सुप्रभातम्:अपनी संतान से बेपनाह प्रेम करने वाले अवश्य पढ़ें, ‘राजऋषि भरत’ की कथा

हिमशिखर धर्म डेस्क

Uttarakhand

सनन्दनजी ने कहा- नारदजी! एक प्राचीन इतिहास कहूँगा, जिसे सुनकर तुम्हारे मन को बड़ी स्थिरता प्राप्त होगी। मुनिश्रेष्ठ! प्राचीनकाल में भरत नाम से प्रसिद्ध एक राजा हुए थे, जो ऋषभदेवजी के पुत्र थे और जिनके नाम पर इस देश को ‘भारतवर्ष’ कहते हैं। राजा भरत ने बाप-दादों के क्रम से चले आते हुए राज्य को पाकर उसका धर्मपूर्वक पालन किया। जैसे पिता अपने पुत्र को संतुष्ट करता है, उसी प्रकार वे प्रजा को प्रसन्न रखते थे। उन्होंने नाना प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करके सर्वदेवस्वरूप भगवान् विष्णु का यजन किया। वे सदा भगवान्का ही चिन्तन करते और उन्हीं में मन लगाकर नाना सत्कर्म में लगे रहते थे। तदनन्तर पुत्रों को जन्म देकर विद्वान् राजा भरत विषयों से विरक्त हो गये और राज्य त्यागकर पुलस्त्य एवं पुलह मुनि के आश्रम को चले गये। उन महर्षियों का आश्रम शालग्राम नामक महाक्षेत्र में था। मुक्ति की इच्छा रखने वाले बहुत-से साधक उस तीर्थ का सेवन करते थे । मुने ! वहीं राजा भरत तपस्या में संलग्न हो यथाशक्ति पूजन- सामग्री जुटाकर उसके द्वारा भक्तिभाव से भगवान् महाविष्णु की आराधना करने लगे। नारदजी! वे प्रतिदिन प्रातःकाल निर्मल जल में स्नान करते तथा अविनाशी परब्रह्म की स्तुति एवं प्रणवसहित वेद-मन्त्रों का उच्चारण करते हुए भक्तिपूर्वक सूर्यदेव का उपस्थान करते थे। तदनन्तर आश्रम पर लौटते और अपने ही लाये हुए समिधा, कुशा तथा मिट्टी आदि द्रव्यों से और फल, फूल, तुलसीदल एवं स्वच्छ जल से एकाग्रतापूर्वक जगदीश्वर भगवान् वासुदेव की पूजा करते थे। भगवान्‌ की पूजा के समय वे भक्ति प्रवाह में डूब जाते थे।

एक दिन की बात है, महाभाग राजा भरत प्रातःकाल स्नान करके एकाग्रचित्त हो जप करते हुए तीन मुहूर्त्त (छः घड़ी) तक शालग्रामी के जलमें खड़े रहे। ब्रह्मन्! इसी समय एक प्यासी हरिणी जल पीने के लिये अकेली ही वन से नदी के तट पर आयी। उसका प्रसवकाल निकट था। वह प्रायः जल पी चुकी थी, इतने में ही सब प्राणियों को भय देने वाली सिंह की गर्जना उच्चस्वर से सुनायी पड़ी। फिर तो वह उस सिंहनाद से भयभीत हो नदी के तट की ओर उछल पड़ी। बहुत ऊँचाई की ओर उछलने से उसका गर्भ नदी में ही गिर पड़ा और तरङ्गमालाओं में डूबता उतराता हुआ वेग से बहने लगा राजा भरत ने गर्भ से गिरे हुए उस मृगके बच्चे को दयावश उठा लिया। मुनीश्वर! उधर वह हरिणी गर्भ गिरने के अत्यन्त दुःख से और बहुत ऊँचे चढ़ने के परिश्रम से थककर एक स्थान पर गिर पड़ी और वहीं मर गयी। उस हरिणी को मरी देख तपस्वी राजा भरत मृग के बच्चे को लिये हुए अपने आश्रम पर आये और प्रतिदिन और पालन-पोषण करने लगे। मुने! उनसे पोषित होकर यह मृग का बच्चा बढ़ने लगा। उस मृग मेें राजा का चित्त जैैसा आसक्त हो गया था, वैसा भगवान ‌में भी नहीं उन्होंनेें। उन्होंने अपने राज्य और पुत्रों को छोड़ा, बन्धुओं को भी त्याग दिया, परंतु इस हरिन के बच्चे में ममता पैदा कर ली। उनका चित्त मृग की समता के वशीभूत हो गया था; इसलिये उनकी समाधि भङ्ग हो गयी। तदनन्तर कुछ समय बीतने पर राजा भरत मृत्यु को प्राप्त हुए। उस समय जैसे पुत्र पिता को देखता है, उसी प्रकार वह मृग का बच्चा आँसू बहाते हुए, उनकी ओर देख रहा था। राजा भी प्राणों का त्याग करते समय उस मृग की ही ओर देख रहे थे। द्विजश्रेष्ठ ! मृग की भावना करने के कारण राजा भरत दूसरे जन्म में मृग हो गये किंतु पूर्वजन्म की बातोंका स्मरण होनेसे उनके मन में संसार की ओर से वैराग्य हो गया। वे अपनी माँ को त्यागकर पुनः शालग्राम-तीर्थ में आये और सूखे घास तथा सूखे पत्ते खाकर शरीर का पोषण करने लगे। ऐसा करने से मृग शरीर की प्राप्ति कराने वाले कर्म का प्रायश्चित्त हो गयाः। अतः वहीं अपने शरीर का त्याग करके वे जातिस्मर (पूर्वजन्म की बातों का स्मरण करने वाले) ब्राह्मण के रूपमें उत्पन्न हुए। सदाचारी योगियों के श्रेष्ठ एवं शुद्ध कुल में उनका जन्म हुआ। वे संपूर्ण विज्ञान से संपन्न तथा समस्त शास्त्रों के तत्वज्ञ हुए।

मुनिश्रेष्ठ ! उन्होंने आत्मा को प्रकृतिसे परे देखा। महामुने! वे आत्मज्ञानसम्पन्न होने के कारण देवता आदि सम्पूर्ण भूतों को अपने अभिन्न देखते थे। उपनयन-संस्कार हो जाने पर वे गुरु के पढ़ाये हुए वेद-शास्त्र का अध्ययन नहीं करते थे। किन्दी वैदिक कमों की ओर ध्यान दिखा नहीं देते और न शास्त्रों का उपदेश ही ग्रहण करते थे। जब कोई उनसे बहुत पूछताछ करता तो वे जड के समान गँवारों की- सी बोली में कोई बात कह देते थे। उनका शरीर मैला- कुचैला होने से निन्दित प्रतीत होता था। मुने ! वे सदा मलिन वस्त्र पहना करते थे। इन सब कारणों से वहाँ के समस्त नागरिक उनका अपमान किया करते थे। सम्मान योगसम्पत्ति को अधिक हानि करता है और दूसरे लोगों से अपमानित होने वाला योगी योगमार्ग में शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त दिख कर लेता है—ऐसा विचार करके वे परम बुद्धिमान् ब्राह्मण जन-साधारणमें अपने-आप को जड और उन्मत्त-सा ही प्रकट करते थे, भीगे हुए चने, बड़े, साग, जंगली फल और अन्न के दाने आदि जो-जो सामयिक खाद्य वस्तु मिल जाती, उसी को बहुत मानकर खा लेते थे। पिताकी मृत्यु होने पर भाई-भतीजे और बन्धुबान्धवों ने उनसे खेती-बाड़ी का काम कराना आरम्भ किया। उन्ही के दिये हुए दो सड़े-गले अन्न से उनके शरीरका पोषण होने लगा। उनका एक एक अङ्ग बैल के समान मोटा था और काम-काज में वे जडकी भाँति जुते रहते थे। भोजनमात्र ही उनका वेतन था, इसलिये सब लोग उनसे अपना काम निकाल लिया करते थे।

ब्रह्मन् एक समय सौवीर-राजने शिविकापर आरूढ हो इक्षुमती नदी के किनारे महर्षि कपिल के श्रेष्ठ आश्रम पर जाने का निश्चय किया था। वे मोक्षधर्म के ज्ञाता महामुनि कपिल से यह पूछना चाहते थे कि इस दुःखमय संसार में मनुष्यों के लिये कल्याणकारी साधन क्या है? उस दिन राजा की बेगार में बहुत-से दूसरे मनुष्य भी पकड़े गये थे। उन्हीं के बीच भरतमुनि भी बेगार में पकड़कर लाये गये नारदजी ! ये सम्पूर्ण ज्ञान के एकमात्र भाजन थे। उन्हें पूर्वजन्म की बातों का स्मरण था। अतः वे अपने पापमय प्रारब्ध का क्षय करनेके लिये उस शिविका को कंधे पर उठाकर ढोने लगे। बुद्धिमान श्रेष्ठ भरतजी (क्षुद्र  जीवों को बचाने के लिये) चार हाथ आगे की भूमि भी देखते हुए मंद गति से चलने लगे। उनके सिवा दूसरे कहार जल्दी-जल्दी चल रहे थे। राजा ने देखा कि पालकी समान गति नहीं चल रही है, तो उन्होंने कहा ‘अरे पालकी ढोने वाले कहारों! यह क्या करते हो! सब लोग एक साथ समान गति से चलो।’ किंतु इतना कहने पर भी जय शिबिका की गति पुनः वैसी ही विषम दिखायी दी, तब राजा ने डांटकर पूछा-‘अरे! यह क्या है? तुम लोग मेरी आशा के विपरीत चलते हो ?’ राजा के बार-बार ऐसे वचन सुनकर पालकी ढोने वाले कहारों ने जडभरत की ओर संकेत करके कहा-यही धीरे-धीरे चलता है।”

राजा ने पूछा- अरे ! क्या तू थक गया ? अभी तो थोड़ी ही दूर तक तूने मेरी पालकी ढोयी है। क्या तुझसे यह परिश्रम सहन नहीं होता। वैसे तो तू बड़ा मोटा-ताजा दिखायी देता है।

ब्राह्मणने कहा- राजन् ! न मैं मोटा हूँ और न मैंने आपकी पालकी ही ढोयी है। न तो मैं थका हूँ और न मुझे कोई परिश्रम ही होता है। इस पालकी को ढोनेवाला वस्तु कोई दूसरा ही है।

राजा बोले-मोटा तो तू प्रत्यक्ष दिखायी देता है खेती- और पालकी तेरे ऊपर अब भी मौजूद हैं और बोझ हुए ढोने में देहधारियोंको परिश्रम तो होता ही है ।

ब्राह्मणने कहा- राजन् ! इस विषय में मेरी बात सुनी। “सबसे नीचे पृथ्वी है, पृथ्वी पर दो पैर है, दोनों पैरो पर दो जंघे हैं, उन पर दो ऊरु हैं तथा उनके ऊपर उदर है। फिर उदरके ऊपर छाती, भुजाएँ और कंधे हैं और कंधों पर यह पालकी क्खी गयी है। ऐसी दशा में मेरे ऊपर भार कैसे रहा? पालकी में भी जिसे तुम्हारा कहा जाता है, वह शरीर रक्खा हुआ है। राजन् मैं तुम और अन्य सब जीव पञ्चभूतों द्वारा ही ढोये जाते हैं तथा यह भूतवर्ग भी गुणों के प्रबाह में पड़कर ही यहाँ जा रहा है। पृथ्वीपते। सत्व आदि गुण भी कर्म के वशीभूत हैं और वह चीच कर्म समस्त जीवों में अविद्या द्वारा ही संचित है। आत्मा तो शुभ्र, अक्षर, शान्त, निर्गुण और प्रकृति से परे है। वह एक ही सम्पूर्ण जीवन व्याप्त है। उसकी वृद्धि अथवा ह्रास कभी नहीं होता। जब आत्मा में न तो वृद्धि होती है और न हास ही तब तुमने किस युक्ति से यह बात कही है कि तू मोटा है। यदि क्रमशः पृथ्वी, पैर, जा, ऊरु, कटि तथा उदर आदि अंगों  पर स्थित हुए कंधे के ऊपर रक्खी हुई यह शिबिका मेरे लिये भाररूप हो सकती है तो उसी तुम्हारे लिये ही आत्मा भी तो हो सकती है। राजन् ! इस युक्ति से तो अन्य समस्त जीवों ने भी न केवल पालकी उठा रक्खी है, बल्कि सम्पूर्ण यह पालकी पर्वत वृक्ष, गृह और पृथ्वी आदि का भार भी अपने ऊपर ले रखा है। राजन्! जिस द्रव्य से यह पालकी बनी हुई है, उससे यह तुम्हारा मेरा अथवा अन्य सबका शरीर भी बना है, जिसमें सबने ममता बढ़ा रक्खी है।

सनन्दनजी कहते हैं- ऐसा कहकर वे ब्राह्मणदेवता कंधे पर पालकी लिये मौन हो गये। तब राजा ने भी तुरंत पृथ्वी पर उतरकर उनके दोनों चरण पकड़ लिये ।

राजाने कहा – विप्रवर! यह पालकी छोड़कर आप मेरे ऊपर कृपा कीजिये और बताइये, यह छद्मवेश धारण किये हुए आप कौन हैं? किसके पुत्र हैं? अथवा आपके यहाँ आगमन का क्या कारण है ? यह सब आप मुझसे कहिये।

ब्राह्मण बोले- भूपाल ! सुनो-मैं कौन हूँ, यह बात बतायी नहीं जा सकती और तुमने जो यहाँ आने का कारण पूछा, उसके उत्तर में यहनिवेदन है कि कहीं भी आने-जाने का कर्म कर्मफल के उपभोग के लिये ही हुआ करता है। धर्मजनित सुख-दुःख का उपभोग करने के लिये ही जीव देह आदि धारण करता है। भूपाल! सब जीवों की सम्पूर्ण अवस्थाओं के कारण केवल उनके धर्म और अधर्म ही हैं।

राजाने कहा- इसमें संदेह नहीं कि सब कर्मों के धर्म और अधर्म ही कारण हैं और कर्मफल के उपभोगके लिये एक देह से दूसरी देह में जाना होता है, किंतु आपने जी वह कहा कि मैं कौन हूँ यह बात बतायी नहीं जा सकती, इसी बातको सुननेकी मुझे इच्छा हो रही है।

ब्राह्मण बोले- राजन् ! ‘अहं’ शब्द का उच्चारण जिह्वा, दन्त, ओठ और तालु ही करते हैं, किंतु ये नही हैं क्योंकि ये सब उस शब्द के उच्चारणमात्र में हेतु हैं। तो क्या इन जिह्वा आदि कारणों के द्वारा वह वाणी ही स्वयं अपने को ‘अहं’ कहती है! नहीं। अतः ऐसी स्थिति में तू मोटा है? ऐसा कहना कदापि उचित नहीं । राजन्! सिर और हाथ-पैर आदि लक्षणों वाला यह शरीर आत्मा से पृथक स्थित होता ही है। अतः इस ‘अहं’ शब्द का प्रयोग कहाँ और किसके लिये करूँ ? नृपश्रेष्ठ ! यदि मुझसे भिन्न कोई और भी हो उसका सजातीय आत्मा हो तो भी यह मैं हूँ और यह अन्य है-ऐसा कहना उचित हो सकता था। जब संपूर्ण शरीरों में एक ही आत्मा विराजमान है, तब आप कौन हैं और मैं कौन हूँ? यह सब व्यर्थ है।

नरेश! तुम राजा हो, यह पालकी है और ये सामने पालकी ढोने वाले खड़े हैं तथा यह जगतआपके अधिकार में है, ऐसा जो कहा जाता है, वह वास्तव में सत्य नहीं है। वृक्ष से लकड़ी पैदा हुई और उससे यह पालकी बनी, जिस पर तुम बैठते हो। यदि इसे पालकी ही कहा जाय तो इसका ‘वृक्ष’ नाम अथवा ‘लकड़ी नाम कहाँ चला गया? यह सेवकगण ऐसा नहीं कहते कि महाराज पेड़ पर चढ़े हुए हैं और न कोई तुम्हें लकड़ी पर ही चढ़ा हुआ बतलाता है । सब लोग पालकी में ही बैठा हुआ बतलाते हैं; किंतु पालकी क्या है——लकड़ियोंका समुदाय। वही अपने लिये एक विशेष नाम का आश्रय लेकर स्थित है नृपश्रेष्ठ! इसमें से लकड़ियों के समूह को अलग कर दो और फिर खोजो—तुम्हारी पालकी कहाँ है ? इसी प्रकार छाते की शलाकाओं (तिल्लियों) को पृथक करके विचार करो, छाता नाम की वस्तु कहाँ चली गयी ? यही न्याय तुम्हारे और मेरे ऊपर लागू होता है (अर्थात् मेरे और तुम्हारे शरीर भी पञ्चभूत से अतिरिक्त कोई वस्तु नहीं हैं)। पुरुष, स्त्री, गाय, बकरी, घोड़ा, हाथी, पक्षी और वृक्ष आदि लौकिक नाम मजनित विभिन्न शरीरों के लिये ही रक्खे गये हैं—ऐसा जानना चाहिये भूपाल ! आत्मा न देवता है, न मनुष्य है, न पशु और न वृक्ष ही है। ये सब तो शरीरों की आकृतियों के भेद हैं। भिन्न-भिन्न कर्मों के अनुसार उत्पन्न हुए है । राजन् ! जो राजा, राजा के सिपाही तथा और भी जो-जो ऐसी वस्तुएँ हैं, वे सब काल्पनिक है, सत्य नहीं हैं। नरेश ! जो वस्तु परिणाम आदि के कारण होने वाली किसी नयी संज्ञा को कालान्तर में भी नहीं प्राप्त होती, वही पारमार्थिक वस्तु है। विचार करो, वह क्या है ? तुम समस्त प्रजा के लिये राजा हो, अपने पिता के पुत्र हो, शत्रु के लिये शत्रु हो, पत्नी के लिये पति और पुत्र के लिये पिता हो। भूपाल ! बताओ, मैं तुम्हें क्या कहूँ ? महीपते तुम क्या हो ? यह सिर हो या ग्रीवा अथवा पेट या पैर आदि में से कोई हो तथा ये सिर आदि भी तुम्हारे क्या हैं ? पृथ्वीपते ! तुम सम्पूर्ण अवयवों से पृथक स्थित होकर भली भाँति विचार करो कि मैं कौन हूँ। नरेश ! आत्म-तत्त्व जब इस प्रकार स्थित है, जब सबसे पृथक् करके ही उसका प्रतिपादन किया जा सकता है, तो मैं उसे ‘अहं इस नाम से कैसे बता सकता हूँ ?

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