सुप्रभातम्: व्याध ने केदार तीर्थ के दर्शन कर परम गति की प्राप्त

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

न केदारात्परं स्थानं न केदारात्परम तपः ।
न केदारोत्परों मोक्षः स्वयं देवेन भाषितम्।। (केदार कल्प)

लगभग सभी पुराणों में हिमालय क्षेत्र के तीर्थों का विशद वर्णन मिलता है। ब्रह्म पुराण में तो उत्तराखण्ड के तीर्थों का चारों युगों के क्रम से वर्णन मिलता है। पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड और उत्तर खण्ड में भी यहां के तीर्थों का वर्णन मिलता है। स्कन्द पुराणान्तर्गत केदार खण्ड में केदार हिमालय के लगभग सभी तीर्थों का उल्लेख हुआ है। केदार तीर्थ के सम्बन्ध में यहां तक कहा गया है कि केदार क्षेत्र के समान कोई क्षेत्र नहीं है।

क्षेत्राणाम् च तथा प्रोक्तं क्षेत्रं केदारसंज्ञितम् ।

केदार क्षेत्रमाख्यातं तीर्थानां तीर्थमत्तुमम् ।। (स्कन्द पुराण केदार खण्ड41/14)

केदार तीर्थ के महत्व को समझाते हुए महर्षि वेदव्यास ने पाण्डवों को केदार तीर्थ की यात्रा करने का उपदेश दिया था। महाभारत के युद्ध में गोत्र हत्या और ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने का उपाय जानने के लिए पाण्डवों ने महर्षि वेदव्यास से पूछा कि गोत्र हत्या और गुरु हत्या के पाप से मुक्ति पाने का क्या उपाय है। किन कर्मों को करने से इन पापों से मुक्ति मिल सकती है-

कैन वै कर्मणा ब्रह्मन गतिमुत्तमम् ।

तदब्रूहि कृपयाविष्टो नप्तारस्ते यतो वयम्।। (स्क. के. 40/16

महर्षि वेदव्यास ने पाण्डयों को उपदेश किया कि केदार तीर्थ गमन के बिना गोत्र हत्या के पाप से मुक्त होना सम्भव नहीं है। ब्रह्मादि देवता भी शिव दर्शन की लालसा से केदार तीर्थ की यात्रा करते हैं। इस तीर्थ में गंगा, मधुवर्णा, क्षीरवर्णा, श्वेत वर्णा, सुचिवर्णा आदि धारों में बहती है। भगवान शिव यहां गणेश आदि देवों से सेवित हैं। यहां यक्ष-राक्षस, भी गन्धवों द्वारा वाधित नाना वाद्यों की झनकार एवं वेदों की ध्वनि सुनाई में देती है। इस क्षेत्र में जो जीव शरीर त्यागता है, वह निश्चय ही शिवलोक को प्राप्ति करता है। अनेक तीर्थों से युक्त यह केदार तीर्थ मोक्ष को देने वाला है। इस प्रकार केदार तीर्थ माहात्म्य को सुनकर महर्षि वेदव्यास ने पाण्डवों को उपदेश किया कि ब्रह्म हत्या निवारण हेतु तुम केदार तीर्थ की यात्रा करो-

गच्छध्वं त्रिदशस्थानं महापथसमीरितम् ।

एतदेव परं स्थानं ब्रह्महत्या निवारणम्।। (स्क. पु. के. 40/24)

केदार तीर्थ में केदारलिंग के दर्शन एवं स्पर्श से पाण्डव गोत्र हत्या एवं गुरु हत्या के पाप से मुक्त हो गए। तत्पश्चात् उन्होंने महापथ की ओर प्रस्थान किया।

पार्वती जी के प्रश्न करने पर कि सबसे उत्तम तीर्थ हिमालय में कौन सा है ? शंकर जी स्वयं कहते हैं कि समस्त तीर्थों में केदार तीर्थ अपूर्व है, जो मन की कामना को पूर्ण करने वाला है और क्षेत्रों में परम क्षेत्ररूप यह केदार उत्तम तीर्थ है-

अपूर्व सर्वतीर्थानां मनसोऽभीष्टदायकम् ।
क्षेत्रं तु परमं देवि केदारं तीर्थमुत्तमम्।। (केदार क. सप्तमः पटलः)

तीर्थ जल में केदार तीर्थ का जल सबसे उत्तम माना गया है। जैसे दधि का सार ‘घी’ हैं, पुष्पों का सार ‘मधु’ हैं, वेदों का सार ‘सामवेद’ है। वैसे ही, तीर्थों में केदार तीर्थ और केदार जल है। जिसका पान करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त होकर रुद्रलोक को प्राप्त होता है। मनुष्य को अन्य तीर्थों में वैसी गति नहीं मिलती, जैसी यह गति केदार तीर्थ में मिलती है। सहस्त्र जन्मों में यज्ञ करने वाले को जो फल मिलता है, वह फल केदार तीर्थ में जलपान करने वाले को आसानी से सुलभ हो जाता है। केदार तीर्थ में जो मनुष्य उदक (जल) पान करता वह तीनों काल में देवताओं के सहित भोगों को भोगता है । सहस्त्र जन्मों से यज्ञ करने वाले को ऐसी गति नहीं मिलती, जैसी गति केदार तीर्थ में मिलती है-

न लभ्यते गतिर्मत्यैः केदारेण तु या भवेतः ।
जन्मान्तर सहस्त्रेषु यत्फलं यज्ञयाजिनाम् ।।
केदारोदकपानेन तत्फलं परिकीर्तितम्।
त्रिकालं परिभुंजानः क्रीडते त्रिदशैरपि ।। (के. कल्प नवम पटल)

स्कन्द पुराणान्तर्गत केदार खण्ड के अध्याय 41 में एक सुन्दर – आख्यान आया है कि पूर्व काल में एक व्याध हमेशा मृग का आखेट करता था और उसका मांस बिक्री कर अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। एक बार वह व्याध मृग की खोज के लिए वन में गया और और चलते-चलते केदारवन में पहुंच गया। वहां वन में मुनिगण विचरण किया करते थे। केदार क्षेत्र के गिरि श्रृंगों में मुनिश्रेष्ठ नारद जी भी विचरण किया करते थे।

इसी दौरान उस व्याध ने समझा कि यह कोई दिव्य कांचन मृग है। इसका वध करने से स्वर्ण की प्राप्ति होगी। इस प्रकार चिन्तन करते हुए व्याध ने ज्यों ही धनुष पर बाण चढ़ाया और सन्धान करना चाहा, त्यों ही भगवान सूर्यदेव अस्त हो गये। जब व्याध को कुछ नहीं दिखाई दिया तो वह देखता है एक मेढ़क सर्प को ग्रस रहा है। सर्प को ग्रस कर वह महाकाय दिखाई दे रहा था। व्याध है। मंडूक के गले में सर्प का जनेऊ भी देखा।

शीश में जटाजूट और अर्द्धचंद्र की शोभा भी देखी। उसको वह क्षेत्र कैलाश के सदृश्य भासमान हो रहा था और शिव के गण भी वहां नृत्य करते हुए दिखाई दे रहे थे। इस परम आश्चर्य को देखकर व्याध सोचने लगा कि यह कैसा दृश्य देखने में आ रहा है? ‘सर्पोवेष्ठित मेंढक और फिर वृषभ पर सवार भगवान शिव ! क्या मैं स्वप्न तो नहीं देख रहा हूं? या सचमुच में ये दृश्य मेरे सामने दृष्टिगोचर हो रहे हैं? या यह कोई भूत-माया तो नहीं है। अब मैं किधर जाऊं, कया करूं? इस महावन में मेरी रक्षा भी कौन करेगा? इस प्रकार चिन्ता मग्न होकर वह व्याध तत्क्षण पलायन करने की सोच रहा था कि उसके सामने एक दृश्य और आया एक व्याध ने एक मृग का वध कर दिया। उस मरे हुए मृग को उसने पंचमुखी शिव के रूप में देखा जिसके तीन नेत्र है, सर्पों का यज्ञोपवीत है। उसने यह भी देखा कि वह वध किया हुआ मृग, शिव रूप धारण कर वृषभ में सवार है।

इस अपूर्व दृश्य को देखकर व्याध और भी आश्चर्य चकित हो गया। यह सब क्या हो रहा है, इस प्रकार चिन्तन करते हुए व्याध देखता है कि वह तो देवर्षि नारद हैं। मनुजाकार रूप में नारद जी को देखकर वह भयातुर होने लगा। तब नारद जी ने व्याध की ओर देखते हुए कहा-‘यहाँ वन में साधु-महात्मा विचरण करते हैं। हे व्याध! तुम धन्य हो, जो उत्तम तीर्थ में आये हो और ऐसा शुभ दर्शन जो तुमने देखा है, वह बताओं के लिए भी दुर्लभ है। हे व्याध ! तुम भी साधु ही हो।

भगवान शिव के परम आश्चर्य रूप का दर्शन, जो तुमको मिला है, शिव लोक की प्राप्ति कराने वाला है। इस माहात्म्य को जो जीव श्रवण करेगा, वह निश्चय ही ध्रुवलोक को प्राप्त होगा’। यह सुनकर व्याध ने भूमिष्ठ होकर नारद जी को प्रणाम किया और अपने को धन्य माना। व्याध ने गद्गद् भाव से नारद जी से कहा-हे नारद जी ! आपके दर्शन प्राप्त कर मैं यह कृत्य-कृत्य हो गया हूं। आपके मुखारविन्द से यह कथामृत सुनकर मैं भवसागर से पार हो जाऊंगा। इस प्रकार उस व्याध ने व्याध कर्म को त्याग कर दिया और अन्त में परम गति प्राप्त की। (स्कन्ध पु. के. ख. अ. 41/53)

केदारतीर्थ के माहात्म्य को देखते हुए न जाने किस काल से यात्री ते हुए चुम्बक पर लौह की तरह खींचे आ रहे हैं। युग-युगान्तरों से यह केदार यों ही तीर्थ सनातन धर्मावलम्बियों के विश्वास और आस्था का केंद्र बना हुआ है।

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