आचार्य विद्या सागर
सत्य की पहचान और सत्य की परिभाषा बहुत गहराई में छुपी है। सत्य का निर्णय कठिन है। जल्दबाजी करने से सत्य भी असत्य सा प्रतीत होने लगता है। असत्य से विरक्ति ही सत्य है। सत्य बोलने का नाम सत्य नहीं, अपितु झूठ नहीं बोलना सत्य कहलाता है। सत्य को प्राप्त करने के लिए क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चारों पर नियंत्रण करना बहुत जरूरी है।
असल में हम क्रोध की वजह से झूठ बोलते हैं, अहंकार की वजह से झूठ बोलते हैं, छल की वजह से झूठ बोलते हैं, लोभ की वजह से झूठ बोलते हैं। हम इन चारों को जीतें, तब ही सत्य का पालन कर सकते हैं।
सत्य का आचरण किया जा सकता है, लेकिन उसका प्रदर्शन नहीं किया जा सकता। सत्य दर्शन का विषय है, प्रदर्शन का नहीं। जो व्यक्ति सत्य का प्रदर्शन करता है, वह अभी सत्य से परिचित ही नहीं है। अत: सत्य का आचरण करो। सत्य ही जीवन का सार है। हम ऐसा सत्य बोलें जिससे हमारा और दूसरों दोनों का कल्याण हो, लेकिन ऐसा सत्य भी नहीं बोलें, जिससे दूसरे पर संकट आ जाए। सत्य स्व और पर दोनों के लिये कल्याणकारी होना चाहिए।
सत्य से कभी अकल्याण नहीं हो सकता। असत्य से बचने के लिए हमें प्रमाद से बचना चाहिए, क्योंकि हम प्रमाद से ही असत्य का काम करते हैं। कषायों से बचना बहुत कठिन है और उनको जानना और भी कठिन है। हमको इन कषायों की जानकारी करनी चाहिए, ताकि हम अकल्याण से बच सकें।
सत्य का पालन बाहरी दुनिया को देखने से नहीं हो सकता। सत्य के लिए अपने अंदर देखना पड़ेगा। सत्य की रक्षा, सत्य का संरक्षण अपने भीतरी भावों को देखे बिना नहीं हो सकता। सत्य बोलने मात्र से सत्य का पालन नहीं हो सकता है, अपितु सत्य को जीवन में उतारना है। जो व्यक्ति अपने जीवन में सत्य का पालन नहीं करता, उसका सत्य बोलना कोई मायने नहीं रखता।