- टिहरी राजशाही के अफसरों को जनता के कोप से बचाने के लिए किया था जेल में बंद
- नागेन्द्र और मोलू सिंह की शहादत से पलट गया था टिहरी राजशाही का तख्ता
- स्वतंत्रता आंदोलन और उत्तराखंड आंदोलन पर दून पुस्तकालय की प्रदर्शनी ने कराया इतिहास से रूबरू
- कर्मभूमि, युगवाणी, अल्मोड़ा अखबार, शक्ति, गढ़वाली, गढ़वाल समाचार, क्षत्रिय वीर की कतरनों से उकेरा घटनाक्रम
प्रदीप बहुगुणा
देहरादून । टिहरी में आजादी के मतवालों का आंदोलन इस कदर अहिंसक था कि जुल्मी राजशाही के कारिंदो को जनता से बचाने के लिए उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। लेकिन जैसे ही उन्हें मौका मिला उन्होंने जान बचाने वाले नागेन्द्र सकलानी और मोलू सिंह भरदारी को गोली मार दी। लेकिन दोनों के शहादत की चिनगारी ने टिहरी में राजशाही का तख्त पलट दिया और जनता ने शासन अपने हाथ में ले लिया।
दून पुस्तकालय और शोध केन्द्र की ओर से देहरादून में लगाई गई प्रदर्शनी ने महीने भर लोगों को स्वतंत्रता और उत्तराखंड राज्य की लड़ाई के घटनाक्रम से रूबरू कराया। कर्मभूमि, युगवाणी, अल्मोड़ा अखबार, शक्ति, गढ़वाली, गढ़वाल समाचार, क्षत्रिय वीर, तरुण कुमाऊं और विशाल कीर्ति की कतरनों से घटनाक्रम को उकेरा गया है। इसमें टिहरी की राजशाही के तख्ता पलट के अलावा वन अधिकारों के लिए 30 मई को तिलाड़ी और जेल में हुए शहीदों की सूची, स्वतंत्रता आंदोलन में जेल गए सेनानियों का ब्योरा और उस दौरान उत्तराखंड में कांग्रेस की गतिविधियों का भी जिक्र है।
बताया गया था कि राजशाही ने आजादी के आंदोलन को फेल करने के लिए कैसे जातिवाद का जहर फैलाने की कोशिशों के तहत प्रजा हितैषणी सभा बनाई। बावजूद इसके आजादी के मतवालों ने 10जनवरी1948 को देवप्रयाग और कीर्तिनगर में समानांतर सरकार गठित कर दी। 11 जनवरी को राजा की फौज हवालात से डिप्टी कलेक्टर और डिप्टी एसपी को छुड़ाकर ले गयी। लेकिन जाते हुए उन्होंने मोलू भरदारी औ नागेन्द्र सकलानी को गोली मार दी। फौज के साए में भागते हुए जनता ने उन्हें पकड़ लिया और आंदोलन का नेतृत्व कर रहे दादा दौलतराम ने उन्हें जनता से बचाने के लिए फिर से हवालात में बंद कर दिया। 12 जनवरी को वहां से दोनों शहीदों के शवों के साथ देवप्रयाग और खासपट्टी होकर टिहरी पहुंची जनता ने 14 जनवरी 48 को सत्ता अपने हाथ में ले ली। वहां भी प्रजामंडल के प्रमुख वीरेंद्र दत्त सकलानी ने राजा के कारिंदो को जनता के कोप से बचाने के लिए जेल में बंद कर दिया। 15 जनवरी को भारत सरकार की ओर से अधिकारी और पुलिस टिहरी पहुंची और प्रजामंडल के सहयोग से जुलाई 1949 तक वहां शासन चला। बाद में टिहरी का उत्तर प्रदेश संयुक्त प्रांत में विलय हो गया।
देहरादून के राजपुर रोड स्थित इंद्रलोक होटल की आर्ट गैलरी में दून पुस्तकालय और शोध केन्द्र की ओर से उत्तराखंड राज्य स्थापना दिवस के अवसर पर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और उत्तराखंड आंदोलन की घटनाओं पर केंद्रित यह प्रदर्शनी निशुल्क थी। आर्ट गैलरी को देखने साहित्यकार लीलाधर जगूड़ी, पूर्व मुख्य सचिव उत्तराखण्ड सुरजीत किशोर, दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के सलाहकार प्रो.बीके जोशी व निदेशकएन.रवि शंकर प्रो. ए. एन. पुरोहित, कला केंद्र के कर्नल दुग्गल, कुसुम नौटियाल, मुनिराम सकलानी, मुकेश नौटियाल, जय सिंह रावत, भी पहंचे।
दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के प्रोग्राम एसोसिएट चन्द्रशेखर तिवारी ने बताया कि प्रदर्शनी को मूर्त रूप देने में इतिहासकार डॉ योगेश धस्माना,शंकर सिंह भाटिया और संगीत सिनेमा व कला के जानकार निकोलस हॉफलैण्ड ने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने बताया कि इस प्रदर्शनी का उद्देश्य लोगों को गढ़वाल और कुमाऊ के समाचार पत्रों के माध्यम से भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और उत्तराखंड राज्य आंदोलन की घटनाओं की जानकारी उपलब्ध कराना है। प्रदर्शनी के माध्यम से तत्कालीन समय के समाचार पत्रों की खबरों और उनके सम्पादकीय आलेखों के दुर्लभ और निर्मीक पूर्ण विचारों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया।
डॉ. योगेश धरमाना ने बताया कि उत्तराखण्ड में उन्नीसवीं सदी के अन्तिम दशकों से लेकर बीसवी सदी प्रारंभिक पांच दशकों तक जनजागरण सामाजिक संस्थाओं के विकास से सामाजिक चेतना और 1930 से 1949 तक टिहरी रियासत के भारतीय गणराज्य में विलय तक राजनीतिक चेतना और घटनाओं पर प्रलेखित सामग्री का परिदृश्य इस प्रदर्शनी में उपलब्ध है।
उल्लेखनीय है कि पहाड़ के स्थानीय जन नायकों ने जिस तरह कुली बेगार के उन्मूलन और वन अधिकारों की प्राप्ति के लिए असहयोग आन्दोलन किया उसकी सफलता ने उस दौर में उत्तराखण्ड को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। बाद में समाज के वंचित व निम्न वर्ग ने भी अपनी सामाजिक, आर्थिक समस्याओं को मुखर करने तथा उनके समाधान पाने के लिए स्वाधीनता आंदोलन को मंच के तौर पर चुना। इस तरह के कुछ विशेष प्रसंगों की झलक भी दर्शको को इस प्रदर्शनी में मिलेगी। यह प्रदर्शनी उन अनेक भूली बिसरी महिलाओं और महापुरुषों को भी जानने का अवसर देती है, जिन्होंने देश प्रेम के खातिर औपनिवेशिक प्रशासन के खिलाफ आवाज उठाकर अपनी जान की बाजी तक लगानी पड़ी।