हिमशिखर धर्म डेस्क
मार्कण्डेयजी ने कहा–‛कुरुवंशी क्षत्रियों में एक सुहोत्र नामक राजा हुए थे। एक दिन वे महर्षियों का सत्संग करने गये। जब वहाँ से लौटे तो रास्ते में अपने सामने की ओर से उन्होंने उशीनरपुत्र राजा शिबि को रथ पर आते देखा।
निकट आने पर उन दोनों ने अवस्था के अनुसार एक-दूसरे का सम्मान किया; परन्तु गुण में अपने को बराबर समझकर एक ने दूसरे के लिये राह नहीं दी। इतने ही में वहाँ नारदजी आ पहुँचे। नारदजी ने पूछा–‛यह क्या बात है ? तुम दोनों एक-दूसरे का मार्ग रोककर क्यों खड़े हो ?
वे बोले–‛मार्ग अपने से बड़े को दिया जाता है। हम दोनों तो समान हैं, अतः कौन किसको मार्ग दे ?’
यह सुनकर नारदजी ने तीन श्लोक पढ़े, जिनका सारांश यह है–‛कौरव! अपने साथ कोमलता का बर्ताव करने वाले के लिये क्रूर मनुष्य भी कोमल बन जाता है। क्रूरता तो वह क्रूरों के प्रति ही दिखाता है। परन्तु साधु पुरुष दुष्टों के साथ भी साधुता का ही बर्ताव करता है; फिर वह सज्जनों के साथ साधुता का बर्ताव कैसे नहीं करेगा ?
अपने ऊपर एक बार किये हुए उपकार का बदला मनुष्य भी सौगुना करके चुका सकता है। देवताओं में ही यह उपकार का भाव होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस उशीनरकुमार राजा शिबि का व्यवहार तुमसे अधिक अच्छा है।
नीच प्रकृति वाले मनुष्य को दान देकर वश में करे, झूठे को सत्यभाषण से जीते, क्रूर को क्षमा से और दुष्ट को अच्छे व्यवहार से अपने वश में करे। अतः तुम दोनों ही उदार हो; अब तुममें से एक जो अधिक उदार हो, वह मार्ग छोड़ दे।’
ऐसा कहकर नारदजी मौन हो गये। यह सुनकर कुरुवंशी राजा सुहोत्र शिबि को अपनी दायीं ओर करके उनकी प्रशंसा करते हुए चले गये। इस प्रकार नारदजी ने राजा शिबि का महत्त्व अपने मुख से कहा है।
अब एक दूसरे क्षत्रिय राजा का महत्त्व सुनो। नहुष के पुत्र राजा ययाति जब राजसिंहासन पर विराजमान थे, उन्हीं दिनों एक ब्राह्मण गुरुदक्षिणा देने के लिये भिक्षा माँगने की इच्छा से उनके पास आकर बोला–‛राजन्! मैं गुरु को दक्षिणा देने के लिये प्रतिज्ञा करके आया हूँ, भिक्षा चाहता हूँ।
संसार में अधिकांश मनुष्य माँगने वालों से द्वेष करते हैं। अतः तुमसे पूछता हूँ कि क्या तुम मेरी अभीष्ट वस्तु दे सकोगे ?’
राजा बोले–‛मैं दान देकर उसका बखान नहीं करता; जो वस्तु देने योग्य है, उसको देकर अपना मुख उज्ज्वल करता हूँ। मैं तुम्हें एक हजार लाल रंग की गौएँ देता हूँ, क्योंकि न्याययुक्त याचना करने वाला ब्राह्मण मुझे बहुत प्रिय है। याचना करने वाले पर मुझे क्रोध नहीं होता और कोई धन दान में देकर मैं उसके लिये कभी पश्चात्ताप भी नहीं करता।’
ऐसा कहकर राजा ने ब्राह्मण को एक हजार गौएँ दीं और उन्होंने वह दान स्वीकार किया।
मार्कण्डेयजी कहते हैं–‛युधिष्ठिर ! एक समय देवताओं ने आपस में सलाह की कि पृथ्वी पर चलकर उशीनर के पुत्र राजा शिबि की साधुता की परीक्षा करें। तब अग्नि कबूतर का रूप बनाकर चला और इन्द्र ने बाज पक्षी होकर मांस के लिये उसका पीछा किया।
राजा शिबि अपने दिव्य सिंहासन पर बैठे हुए थे, कबूतर उनकी गोद में जा गिरा। यह देखकर राजा के पुरोहित ने कहा–‛राजन् ! यह कबूतर बाज के डर से अपने प्राण बचाने के लिये आपकी शरण में आया है।’
कबूतर ने भी कहा–‛महाराज ! बाज मेरा पीछा कर रहा है, उससे डरकर प्राणरक्षा के लिये आपकी शरण में आया हूँ। वास्तव में मैं कबूतर नहीं, ऋषि हूँ; मैंने एक शरीर से दूसरा शरीर बदल लिया था। अब प्राणरक्षक होने के कारण आप ही मेरे प्राण हैं; मैं आपकी शरण हूँ, मुझे बचाइये।
मुझे ब्रह्मचारी समझिये; वेदों का स्वाध्याय करके मैंने अपना शरीर दुर्बल किया है, मैं तपस्वी और जितेन्द्रिय हूँ। आचार्य के प्रतिकूल कभी कोई बात नहीं कहता। मैं सर्वथा निष्पाप और निरपराध हूँ, अतः मुझे बाज के हवाले न करें।’
अब बाज बोला–‛राजन् ! आप इस कबूतर को लेकर मेरे काम में विघ्न न डालें।’
राजा कहने लगे–‛ये बाज और कबूतर जितनी शुद्ध संस्कृत-वाणी बोलते हैं, वैसी क्या कभी किसी ने पक्षी के मुख से सुनी है ? मैं किस प्रकार इन दोनों का स्वरूप जानकर उचित न्याय करूँ ? जो मनुष्य अपनी शरण में आये हुए भयभीत प्राणी को उसके शत्रु के हाथ में दे देता है, उसके देश में समय पर अच्छी वर्षा नहीं होती, उसके बोये हुए बीज नहीं जमते और वह कभी संकट के समय जब अपनी रक्षा चाहता है। तो उसे कोई रक्षक नहीं मिलता।
उसकी सन्तान बचपन में ही मर जाती है, उसके पितरों को पितृलोक में रहने को स्थान नहीं मिलता। वह स्वर्ग में जाने पर वहाँ से नीचे ढकेल दिया जाता है, इन्द्र आदि देवता उसके ऊपर वज्र का प्रहार करते हैं। इसलिये मैं प्राण त्याग कर दूँगा, पर कबूतर नहीं दूँगा।
बाज ! अब तुम व्यर्थ कष्ट मत उठाओ। कबूतर को तो मैं किसी तरह नहीं दे सकता। इस कबूतर को देने के सिवा और जो भी तुम्हारा प्रिय कार्य हो, वह बताओ; उसे मैं पूर्ण करूँगा।’
बाज बोला–‛राजन्! अपनी दायीं जाँघ से मांस काटकर इस कबूतर के बराबर तौलो और जितना मांस चढ़े, वही मुझे अर्पण करो। ऐसा करने पर कबूतर की रक्षा हो सकती है।’
तब राजाने अपनी दायीं जंघा से मांस काटकर उसे तराजूपर रखा, किन्तु वह कबूतर के बराबर नहीं हुआ। फिर दूसरी बार रखा तो भी कबूतर का ही पलड़ा भारी रहा। इस प्रकार क्रमशः उन्होंने अपने सभी अंगों का मांस काट-काट कर तराजू पर चढ़ाया, फिर भी कबूतर ही भारी रहा। तब राजा स्वयं ही तराजूपर चढ़ गये। ऐसा करते समय उनके मन में तनिक भी क्लेश नहीं हुआ। यह देखकर बाज बोल उठा–‛हो गयी कबूतर की रक्षा!’ और वहीं अन्तर्धान हो गया।
अब राजा शिबि कबूतर से बोले–’कपोत ! वह बाज कौन था ?’
कबूतर ने कहा–‛‘वह बाज साक्षात् इन्द्र थे और मैं अग्नि हूँ। राजन् ! हम दोनों तुम्हारी साधुता देखने के लिये यहाँ आये थे। तुमने मेरे बदले में जो यह अपना मांस तलवार से काटकर दिया है, इसके घाव को मैं अभी अच्छा कर देता हूँ। यहाँ की चमड़ी का रंग सुन्दर और सुनहला हो जायगा तथा इससे बड़ी पवित्र एवं सुन्दर गन्ध निकलती रहेगी। तुम्हारी जंघा के इस चिह्न के पास से एक यशस्वी पुत्र उत्पन्न होगा, जिसका नाम होगा ‛कपोतरोमा।’
यह कहकर अग्निदेव चले गये। राजा शिबि से कोई कुछ भी माँगता, वे दिये बिना नहीं रहते थे। एक बार राजा के मन्त्रियों ने उनसे पूछा–‛महाराज ! आप किस इच्छा से ऐसा साहस करते हैं ? अदेय वस्तु का भी दान करने को उद्यत हो जाते हैं। क्या आप यश चाहते हैं ?’
राजा बोले–‛नहीं, मैं यश की कामना से अथवा ऐश्वर्य के लिये दान नहीं करता। भोगों की अभिलाषा से भी नहीं। धर्मात्मा पुरुषों ने इस मार्ग का सेवन किया है, अतः मेरा भी यह कर्तव्य है–ऐसा समझकर ही मैं यह सब कुछ करता हूँ। सत्पुरुष जिस मार्ग से चले हैं, वही उत्तम है–यही सोचकर मेरी बुद्धि उत्तम पथ का ही आश्रय लेती है।
मार्कण्डेयजी कहते हैं–‛इस प्रकार महाराज शिबि के महत्त्व को मैं जानता हूँ, इसलिये मैंने तुमसे उसका यथावत् वर्णन किया है।’
महाराज युधिष्ठिर पूछते हैं–‛मुनिवर ! मनुष्य किस अवस्था में दान देने से इन्द्रलोक में जाकर सुख भोगता है ? तथा दान आदि शुभकर्मों का भोग उसे किस प्रकार प्राप्त होता है ?
जो वानप्रस्थ या संन्यास आश्रम से पुनः गृहस्थ आश्रम में लौट आया हो, उसको दिया हुआ दान तथा अन्याय से कमाये हुए धन का दान व्यर्थ है।
इसी प्रकार पतित मनुष्य, चोर, ब्राह्मण, मिथ्यावादी गुरु, पापी, कृतघ्न, ग्रामयाजक, वेद का विक्रय करने वाले, शूद्र से यज्ञ कराने वाले, आचारहीन ब्राह्मण, शूद्रा के पति एवं स्त्रीसमूह को दिया हुआ दान भी व्यर्थ है। इन दानों का कोई फल नहीं होता। इसलिये सब अवस्थाओं में सब प्रकार के दान उत्तम ब्राह्मणों को ही देने चाहिये।
युधिष्ठिर बोले–‛हे मुने! ब्राह्मण किस विशेष धर्म का पालन करें, जिससे वे दूसरों को भी तारें और स्वयं भी तर जायँ ?’
मार्कण्डेयजी ने कहा–‛ब्राह्मण जप, मन्त्र, पाठ, होम, स्वाध्याय और वेदाध्ययन के द्वारा वेदमयी नौका का निर्माण करते हैं, जिसके सहारे वे दूसरों को भी तारते हैं और स्वयं भी तर जाते हैं। जो ब्राह्मणों को संतुष्ट करता है, उस पर समस्त देवता प्रसन्न होते हैं।
श्राद्ध में प्रयत्न करके उत्तम ब्राह्मणों को ही भोजन कराना चाहिये। जिनके शरीर का रंग घृणा उत्पन्न करता हो, जिनके नख गन्दे रहते हों, जो कोढ़ी और कपटी हों, पिता की जीवितावस्था में जो माता के व्यभिचार से उत्पन्न हुए हों अथवा जिनका जन्म विधवा माता के गर्भ से हुआ हो और जो पीठ पर तरकस बाँधे क्षत्रियवृत्ति से जीविका चलाते हों–ऐसे ब्राह्मणों को श्राद्ध में यत्नपूर्वक त्याग दे।
क्योंकि उनको जिमाने से श्राद्ध निन्दित हो जाता है और निन्दित श्राद्ध यजमान को उसी प्रकार नष्ट कर देता है, जैसे अग्नि काष्ठ को जला डालती है। किन्तु हे राजन् ! अंधे, गूँगे, बहरे आदि जिनको शास्त्र में वर्जित बतलाया है, उनको वेदपारंगत ब्राह्मण के साथ श्राद्ध में निमन्त्रण दे सकते हैं।
युधिष्ठिर ! अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि कैसे व्यक्ति को दान देना चाहिये। जो सम्पूर्ण शास्त्रों का विद्वान् हो और अपने को तथा दाता को तारने की शक्ति रखता हो, ऐसे ब्राह्मण को दान देना चाहिये। अतिथियों को भोजन देने का भी बहुत बड़ा महत्त्व है। उन्हें भोजन कराने से अग्निदेव जितने सन्तुष्ट होते हैं, उतना सन्तोष उन्हें हविष्य का हवन करने और फूल एवं चन्दन चढ़ाने से भी नहीं होता। अतः तुम्हें अतिथियों को भोजन देते रहने का सदा ही प्रयत्न करना चाहिये।
जो लोग दूर से आये हुए अतिथि को पैर धोने के लिये जल, उजाले के लिये दीपक, भोजन के लिये अन्न और रहने के लिये स्थान देते हैं, उन्हें कभी यमराज के पास नहीं जाना पड़ता। कपिला गौ का दान करने से मनुष्य निस्संदेह सब पापों से मुक्त हो जाता है; अतः अच्छी तरह सजायी हुई कपिला गौ ब्राह्मण को दान करनी चाहिये।
दानपात्र ब्राह्मण श्रोत्रिय हो, नित्य अग्निहोत्र करता हो। दरिद्रता के कारण जिन्हें स्त्री और पुत्रों के तिरस्कार सहने पड़ते हों तथा जिनसे अपना कोई उपकार न होता हो, ऐसे लोगों को ही गौ दान करनी चाहिये, धनवानों को नहीं।
एक बात और ध्यान रखने की है। एक गौ एक ही ब्राह्मण को देनी चाहिये, बहुत-से ब्राह्मणों को नहीं; क्योंकि एक ही गौ यदि बहुतों को दी गयी तो वे उसे बेचकर उसकी कीमत बाँट लेंगे। दान की हुई गौ यदि बेची जायगी तो वह दाता की तीन पीढ़ी तक को हानि पहुँचावेगी। जो लोग कंधे पर जुआ उठाने में समर्थ बलवान् बैल ब्राह्मण को दान करते हैं, दुःख और क्लेशों से मुक्त होकर स्वर्गलोक को जाते हैं।
जो विद्वान् ब्राह्मण को भूमि दान करते हैं, उन दाताओं पास सभी मनोवांछित भोग अपने-आप पहुँच जाते हैं। अन्नदान का महत्त्व तो सबसे बढ़कर है। यदि कोई दीन-दुर्बल पथिक थका-माँदा, भूखा-प्यासा, धूल भरे पैरों से आकर किसी से पूछे–‛क्या कहीं अन्न मिल सकता है ?’ और कोई उसे अन्नदाता का पता बता दे तो उस मनुष्य को भी अन्नदान का ही पुण्य मिलता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है।
इसलिये युधिष्ठिर ! तुम अन्य प्रकार के दानों की अपेक्षा अन्नदान पर विशेष ध्यान दिया करो। क्योंकि इस जगत् में अन्नदान के समान अद्भुत पुण्य और किसी दान का नहीं है। जो अपनी शक्ति के अनुसार ब्राह्मण को उत्तम अन्नदान करता है, वह उस पुण्य के प्रभाव से प्रजापतिलोक को प्राप्त होता है।
वेदों में अन्न को प्रजापति कहा है, प्रजापति संवत्सर माना गया है। संवत्सर यज्ञरूप है और यज्ञ में सबकी स्थिति है। यज्ञ से ही समस्त चराचर प्राणी उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार अन्न ही सब पदार्थों में श्रेष्ठ है। जो लोग अधिक पानी वाले तालाब या पोखरे खुदवाते हैं, बावली और कुएँ बनवाते हैं, दूसरों के रहने के लिये धर्मशालाएँ तैयार कराते हैं, अन्न का दान करते और मीठी वाणी बोलते हैं, उन्हें यमराज की बात भी नहीं सुननी पड़ती।
वैशम्पायनजी कहते हैं–‛यमराज का नाम सुनकर भाइयों सहित धर्मराज युधिष्ठिर के मन में बड़ा कौतूहल हुआ और उन्होंने महात्मा मार्कण्डेयजी से इस प्रकार प्रश्न किया–‛मुनिवर ! अब यह बताइये कि इस मनुष्यलोक से यमलोक कितनी दूरी पर है, कैसा है, कितना बड़ा है और क्या उपाय करने से मनुष्य उससे बच सकता है।’