सुप्रभातम्:मृत्यु के क्षण में लोग तड़फते क्यों हैं?

ओशो

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हमने किसी पक्षी को मरते देखा ? ऐसे सरल, ऐसे सहज, चुपचाप विदा हो जाता है! पंख भी नहीं फड़फड़ाता। शोरगुल भी नहीं मचाता। पक्षी तो इतने चुपचाप विदा हो जाते हैं, इतनी सरलता से विदा हो जाते हैं! ज़रा नोच-खचोंट नहीं। ज़रा शोरगुल नहीं। हमने पशुओं को मरते देखा? मौत में भी एक अपूर्व शांति होती है।

आदमी को मरते देखो–कितना उपद्रव मचाता है, कितना रोकने की अपने को चेष्टा करता है! क्या होगा कारण? कारण हैः जिंदगी व्यर्थ गई और मौत आ गई। अब आगे कोई समय न बचा। खाली आए खाली गए, कुछ भराव नहीं और यह मौत आ गई। तड़फे न आदमी तो क्या करे ?

भरे हुए आदमी ही शांति से मर सकते हैं। हां, बुद्ध विदा होते हैं शांति से, उल्लास से, उमंग से; जैसे किसी प्यारी यात्रा पर जाते हों! ज़रा भी क्षण-भर को भी, कण-भर को भी मोह नहीं होता इस तट से बंधे रहने का। छोड़ देते अपनी नाव उस पार जाने को। खोल देते अपने पंख। विराट की पुकार आ गई, आवाज आ गई, संदेश आ गया। रुकना कैसा? फिर इस तट को खूब जी लिया, मन भर कर जी लिया जी भरकर जी लिया! इस तट के गीत भी सुन लिए, इस तट का गीत भी गा लिया। इस तट के नृत्य भी देख लिए, इस तट का नाच भी नाच लिया। इस तट पर जो भी सुंदर था, जो भी मूल्यवान था, सबका स्वाद ले लिया। जाने की घड़ी आ ही गई। अब और तटों पर होंगे। अब और नृत्य और गीत उठेंगे। अब और दीए जलेंगे। एक उल्लास है। एक जाने की तत्परता है। अगर गीत न गाया गया हो तो मुश्किल खड़ी होती है।

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मृत्यु पीड़ा है, क्योंकि गीत गाया नहीं गया है। गीत गाने की तो बात दूर, साज भी टूट गया है। वीणा के तार भी उखड़ गए हैं। वाद्य भी विकृत हो गया है। आवाज भी मर गई है। यह आवाज जो गीत गाने को दी गई थी, गालियां देते-देते मर गई है। ये प्राण जो प्रार्थना के लिए दिए थे, इनका प्रार्थना से तो कोई संबंध ही न जुड़ा; ये तो पद-प्रतिष्ठा की आपा-धापी में ही टूट गए हैं, उखड़ गए हैं। ये धड़कनें जो परमात्मा के साथ नाचने के लिए थीं, इन्हें तो बड़े सस्ते में बाजार में बेच आए हो।

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आत्मा बेच कर मरते हैं लोग, तो रोते हुए मरते हैं। अपना गीत तो निश्चित गाना है। और यह गीत हमारे गाए नहीं गाया जा सकता। हमें राह देनी है कि परमात्मा गा सके। और यह गीत जब गाया जाता है तो पता चलता है अपना है न पराया है, उसका।
ओशो प्रेम।

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