जब मेरे एक मित्र वीकएंड में मुझसे मिलने आए तो मैंने जाहिर प्रश्न पूछा कि आप रात के खाने में क्या लेंगे? उन्होंने कहा, चिंता मत कीजिए, मैं ‘ओमैड’ (OMAD) हूं। मेरे कान इस नए शब्द के अभ्यस्त नहीं थे, इसलिए मैंने इसे ‘गो मैड’ सुन लिया।
चूंकि उन्होंने उससे पहले चिंता मत कीजिए कहा था, इसलिए मेरे दिमाग में उसका अर्थ ही बदल गया। मैंने उसका मतलब निकाला कि जब मुझे भोजन दिखलाई देता है तो मैं बेरोकटोक खाने लगता हूं या मुझे फूड की क्रैविंग होती है और मैं कुछ भी खा सकता हूं। जब हम डिनर टेबल जमाने लगे तो उन्होंने मुझे ‘ओमैड’ (OMAD) का वास्तविक मतलब बताया। इसका अर्थ था- ‘वन मील अ डे।’
वे उन लोगों में से थे, जो योग-अभ्यासों से प्रेरित हैं और दिन में एक बार भोजन लेते हैं। ‘ओमैड’ लोगों का यह समूह इस रीति से अपनी शुगर, बीपी और बढ़ते वजन जैसी समस्याओं का समाधान कर रहा है। कार्बोहाइड्रेट (गेहूं और चावल) के उत्पादन से भरपूर नए भारत में यह नई जीवनशैली है।
1949 में जब हमने गेहूं और चावल की कम उपज के चलते भुखमरी का सामना किया था, तब ऐसी कहानियां अकसर सुनाई जाती थीं कि हमारे पुरखों ने अनाज की बचत के लिए एक बार खाना छोड़ दिया था। ऐसी भी कहानियां थीं कि कैसे कुछ लोगों ने 75% गेहूं में 25% शकरकंद मिलाकर रोटी बनाई थी और घर में उपजाए जा सकने वाले पौधों से कार्बोहाइड्रेट की भरपाई की थी। कहते हैं कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी ऐसा ही करते थे।
यह वर्ष 2023 है और समाज के ऊपरी तबके के अनेक लोग इस ‘ओमैड’ तकनीक के माध्यम से खुद को तंदुरुस्त रखने की कोशिश कर रहे हैं। आठ घंटे के अंतराल में खाने के बजाय वे एक बार जमकर भोजन करते हैं। अगर इसके बाद के घंटों में शरीर को और ऊर्जा की जरूरत होती है तो वे चाय, कॉफी, स्मूदी, फल या सूखे मेवों से उसकी भरपाई करते हैं। यानी वे अपने शरीर को पोषण देते हैं, उसे जरूरत से ज्यादा भर नहीं लेते।
वास्तव में दस दिन के लिए नेचरोपैथी लेने वाले बहुत सारे लोग उस प्रैक्टिस को सामान्य कामकाजी जीवन में भी जारी रखते हैं। ‘ओमैड’ की प्रैक्टिस करने वाले मेरे मित्र का बीपी नॉर्मल हो गया है और चूंकि उनके शरीर को भोजन को पचाने में ऊर्जा का व्यय नहीं करना पड़ता, इसलिए वे स्वस्थ रहते हैं।
वे सुबह साढ़े पांच बजे जाग जाते हैं, शहद के साथ नीबू का रस लेते हैं और वॉक करने चले जाते हैं। वहां से लौटने के बाद वे दो घंटों के अंतराल में दो प्याला चाय लेते हैं, लेकिन शकर के बिना। दस बजे से पहले वे फल खाते हैं। उनके लंच का समय दोपहर डेढ़ से साढ़े तीन बजे के बीच होता है।
वे फोर्क या चम्मच का इस्तेमाल नहीं करते। वे भोजन को छूते हैं और धीमी गति से मुंह के पास ले जाते हैं, ताकि उसकी खुशबू को अनुभव कर सकें। वे भोजन को अच्छी तरह से चबाते हैं और उसे ठीक उसी तरह अपने भीतर जाता हुआ अनुभव करते हैं, जैसे हम योग-अभ्यास के दौरान श्वास को भीतर लेने को महसूस करते हैं। शाम सात बजे से पहले अगर उनका कुछ खाने का मन होता है तो वे ताजा सूप लेते हैं। वे प्रोसेस्ड फूड, नॉनवेज और फ्रिज में रखे भोजन से दूर रहते हैं।
फंडा यह है कि अपने शरीर की सुनें, मुआयना करें कि आपका शरीर अलग तरह के भोजन पर कैसे रिएक्ट करता है और उसके आधार पर अपना मेनु लिखें। लेकिन ध्यान रखें कि यह आप किसी प्रोफेशनल डायटीशियन की निगरानी में करें। क्योंकि हम सामान्यजनों को भोजन के विज्ञान और अपने शरीर के जैविक-तंत्र के बारे में उनसे कम मालूम होता है।