भाषाओं के पर्व में दुधबोली कुमाऊंनी का स्वाद-लाज़वाब

प्रेम प्रकाश उपाध्याय ‘नेचुरल’ बागेश्वर

Uttarakhand

( स्वतंत्र लेखन, अध्यापन)


निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल’।

मतलब साफ हैं। जीवन में प्रगति करने, आगे बढ़ने, सफल होने के लिया अपनी भाषा की उन्नति होनी जरूरी है। ये व्यक्ति से व्यष्टि तक के लिए सच हैं। देखिये चीन, जापान, रूस ,कनाडा इत्यादि विकसित देशों की भाषा को और फिर उनके द्वारा की गयी उन्नति को।

आईने की तरह तस्वीर साफ हैं। अपनी जड़ों से जुड़कर ही कोई व्यक्ति, समाज, देश, राष्ट्र सफल होता है और उस पर गौरव किया जा सकता है। अभी हमने हिंदी दिवस को मनाया। अफ़सोच ! हमें इसको मनाने की जरूरत पड़ी। जबकि हिंदी हमारी जुवां व पहचान है। यानी अब संकट पहचान पर आ गया है। ऎसे ही हमारी दुधबोली कुमाऊनी भी तूफानों से टकरा रहीं हैं। आधुनिकता की आंधी से संघर्ष कर रही है। जबकि कुमाऊनी बोली कितनी खूबसूरत, अपनापन, विनोदप्रिय लिए हुए रहती है इसकी एक बानगी भर देखिये।

Prem Prakash upadhyay

पहाडों में पहले धन्यवाद जैसा कोई शब्द नही होता थाा। किसी ने एहसान या मदद कर दी तो उसके बदले कहा जाता है – तुमर भल हैजौ, तुमर नानतिन बची रून , तुमार खुटन कान् ले झन बुडो , अगर एहसान ज्यादा ही हुवा तो कहेगे तुमरि एकै एकैस पांचै पंचैस हैजौ। जै जै कारी हैजौ। बाद में जब धन्यवाद शब्द चला तो शुरु में लोग . मजाक में कहते हैगोय यो धणियोंपात रूण दिओ। के बात नि भै। फिर थैंक यू भी कहने लगे गए। थीकि रेशा तुम इसकी विनोदप्रिय प्रतिक्रिया होने लगी। दूसरी बानगी , मिठाई का मतलब गुड होता था . लोग कहा करते थे . पास हैगो बल तुमर च्योल . गूड खिलाओ . यहां भी जवाब में धन्यवाद नही कहा जाता था .. कहते . होय हैगो पें तुमार आशीर्वादैलि . घर आया एक आंगू पिठ्या लगै ल्हिजाया और गूड ले खै जाया. कितना अपनापन रहता हैं इन शब्दों में। हर कुमाऊनी वह भले ही दुनिया के किसी शहर , किसी कोने में गुज़र-बसर कर रहा हो,खुशी के मौके पर उसने गुड जरूर खाया, होगा, खिलाया होगा।

कई बार अगर दोपहर या शाम को लोग बधाई देने किसी के घर जाते तो वहां पिठ्या लगता . तो वापस जाने पर रास्ते में लोग पूछते कि – कि बात बड चर-बर पिठ्या लगै राखौ . चर बर मतलब लम्बा चौडा गहरा . वह बताता .. अरे फलाने का नाती हुवा है . वहां गया था . इससे एक बात और होती कि लोगों को धीरे धीरे ये खुशखबरी मिल जाती . लोग अपने आप बधाई देने निकल पडते।

बधाई देने को – भलि भट्यूण कहते थे . बधाई भी प्रचलन में नही था . बधाई के लिए प्रयुक्त होता – भल भै तुमर नाति हैगो , भल भै तुमर च्योल पास हैगो भल भै तुमर च्योल क ब्या ठरी गो . जवाब वही होता .. होय यो सब तुम लोगनक आशीर्वाद छ . कल्पना कीजिए बधाई है – धन्यवाद की जगह जब इन आत्मीयता वाले शब्दों का प्रयोग होता होगा तो कितना सुख कितने अपनेपन का अहसास होता होगा .

किसी के पास होने पर , लडका , लडकी होने पर , बच्चो की शादी तय होने पर , शादी हो जाने पर , नौकरी लगने पर . जनेऊ होने पर , किसी का लापता सदस्य पुन: घर वापसी पर भलि भट्याने का प्रचलन था . वो भी उसके घर जाकर . इसके लिए कुछ अच्छे वार तय थे . शनिवार मंगल भलि भट्याने के लिए वर्जित थे . घर वाले भी अनुमान लगाते कि आज मंगल है कोई नही आएगा फलां काम निपटा लो . या आज भल वार छ . मैंस भल भट्यूण आल आज घरै रया सब लोग . साथ में जब भल भट्याने लोग आते तो चाय की केतली पूरे दिन के लिए रौन पर चढ जाती . घर के सारे सदस्य आवभगत में लग जाते . महिलाऐ भीतर कटकी चाय पीती बडे बुजुर्ग आये होते तो उनके लिए ह्वाक चिलम में तम्बाकू कोयले सज जाते ,दही, दूध, जोभी धिनाली घर होती सबमें बाटी जाती। उसके पीछे का दर्शन देखिये जितना बाटोगे उतना बड़ोगे।

एक बात और होती . जिसके यहां परिवार छोटा हो महिला एक ही हो तो वहां पर भल भट्याने आई महिलाए मदद भी करती थी. जैसे चाय बना देना . प्रसूता के लिए कुछ पका देना , गायों को पानी देना क्योकि घर की गृहणी तो मेहमानो को पो पिठ्या लगाने गूड बाटने में ही लगी रह जाती. यहीं पर अगर किसी के घर बाल बत्चा हुवा हो तो घर की मुखिया गृहणी भलि भट्याने आई महिलाओँ को शाम को आकर गीत गाकर जाने का न्योता भी दे देती. यहीं पर दुणआँचव के कुछ पैसे और एक कागज की पुडिया में घर के लिए गुड दे दिया जाता . बडे बुजुर्ग जवान लोग चर्चा करते नामकरण में कदु आदिम खवाला हमार हात क काम बताया क्वे नानतिनै हात ले जवाब भेज दिया उसके हम बीच बीच में आते रूल . आज की तरह नही होता कि – पार्टी कब दे रहे हो . शाम को कहां मिलोगे . तब ये चीजे निषेध थी .

तब एक परम्परा और थी – किसी कन्या के जन्म के बाद लडका हो गया तो उसकी लडकी को शकुन्नी,शुभ, लक्ष्मी का रूप समझा जाता और उसकी पीठ पर गुड की भेली फोडी जाती .

यदि परिवार में बार दिनी बिरादरी , स्वार में नजदीकी रिश्तेदारी में एकसाथ दो बच्चे नामकरण की अवधि तक भी हो गये तो उन बच्चों को औ छौ कहा जाता था बाद में एक छोटा सा प्रोग्राम करके उनके कपडे धागुले वगैरह आपस में बदले जाते इस कार्यक्रम को औ-छौ बाटना कहा जाता था . यह कुछ कुछ दो समधनों के समद्योड कार्यक्रम जैसा ही समझिये .

मुझे तो लगता है कि हमारे बुजुर्गों ने जिस प्रकार ये रीति रिवाज बनाये होगे उनका मकसद यही रहा होगा कि लोगों की आपस में आत्मीयता बढे . एक दूसरे के मदद की भावना आये , सभी एक दूसरे की खुशियों को अपना समझकर साझा करें .

आज के व्यस्त समय में कुछ कोशिश कर हम इन परम्पराओ को जीवित रख सकें तो क्या ही अच्छा हो . आजकल तो हम यह कहकर पल्ला झाड लेते हैं कि फलां ने मुझे बताया थोडी , मुझे बुलाया ही नही .. मैं क्यों जाऊ .. या रास्ते में मिला था बधाई दे तो दी . बदलना अच्छा है मगर हमें अपनी बोली, भाषा, संस्कार,संस्कृति को जीवंत रखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण हैं.

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