सुप्रभातम्: वो चमत्कारी योगी जिन्हें काशी का शिव कहा जाता था, इनके पास थीं कई आध्यात्मिक शक्तियां

काशी के शिव के नाम से मशहूर त्रैलंग स्वामी एक अद्भुत योगी थे। इनके पास चमत्कारी शक्तियां थीं और ये आध्यात्मिक ज्ञान से परिपूर्ण थे। त्रैलंग स्वामी के बारे में जो बात सबसे ज्यादा हैरान करती है वो है 300 साल की इनकी उम्र।


हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

भारत सिद्ध पुरुषों की भूमि रही है। यहाँ एक से बढ़ कर एक संत और योगी हुए हैं। किसी ने अपनी निश्छल भक्ति से लोगों के दिलों में जगह बनाई, तो किसी की चर्चा चमत्कारों के कारण खूब हुई। किसी ने ऐसी रचनाएँ की कि सैकड़ों वर्षों तक लोग उन्हें पढ़ते रहे तो किसी ने योग की ऐसी सिद्धि प्राप्त की कि उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं रहा। इन्हीं में से एक थे त्रैलंग स्वामी, जिन्हें स्वयं रामकृष्ण परमहंस ने ‘काशी के चलते-फिरते शिव’ कहा था। उनके चमत्कारों की चर्चा तब आम थी।

त्रैलंग स्वामी को गणपति सरस्वती के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा काशी में ही गुजारा। आश्चर्यजनक बात ये है कि ये लगभग 280 वर्षों तक जीवित रहे। सन् 1737 से लेकर 1887 तक इन्होंने वाराणसी को अपना निवास स्थान बनाया। इनके पिता का नाम नृसिंह राव तो माता का नाम विद्यावती था। 52 वर्ष की उम्र तक ये अपने माता-पिता की सेवा में ही लगे रहे, उन दोनों के निधन के बाद वो आध्यात्मिक खोज के लिए निकले।

वो एक अन्य सिद्ध योगी लाहिड़ी महाशय के परम मित्र बने। दोनों योगियों को कई बार साथ में ध्यान में बैठे देखा गया था। त्रैलंग स्वामी को कई बार धोखे से विष दे दिया गया, लेकिन उन्हें इससे कभी कोई नुकसान नहीं हुआ। वो अक्सर गंगा नदी की बहती धारा पर बैठ कर साधना करते दिखाई देते थे। इतना ही नहीं, त्रैलंग स्वामी कई बार गंगा की धारा के भीतर भी घुस जाते थे और कई दिनों बाद किसी अन्य स्थान पर निकलते थे। भीषण गर्मी में भी मणिकर्णिका घाट की तपती शिलाओं पर बैठ तपस्या करते थे।

महायोगी त्रैलंग स्वामी ने संसार की सारी मोह-माया के साथ कपड़ों तक का त्याग कर दिया। शरीर की लज्जा ढकने तक के लिए उसे कपड़ों की ज़रूरत नहीं रह गई थी। बचपन से लेकर देहावसान तक, उनके चमत्कारों की कई कहानियां मौजूद हैं, जिनका कोई तर्क खोज पाना साधारण मनुष्यों के बस के बाहर की बात है।

कठिन योगसाधना से सिद्धि हासिल कर त्रैलंग स्वामी उन दिनों प्रयाग में थे। भीषण गर्मी की शाम थी। आसमान में घने काले बादल छाए हुए थे। रह-रहकर बिजली चमकने और वज्रपात की आवाज़ थर्रा दे रही थी। तभी संगम पर जोर का तूफान आया। रामतारण भट्टाचार्य नामक एक भक्त ने देखा कि जब हर कोई भीतर दुबका हुआ है, महायोगी त्रैलंग स्वामी भयानक तूफान के बीच अकेले बैठे हुए थे। रामतारण दौड़कर वहां गए और स्वामीजी से सुरक्षित स्थान पर चलने के लिए हाथ जोड़कर अनुरोध किया। त्रैलंग स्वामी ने मुस्कराते हुए कहा, ‘मेरी बात छोड़ो, उस नाव को देखो, डूबने से बचने के लिए किस तरह संघर्ष कर रही है।’

रामतारण भट्टाचार्य ने देखा कि यात्रियों को लिए एक नाव नदी के बीच हिचकोले खा रही थी, किसी भी पल वह डूब सकती थी। और हुआ भी यही। आंधी के एक तेज़ झोंके ने सचमुच यात्रियों समेत नाव को डुबो दिया। बेबस यात्रियों की चीख-पुकार बादलों की गर्जना और हवा के झोंकों के शोर में खो गई।

रामतारण से यह दृश्य सहन नहीं हुआ। दोनों हाथों से मुंह ढके हुए, कुछ करने की गुहार लगाते हुए वह स्वामीजी के चरणों में गिर पड़े। लेकिन, स्वामीजी तो वहां थे ही नहीं। कहां गायब हो गए पल भर में? रामतारण बाबू को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। वह पागलों की तरह घाट की ओर दौड़े।

घाट के पास पहुंचकर वह अवाक रह गए। उन्होंने देखा कि कुछ देर पहले जो नाव नदी के जल में समा गई थी, वह सभी यात्रियों को सुरक्षित लेकर चली आ रही है। और उन्हीं यात्रियों के बीच खड़े हैं विशाल शरीर वाले महासाधक त्रैलंग स्वामी। उनसे जुड़ी इस तरह की कहानियां आज कपोल कल्पना लगती हैं, लेकिन उनके भक्तों के लिए यह बहुत सहज-स्वाभाविक था।

त्रैलंग स्वामी के लिए आम आदमी, जमींदार, राजा-महाराजा- सब एक समान थे। वाराणसी में उज्जयिनी के महाराज के साथ त्रैलंग स्वामी की मुलाकात की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं। उस समय उज्जयिनी के महाराज अपने पूरे लाव- लश्कर के साथ तीर्थ करने वाराणसी आए हुए थे। गंगा की धारा में उनका विलासितापूर्ण बजड़ा तैर रहा था। एक दिन तड़के बजड़े में बैठकर वह गंगा की शोभा निहार रहे थे।

तभी उनकी नज़र दूर पानी में उतराती एक लाश पर पड़ी। गंगा के पानी में विशाल शरीर साफ़ दिख रहा था। बजड़ा जब उस शरीर के पास पहुंचा, तो राजा को लगा कि उसमें अब भी प्राण हैं। राजा के निर्देश पर नदी में उतराती देह को बजड़े पर खींचा गया। राजा के एक-दो सेवक स्वामीजी को पहचानते थे। उन्होंने राजा को बताया कि ये महायोगी त्रैलंग स्वामी हैं, जो योगबल से किसी शव की तरह घंटों पानी में उतराते रह सकते हैं। राजा ने स्वामीजी को भक्तिभाव से प्रणाम किया।

अचानक महायोगी आंखें खोल उठ खड़े हुए और राजा की तरफ देखा। फिर राजा की कमर से तलवार खींच ली और उसे गंगा में फेंक दिया। इस हरकत पर राजा आगबबूला हो उठे। उन्हें यह तलवार अंग्रेज़ सरकार ने दी थी। सम्मान की निशानी के रूप में। गुस्साए राजा ने कहा, ‘इस नंगे संन्यासी को इसकी कड़ी सजा दी जाएगी।’

यह सुनकर योगी किसी बच्चे की तरह खिलखिला कर हंस उठे। पलक झपकते ही वह गंगा में कूद पड़े और हूबहू एक जैसी दो तलवारें लेकर हाजिर हुए। राजा से कहा, ‘इनमें से जो तेरी तलवार है, उसे उठा ले।’

राजा हैरत में पड़ गए। बहुत कोशिश के बाद भी वह अपनी तलवार पहचान नहीं पा रहे थे। ठहाका लगाकर हंस रहे त्रैलंग स्वामी ने असली तलवार राजा के हाथ में रखते हुए नकली तलवार पानी में फेंक दी। फिर बोले, ‘जान ले, इस पृथ्वी पर तेरा कुछ भी अपना नहीं है, इसलिए यहां मनुष्य के लिए अहंकार करने जैसा कुछ भी नहीं।’ अपनी बात पूरी करने के बाद महायोगी त्रैलंग स्वामी ने हंसते-हंसते गंगा में छलांग लगा दी। गंगा की तेज़ धारा उन्हें बहाकर कहीं और ले गई, किसी और चमत्कारिक कहानी के लिए।

तैलंग स्वामी से मिलने आए महान आध्यात्मिक विभूतियां

तैलंग स्वामी सिद्धियों के स्वामी थे। लोकनाथ ब्रह्मचारी, बेनीमाधव ब्रह्मचारी, रामकृष्‍ण परमहंस, विवेकानंद, महेंद्रनाथ गुप्‍त, लाहिड़ी महाशय, स्‍वामी अभेदानंद, प्रेमानंद, भास्‍करानंद, विशुद्धानंद और साधक बापखेपा आदि जैसी महान आध्‍यात्मिक विभूतियां वाराणसी में इनसे मिलने आईं।

सारे तीर्थ हैं शरीर में

तैलंग स्वामी का मानना था कि ईश्वर को तलाशना है तो अपने भीतर तलाश करो। गंगा नासापुटा में, यमुना मुख में, बैकुण्ठ हृदय में, वाराणसी ललाट में और हरिद्वार नाभि में है। जब सारे तीर्थ शरीर में ही हैं तो फिर यहां-वहां क्यों भटका जाए। तैलंग स्वामी मानते थे कि, जिस पुरी में प्रवेश करने में कोई संकोच या कुण्ठा न हो, वही बैकुण्ठ है।

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