पंडित हर्षमणि बहुगुणा
जब हमारा मन पूर्णतया स्थिर एवं एकाग्र होता है, तभी पूरी तरह ऊर्जावान होकर उसकी पूरी शक्ति शुभ और श्रेष्ठ कार्य करने में व्यय हो पाती है।मन की स्थिरता और समस्त इंद्रियों का निग्रह ही शास्त्रों में आत्म संयम कहा गया है।
आत्म संयम को और सरल अर्थों में समझें तो वो ये कि हमारी समस्त इंद्रियों द्वारा श्रेष्ठ पथ का अनुगमन ही आत्म संयम है। दृश्येंद्रिय और श्रवणेंद्रिय यें दोनों मानव शरीर की दो प्रमुख और प्रधान इंद्रियां हैं। जिन्होंने इन दोनों को वश में कर लिया बाकी इंद्रियां अपने-आप वश में हो जाती हैं।
दृश्येंद्रिय का अर्थ है आँख और श्रवणेंद्रिय का अर्थ है कान। आँखों से हम जगत की भली बुरी घटनाओं को देखते हैं तो कानों से हम भली बुरी बातों को सुनते हैं। दृश्य और श्रवण का मानव जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है।
हमारे व्यक्तित्व निर्माण में सबसे बड़ी भूमिका अगर किसी की होती है तो वो इन्हीं दो इंद्रियों की होती है। हमने क्या देखा..? और हमने क्या सुना..? इन दो बातों पर हमारा व्यक्तित्व केंद्रित होता है।
आँखों से श्रेष्ठ को देखना, कानों से श्रेष्ठ को सुनना, हाथों से श्रेष्ठ को करना, वाणी से श्रेष्ठ को गाना, बुद्धि से श्रेष्ठ का चिंतन करना और मन से श्रेष्ठ को चाहना, इसी को हमारे शास्त्रों में आत्म संयम कहा गया है। सरल अर्थों में हमारी समस्त इंद्रियों द्वारा केवल और केवल श्रेष्ठ का अवलंबन ही तो आत्म संयम है।