हिमशिखर धर्म डेस्क
महाभारत के युद्ध का निश्चय हो जाने पर दोनों ही पक्ष भगवान श्रीकृष्ण के पास युद्द में सहायता प्राप्त करने के लिए पहुंचे थे।आज दुर्योधन रुपी सांसारिक व्यक्ति और भक्ति अनुरागी रूपी अर्जुन श्री कृष्ण के पास पहुँचे है। भगवान योगनिद्रा में है। अर्जुन उनके चरणों में खड़ा है ओर दुर्योधन उनके मस्तक की तरफ खड़ा है। देखो भक्त तो भगवान के चरणों में ही रहता है। उधर सांसारिक व्यक्ति स्वयं को अहंकार में सदैव स्वयं को बड़ा समझता है।
प्रभु की आँख खुली, दृष्टि गयी अर्जुन पर। देखो, भगवान की दृष्टि तो सदैव भक्तों पर ही रहेगी। पहले उन्ही को प्राथमिकता मिलेगी। सांसारिक व्यक्ति तो बाद में है।
भगवान अर्जुन से पूछे कि बताओ तुम्हे क्या चाहिए? क्या लेने आये हो?
अब यहाँ दो विकल्प है। एक तरफ नारायण है तो दूसरी तरफ नारायणी। भगवान की सेना ही नारायणी है। देखो, यहाँ एक तो स्वयं साक्षात नारायण है और दूसरी तरफ है उनकी माया जिसे नारायणी कहा है। नारायणी माने जो नारायण की हो। आपके पास जो भी है, मकान, दुकान, धन, बल, पद, प्रतिष्ठा, और इस लोक और परलोक के जितने भी सुख साधन हैं, वह ही नारायणी सेना है।
भगवान ने कह दिया कि दोनो में से एक ही मिल सकता है। जिसके पास नारायणी रहेगी उसके पास मैं नही और जिसके पास मैं रहूँगा उसके साथ नारायणी नही। देखो, यहाँ जिसको माया चाहिए उसे भगवान मिलेंगे कैसे? और जिसे भगवान चाहिए उसके माया किस काम की?
अर्जुन तपाक से बोल उठा, नारायण को मांग लिया। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से फिर कहा कि मैं युद्ध नहीं करूंगा, क्या तुमने ये सुना नहीं था। तुम एक बार फिर विचार कर सकते हो। अर्जुन ने कृष्ण से कहा, मैंने आपको भूल से नहीं लिया है। मुझे तो आप और केवल आप की ही आवश्यकता है। आप युद्ध करें या ना करें ये मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है। दुर्योधन से पूछा तो नारायणी उसे दे दी।
भगवान ऐसा ही करते है। साधना पर चलने पर एक अवसर आता है जब साधक को माँगने पर सब कुछ दे दिया जाता है। जिसका मन भटक गया वो माया रूपी नारायणी में कपड़ा रोटी, महल, स्त्री, भोग विलास, धन, सोना चांदी ले गया और जो भक्तरूपी अर्जुन है वो नारायण ले गया।
यही संसार की समस्या है। मंदिर जाते है नारायण नही मांगते, नारायणी पर नजर टिकी है।
हे भगवान, नौकरी लग जाये, शादी हो जाये, संतान हो जाये, बच्चे का ब्याह हो जाये। यही नारायणी है। अंत में जो सम्पूर्ण नाशवान है। यही माया है।
इधर नारायण ने कहा दिया कि मैं शस्त्र नही उठाऊंगा। देखो, भगवान कुछ नही करते। वे सब हमसे करवाते है। वे निर्लिप्त है।
सब हमें करना है। साधना हमे ही करनी है। बस एक बार जब हम उनके शरण हो जाये तो फिर सब वो करवा लेते है। कही से ही करवाओ करवा लेते है।
देखें, एक ओर भगवान हैं, दूसरी ओर भगवान से प्राप्त सम्पत्ति है।
ये संपूर्ण घटनाक्रम अर्जुन की श्रीकृष्ण निष्ठा और भक्ति के स्वरूप की अभिव्यंजना है। अर्जुन के जीवन में यदि कुछ सबसे अधिक जरूरी था तो वह कृष्ण ही थे। इसी को एकांतिक भक्ति भी कहते हैं और चातक प्रेम भी कहा जाता है।