं घटती-बढ़ती रहती हैं। वास्तव में न तो वह घटता है और न ही बढ़ता है। वैसे ही जैसे पूर्वजन्म से लेकर मृत्यु तक जितनी अवस्थाएं हैं, सब शरीर की ही हैं। आत्मा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है।

प्राणी को बिना किसी इच्छा या प्रयत्न के पूर्व कर्मों के अनुसार सुख-दुःख प्राप्त होते रहते हैं। अतः मनुष्य को चाहिए कि बिना मांगे दूसरों को कष्ट दिए बिना अजगर के समान उसे जीवन यापन करना चाहिए।

समुद्र की तरह मनुष्य को गम्भीर व प्रसन्न रहना चाहिए। किसी भी कारण से उसे क्रोध नहीं करना चाहिए। जैसे समुद्र वर्षा ऋतु में भी नदियों की बाढ़ के कारण बढ़ता नहीं है और न ही ग्रीष्मकाल में घटता है। इसी प्रकार मनुष्य को सांसारिक चीजों के मिलने से प्रसन्न और न मिलने से खिन्न नहीं होना चाहिए।

Uttarakhand

मछली से यह शिक्षा मिलती है कि जैसे मछली कांटे से लगे मांस के टुकड़े से अपने प्राण गंवा देती है, वैसे ही स्वाद का लोभी मनुष्य भी अपनी जीभ के वश में होकर मारा जाता है।

Uttarakhand

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *