हिमशिखर धर्म डेस्क
अधिकांश लोग सोचते हैं कि विज्ञान और अध्यात्म एक-दूसरे के विपरीत हैं। मगर हकीकत में दोनों एक दूसरे के शत्रु नहीं एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। विज्ञान हमें अध्यात्म से जोड़ता है और अध्यात्म हमें वैज्ञानिक तरीके से सोचने की क्षमता देता है। स्वामी रामतीर्थ ने भी प्रकृति के कार्य-कलाप का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया है और उसके नियमों में अध्यात्म जगत के नियमों की संगति खोजी है। जो व्यक्ति अंतर्मुख होकर अपने बारे में नहीं सोच सकता वह कभी भी अध्यात्म जगत में आगे नहीं बढ़ सकता है।
स्वामी राम के अनुसार प्रायः दुनिया के लोग आत्म सुधार का विस्मरण कर देते हैं और समाज सुधार, धर्म सुधार आदि कई प्रकार के आंदोलनों के अगुवा बनकर प्रतिष्ठा पाने की इच्छा रखते हैं। किन्तु देखने में आता है कि ऐेस लोगों के उपदेशों से कहीं कोई सुधार का चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होता, बल्कि दम्भ, आडंबर, झूठ और स्वार्थ ही बढ़ता है। इसलिए स्वामी राम ने आत्म सुधार पर हमेशा विशेष जोर दिया है।
विज्ञान शास्त्र के नियमानुसार हवा जब पतली होकर ऊपर चढ़ने लगती है तब आस-पास की भारी और ठण्डी हवा अपने आप हल्की हवा की जगह पर आकर स्थान को घेर लेती है। इसी प्रकार महात्मा ब्रह्मनिष्ठ होता है, तब अन्य सब वर्ग और आश्रम के लोग बिना किसी इच्छा के या बिना किसी प्रयत्न के ही महात्मा की खाली जगह की पूर्ति के लिए स्वाभाविक ही कुछ न कुछ उन्नति कर ही लेते हैं। इस सिद्धांत के अनुसार अपने आत्म स्वरूप में लीन होना ही एकमात्र स्वाभाविक और सर्वोतम परोपकार है। तात्पर्य यह कि मन में जमा अहंकार रूप मैल आत्मारूपी सूर्य की किरणों द्वारा पिघल कर मन को उसके बोझ से मुक्त करता है, जिसे मन आपके स्वरूप में लीन हो जाता है। इसी में संसार के अन्य समस्त मनुष्यों का सच्चा सुधार होगा।
स्वामी रामतीर्थ कहते हैं कि सुधारक अर्थात दूसरों का सुधार करने की इच्छा करने वाले पुरुष अपने वास्तविक स्वरूप से जितने नीचे रहेंगे, उतनी मात्रा में अन्य भी निश्चय ही निचले स्तर पर रहेंगे और परोपकर के फलस्वरूप अपेक्षित परिणाम प्राप्त न होगा। तुम अनन्त शक्ति से अभेद स्थापित करोगे तो तुममें भी अनन्त शक्ति आ जाएगी। जैसे नमक की छोटी सी डली प्याले में पड़ी हो तो वह ज्यों की त्यों डली बनी रहेगी और उसे पानी से भर दो तो पूरे प्याले में नमक पैफल जायेगा, वैसे ही तुम यदि अपने परिछिन्न मन को अपरिच्छिन आत्म स्वरूप में लीन कर दोगे तो मन भी अनन्त शक्ति पा लेगा। तब यह समस्त संसार को उद्धार करने में समर्थ होगा।
दीप के पास कागज के सादे पर्दे को रखोगे तो वह पारदर्शी न होने के कारण प्रकाश उससे आर-पार छनकर न निकलेगा। किन्तु उसे तेल से भिगो दिया तो वह ऐसा पारदर्शी हो जायेगा कि तुरंत प्रकाश आर-पार निकलेगा। इसी प्रकार अंतःकरण को ज्ञानरूपी तेल से भिगो दो तो आत्मारूपी प्रकाश प्रकट होगा अन्यथा वह बाहर प्रकट न होगा।
आत्म प्रकाश को बाहर करने के लिए अंतः करण शुद्ध होना चाहिए। विज्ञान के मतानुसार सूर्य का प्रकाश सात रंगों का समुदाय है। सृष्टि के जितने रंग दिखते हैं वे सूर्य के हैं। मन को जब तक आत्मा में लीन नहीं किया जाएगा तब तक मन पदार्थ भाव से कदापि मुक्त न होगा। क्योंकि मन का आत्मनिष्ठ होना भी आवश्यक है। इसलिए स्वच्छ और शुद्ध अंतःकरण होने के लिए प्रथम आवश्यकता है श्वेत वस्तुओं की तरह सांसारिक पदार्थों के पीछे दौड़ते हुए अपने मन को रोक दो एवं उनको मन में लेशमात्रा भी प्रविष्ट मत होने दो। जब तुम इस प्रकार आचरण करोगे तब तुम्हारे रोम-रोम से निकलती उस ध्वनि को सब सुन सकेंगे, अंतःकरण शुद्धि के लिए त्याग ही एकमात्रा साधन है। ध्यान रखो कि उक्त अमृत त्याग से ही उपलब्ध होगा। मन का आत्मनिष्ठ होना ही हल्का होकर उन्नत होना है।
स्वामी रामतीर्थ कहते हैं कि ब्रहानिष्ठ हो जाने पर हमें संसार के सुधार की भी चिंता न करनी पड़ेगी। बिना किसी प्रयत्न के सहज ही उसका कल्याण होता रहेगा। तब चाहे निर्जन अरण्य में रहा जाए या दुनिया में उपदेश करते हुए। चाहे जो भी स्थिति हो अनायास विश्व कल्याण होगा ही।
मानव की मनोवृत्ति के उन्नयन उद्देश्य से स्वामी राम एक वैज्ञानिक प्रयोग का वर्णन करते हैं, सर आइजेक न्यूटन ने एक बार अपने घर में लीवर और चक्रों को विचित्रा ढंग से सजाकर एक पंखा बनाया। उसे चलाने के लिए मजदूर के स्थान पर पालतू चूहों को रखा। उनकी रचना ऐसी थी कि एक नोंकदार दांत वाले चक्र के छोर पर पतरा जड़ दिया और उस पर थोड़े गेहूं के दाने इस तरह रखे कि चक्र घूमता रहे। पिफर भी गेहूं के दाने नीचे न गिर जायें। चूहा गेहूं पकड़ने के लिए एक नोंक पर से दूसरी नोंक पर उछलकर गिरता तब उसके बोझ से चक्र घूमने लगता और पंखा भी चालू हो जाता। परंतु गरीब बेचारा चूहा! पुनः पुनः लोटकर अपनी असली जगह पर नीचे गिर जाता।
तब वह पूर्ववत गेहूं से वैसा ही दूर रहता भोला चूहा पुनः पुनः चक्र की ऐसी परिक्रमा किया करता, पर अंत में निराशा ही हाथ लगती। आशावश मात्रा प्रयत्न करता। इसी प्रकार संसार की वासना या सांसारिक विद्याओं की वासनाएं भोले चूहे की भांति कभी अपने मनोरथों की पूर्ति न कर पायेगी। कभी भी वे शांत न होंगी। वे कभी भी अपने सत् स्वरूप का स्पर्श न कर पायेगी। इतना अवश्य होगा कि उनके प्रयत्नों के अभाव संसार रूपी पंखा घूमता रहेगा।