श्रीराम शर्मा आचार्य
एक बार परमहंस स्वामी रामतीर्थ जापान गए। उन्होंने सोचा कि यह जापान थोड़े ही समय में इतना सम्पत्तिवान-लक्ष्मीवान कैसे हो गया? यह जानने के लिए स्वामी रामतीर्थ जापान गए। जापान एशिया में सबसे बड़ा दौलतमंद देश था। अमेरिका तो ”फर्स्ट वर्ल्डवार” तथा सेकंड वर्ल्डवार अर्थात प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद संपत्तिवान हुआ, परंतु प्रथम विश्वयुद्ध के पहले जापान ही एक देश था, जो दौलतमंद था। जापान कैसे मालदार हुआ, यह देखने वे गए। वहाँ वे एक कारखाने का निरीक्षण करने लगे। उन्होंने देखा कि वहां के लोग ईश्वर की आराधना करते हैं। देखा कि एक ओर मशीनों से तेल टपक रहा है तथा दूसरी ओर श्रमिकों के शरीरों से पसीना टपक रहा है। यह देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए और समझ गए कि यही कारण है, जिससे जापान के लोग संपत्तिवान हो गए।
सन् १९२१ से पहले की बात है। वहाँ के लोग श्रम के कारण सारी दुनिया की संपत्ति अपने यहाँ इकट्ठा कर लेना चाहते थे। हमें याद है कि उस जमाने में जापान की साइकिल भारत में २२ रुपए में मिलती थी, जिसमें भारत के जापान से लाने में १० रुपए खरच होते थे। वह सारी दुनिया में इतनी बिकती थी कि इसके कारण जापान एशिया में मालदार हो गया। वह छोटा सा देश दुनिया में सबसे मालदार यानि भौतिक दृष्टि से महान बनना चाहता था।
स्वामी रामतीर्थ ने देखा तो यह पाया कि वहाँ के श्रमिक प्रात: ४ बजे से शाम के ६ बजे तक श्रम करते हैं। बच्चे, पत्नी एवं घर के सभी लोग वहाँ छह घंटे अवश्य श्रम करते हैं, जिसके कारण वह देश दौलतमंद है। आप श्रम करेंगे, तो आपकी भौतिक उन्नति होगी।
भौतिक उन्नति कैसे हो सकती है, यह केवल पूजा-पाठ से नहीं हो सकती है। यह आध्यात्मिक विषय है। देवता का काम दौलत बाँटना नहीं है। श्रम के देवता का काम धन देना है। आप रेलवे स्टेशन पर जाएँ और यह कहें कि बाबू जी हमें चिपकाने वाला टिकट दे दीजिए। अरे! आपको यह भी नहीं मालूम कि कौन सी चीज कहाँ मिलती है? आपको चिपकाने वाली टिकट डाकघर में मिलेगी। रेल से सफर करने का टिकट रेलवे स्टेशन पर मिलेगा। यानी, ईश्वर आराधना के साथ ही श्रम करना भी जरूरी है।