पंडित हर्षमणि बहुगुणा
आज से श्राद्ध पक्ष प्रारम्भ हो रहा है। भारतीय आध्यात्म एवं संस्कृति में इस पक्ष की महत्ता अत्यधिक है। श्राद्ध शब्द श्रद्धा से बना है। श्रद्धापूर्वक किए गए कार्य को श्राद्ध कहते हैं। सत्कार्यों के लिए, सत्पुरुषों के लिए, सद्भाव के लिए, अपने अन्दर कृतज्ञता की भावना रखना ही श्रद्धा कहलाती है। जिन लोगों ने इस मानव शरीर के लिए उपकार किया उनके प्रति आदर प्रकट करना।
जिस किसी ने हमें किसी भी तरह से लाभान्वित किया है उनके लिए कृतज्ञ होना, श्रद्धावान व्यक्ति का आवश्यक कर्त्तव्य है। और इस तरह की श्रद्धा हमारे धर्म का मेरुदंड है, यदि इस श्रद्धा को हटा दिया जाय तो हिन्दू धर्म की सम्पूर्ण महत्ता समाप्त हो जाएगी और यह धर्म नि:सत्व हो जाएगा। श्राद्ध हमारे धर्म का एक अंग है अतः श्राद्ध हमारे धर्म का एक धार्मिक कृत्य है।
माता पिता और गुरु के प्रयास से बालक का विकास होता है, इन तीनों की कृपा को कोई भी व्यक्ति कम नहीं कर सकता है, भले ही आज का भौतिक वादी युग जो कुछ मनुष्यों को धन लोलुप बना रहा है चाहें तो इन गुरुओं की कृपा को नकारते रहें पर इनके प्रति अटूट श्रद्धा और विश्वास मन में धारण किए रहने का शास्त्रज्ञों ने आदेश किया है।
अतः हम सभी उनकी वाणी को वेद वाक्य मान कर स्वीकार करते हुए तदनुरूप कार्य करते हैं। और अपने मृत पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने का यह धर्म कृत्य किसी न किसी रूप में पूरा करते हैैं जिससे एक आत्मसंतोष की अनुभूति अनुभव करते हैं। इस विषय पर अनेक विद्वानों ने अपने मत प्रकट किए हैं। कुछ और चिन्तन किया जाय व इस पक्ष की गूढ़ता के विषयक जानकारी करने का सूक्ष्म प्रयास किया जाय।
*एकैकस्य* *तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन
*दद्याज्जलाज्जलीन्*।
*यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणदेव नश्यति।।
“ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब सूर्य नारायण कन्या राशि में विचरण करते हैं तब पितृलोक पृथ्वी लोक के सबसे अधिक नजदीक आता है। जो मनुष्य अपने पितरों के प्रति उनकी तिथि पर अपनी सामर्थ्य के अनुसार फलफूल, अन्न, मिष्ठान आदि से ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं। उन पर प्रसन्न होकर पितृ उन्हें आशीर्वाद देकर जाते हैं।
पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध दो तिथियों पर किए जाते हैं, प्रथम मृत्यु या क्षय तिथि पर और द्वितीय पितृ पक्ष में जिस तिथि को माता पिता या अन्य किसी पूर्वज की मृत्यु हुई है अथवा जिस तिथि को उसका दाह संस्कार हुआ है। वर्ष में उस तिथि को एकोदिष्ट श्राद्ध में केवल एक पितर की संतुष्टि के लिए श्राद्ध किया जाता है। इसमें एक पिंड का दान और एक ब्राह्मण को भोजन कराया जाता है। पितृपक्ष में जिस तिथि को पितर की मृत्यु तिथि आती है, उस दिन पार्वण श्राद्ध किया जाता है।
पार्वण श्राद्ध में 9 ब्राह्मणों तथा कन्याओं को भोजन कराने का विधान है, किंतु शास्त्र किसी एक सात्विक एवं संध्यावंदन करने वाले ब्राह्मण को भोजन कराने की भी आज्ञा देते हैं।
इस सृष्टि में हर चीज का अथवा प्राणी का जोड़ा है। जैसे – रात और दिन, अँधेरा और उजाला, सफ़ेद और काला, अमीर और गरीब अथवा नर और नारी इत्यादि बहुत गिनवाये जा सकते हैं। सभी चीजें अपने जोड़े से सार्थक है अथवा एक-दूसरे के पूरक है। और दोनों एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं। इसी तरह दृश्य और अदृश्य जगत का भी जोड़ा है। दृश्य जगत वो है जो हमें दिखता है और अदृश्य जगत वो है जो हमें नहीं दिखता। ये भी एक-दूसरे पर निर्भर है और एक-दूसरे के पूरक हैं। पितृ-लोक भी अदृश्य-जगत का हिस्सा है और अपनी सक्रियता के लिये दृश्य जगत के द्वारा किए श्राद्ध पर निर्भर है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार श्राद्ध के सोलह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर श्राद्ध करते हैं। ऐसी मान्यता है कि पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है। वर्ष के किसी भी मास तथा तिथि में स्वर्गवासी हुए पितरों के लिए पितृपक्ष की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है।
पूर्णिमा पर देहांत होने से भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा को श्राद्ध करने का विधान है। इसी दिन से महालय (श्राद्धपक्ष) का प्रारंभ भी माना जाता है। श्राद्ध का अर्थ है श्रद्धा से जो कुछ दिया जाए। पितृपक्ष में श्राद्ध करने से पितृगण वर्षभर तक प्रसन्न रहते हैं। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि पितरों का पिण्ड दान करने वाला गृहस्थ दीर्घायु, पुत्र-पौत्रादि, यश, स्वर्ग, पुष्टि, बल, लक्ष्मी, पशु, सुख-साधन तथा धन-धान्य आदि की प्राप्ति करता है।
श्राद्ध में पितरों को आशा रहती है कि हमारे पुत्र-पौत्रादि हमें पिण्ड दान तथा तिलांजलि प्रदान कर संतुष्ट करेंगे। इसी आशा के साथ वे पितृलोक से पृथ्वीलोक पर आते हैं। यही कारण है कि हिंदू धर्म शास्त्रों में प्रत्येक हिंदू गृहस्थ को पितृपक्ष में श्राद्ध अवश्य रूप से करने के लिए कहा गया है।
श्राद्ध से जुड़ी कई ऐसी बातें हैं जो बहुत कम लोग जानते हैं। मगर ये बातें श्राद्ध करने से पूर्व जान लेना बहुत जरूरी है क्योंकि कई बार विधिपूर्वक श्राद्ध न करने से पितृ गण श्राप भी दे देते हैं।
पितरों की संतुष्टि के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किये जाने वाले तर्पण, ब्राह्मण भोजन, दान आदि कर्मों को श्राद्ध कहा जाता है। इसे पितृयज्ञ भी कहते हैं। श्राद्ध के द्वारा व्यक्ति पितृऋण से मुक्त होता है और पितरों को संतुष्ट करके स्वयं की मुक्ति के मार्ग पर बढ़ता है।
श्राद्ध या पिण्डदान दोनों एक ही शब्द के दो पहलू है पिण्डदान शब्द का अर्थ है अन्न को पिण्डाकार में बनाकार पितर को श्रद्धा पूर्वक अर्पण करना इसी को पिण्डदान कहते हैं। दक्षिण भारतीय पिण्डदान को श्राद्ध कहते हैं।