यज्ञ हमारी संस्कृति की प्राचीन व सर्वश्रेष्ठ परंपरा : स्वामी कमलानंद

स्वामी कमलानंद (डा कमल टावरी) 

ऋषियों के देश भारत की कुछ ऐसी अद्भुत विशेषताएं हैं कि उनके कारण यह देश सुदीर्घ काल तक विश्व का मार्ग दर्शन करता रहा। वेदों से लेकर पूजन पद्धतियों तक में हर जगह यज्ञ और हवन का महत्व बताया गया है। यज्ञ सनातन संस्कृति का हिस्सा माना गया है। लेकिन, ये सिर्फ कोई धार्मिक काम नहीं है, ​यज्ञ एक महत्वपूर्ण विज्ञान है। वेद मंत्रों के उच्चारण की शक्ति से उस प्रभाव में और अधिक वृद्धि होती है।

यज्ञ हमारी संस्कृति की प्राचीन और सबसे श्रेष्ठ परंपरा है। इसकी महत्ता को विज्ञान ने भी स्वीकार किया है। इसमें डाली आहुतियों से व्यक्ति को समाज को कुछ देने की शिक्षा मिलती है। यज्ञ से प्रकृति एवं सृष्टि को भी ऊर्जा मिलती है।

सम्पूर्ण विश्व को चरित्र, सदाचार और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले भारत को भले ही कुछ दिग्भ्रमित लोग पिछड़ा हुआ देश कहें, जबकि वास्तविकता यह है कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अग्रणी हैं। ज्ञान, विज्ञान, कला-कौशल, व्यापार, उद्योग, राजनीति, शिक्षा व्यवस्था, दर्शन, ज्योतिष, चिकित्सा विज्ञान। कौन सा ऐसा क्षेत्र था जिसमें हमारी उपलब्धियां आश्चर्यजनक नहीं रही ? आर्यभट्ट, वराहमिहिर, भास्कराचार्य, महर्षि भारद्वाज, गौतम, कणाद, कपिल, चाणक्य आदि के इस देश में विज्ञान की ऐसी कौन सी विधा थी जिसमें हम शिखर पर नहीं रहे?

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध से विश्व जब प्रदूषण की समस्या से संकटापन्न हुआ तो पर्यावरण रक्षा की चिन्ता मानव को आकुल-व्याकुल करने लगी। इस पर बड़े-बड़े सम्मेलन आयोजित किये जाने लगे। पुस्तकें प्रकाशित हुई? पत्र-पत्रिकाओं में प्रदूषण निवारण और पर्यावरण संरक्षण पर वैज्ञानिकों, शिक्षा शास्त्रियों एवं समाज सेवियों के लेख छपने लगे। किंतु समस्या का स्थायी समाधान नहीं हो पाया है।

हमारे ऋषियों, मनीषियों और आचार्यों ने अपनी विमल मेधा और ईश्वरोक्त वैदिक ज्ञान के आलोक में कुछ ऐसे अमोघ साधन दिये जिनसे अल्प परिश्रम एवं अल्प साधन से अत्यधिक लाभ प्राप्त हो सकेंगे।

इन्हीं दिव्य साधनों में एक है ‘यज्ञ’। यज्ञ अग्निहोत्र ही नहीं है। यह बहुत व्यापक है। यज्ञ की परंपरा प्राचीनकाल से रही है। ऋषि वनों में रहते हुए प्रातः सायं दैनिक यज्ञ किया करते थे। पंच महायज्ञों का प्रचलन था। धार्मिक अनुष्ठान के समय वृक्षों में भगवान का वास मानकर पीपल, बरगद, आम, अशोक, बिल्व, पारिजात, आंवला आदि की पूजा की जाती है। ऋषि-मुनि, यज्ञ को सफलता और सिद्धिकारक मानते थे और वायुमंडल की शुद्धि का कारक भी मानते थे। यही कारण था कि उस समय लोग निरोग और दीर्घायु होते थे।

यज्ञ का संबंध मन से है और शुभ संस्कार मन के साथ रहते हैं। इसीलिए मनु ने भी कहा है, “ऋषि यज्ञं देव यज्ञं भूत यज्ञं च सर्वदा, नृयज्ञं, पितृयज्ञं च यथा शक्ति न हाययेत्।” कहने का तात्पर्य यह कि सभी ने यज्ञ करने पर जोर दिया।

बता दें, कि भारत में सनातन धर्मावलंबियों के प्रत्येक संस्कारो व संस्कृति के पीछे हमेशा विज्ञान ही रहा है। इस भौतिकवादी युग में मनुष्य का झुकाव पाश्चात्य संस्कृति की ओर उन्मुख हो गया है। यज्ञ का आधार कोरी कल्पनाएं नहीं हैं, लेकिन हम इसके महत्त्व को गौण समझ बैठे हैं।

हमारी नई पीढ़ी इस प्रकार के कार्यों को यह कहकर नकार देती है कि यह सब दकियानूसी है। पर यह सच है कि उस विज्ञान को न समझने की कोशिश ने हमें आज भटका हुआ समाज मान लिया है।

वेदों को विज्ञान की परम चेष्टा समझनी चाहिए। हमारे हर वेद गहन सोच का ही परिणाम है। ऋषि-मुनि उस समय के विज्ञानी ही थे जो विषय की गहराई को समझकर सिद्धांत प्रतिपादित करते थे। उनकी सत्य को प्राप्त करने की परिभाषा मात्र मोक्ष तक ही सीमित नहीं थी बल्कि कई विषयों को समझकर उनके व्यवहारिक पहलुओं को समाज के बीच में लाना भी उनका दायित्व था। वेदकाल के विज्ञान की कुछ बातें महत्त्वपूर्ण थी। पहला यह स्पष्ट रूप से स्थानीय संसाधनों पर आधारित था तथा दूसरे यह व्यवहारिक तो था ही पर साथ में सरलता इसका महत्वपूर्ण गुण था।

आज भी वेदों का ज्ञान उतना ही व्यवहारिक है जितना कि पूर्व के समय में। बल्कि उनकी सार्थकता आज ज्यादा है। कारण है कि आज हम जीवन के मूल मंत्रों से भटक गए हैं। हमने नयी खोजों से अपना वर्तमान को ही खराब किया है, भविष्य को भी खतरे में डाल दिया है।

अग्नि अमूल्य है जीवन का संबंध आरोग्यता से है और आरोग्यता का संबंध यज्ञ-हवन से। मनु के अनुसार, “यज्ञ-व्रतादि से मानव शरीर व आत्मा को ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है। यज्ञ से ही तपने वाला सूर्य कल्याणकारी बनता है और यज्ञ से ही जीवनाधार पर्जन्य (बादल) कल्याणकारी बनकर बरसता है। ‘यज्ञाद भवति पर्जन्यो यज्ञकर्म समुदभवः’ अतः यज्ञ में प्राणि-मात्र के सुखी होने की कामना निहित है।”

Uttarakhand

वेदों में यज्ञ के महत्त्व पर विस्तृत जानकारी दी गई है। ऋग्वेद में कहा गया है यज्ञानुष्ठान की महान उपासना को करते रहो। जहां यज्ञ नहीं किए जाते हैं, वहां से सुख-शांति चली जाती है (2/30/6)। प्रत्येक शुभ कार्य को यज्ञ के साथ आरंभ करो, यज्ञ के साथ शुरू किए कार्य सफल होते हैं (10/10/21)। विश्वशांति का सर्वश्रेष्ठ आधार यज्ञ भी है (10/66/2)।

यजुर्वेद में यज्ञ की महिमा का उल्लेख इस तरह से है-सुख-शांति चाहने वाला कोई व्यक्ति यज्ञ का त्याग नहीं करता। जो यज्ञ को जीवन में छोड़ता है, उसे यज्ञ रूप परमात्मा भी छोड़ देते हैं (2/22)। यह यज्ञाग्नि वृष्टि कराने वाली, धन देने वाली तथा पुष्टि और शक्ति बढ़ाने वाली है। (3/40)। जिसके हृदय में यज्ञ ज्वाला प्रदीप्त होकर विराजती है, वहां अज्ञान, अंधकार, असुरता आदि कैसे ठहर सकते हैं। सच्चा यजकर्ता एक दिन सम्पूर्ण अंधकार और अज्ञान से मुक्त होकर परमात्मा के चरणों में पहुंच जाता है। (3/8) हे यज्ञ ! तुम सुखकर हो और आश्रय लेने योग्य हो, तुम से रोग नष्ट होते हैं तथा रोग के कीटाणु भी ध्वस्त होते हैं। तुम पृथ्वी के लिए त्वचा की भांति रक्षक हो (1/14)। यज्ञ ही प्रमुख धर्म है। (31/6) हे यज्ञ तुम देवों के भोजन हो, अतः इस हवि के द्वारा तुम उन्हें प्रसन्न करो, जिससे वे प्रसन्न होकर यज्ञकर्त्ता को सुख और कल्याण प्रदान करें (1/20)।

शतपथ ब्राह्मण में यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म बताया गया है। तैत्तरीय ब्राह्मण के अनुसार यज्ञ का पुण्यफल कभी नष्ट नहीं होता, बुद्धिमानी पूर्वक यज्ञ का अक्षय पुण्य संचित करते रहो। कठोपनिषद के यम नचिकेता संवाद में यज्ञ को देवताओं पितरों तथा ऋषियों का जीवन प्राण बताया गया है। सरस्वती उपनिषद के अनुसार यज्ञ से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है और यज्ञ से ही सरस्वती प्रसन्न होती है।

रामायण में भी यज्ञ की महिमा का वर्णन किया गया है। दशरथ ने चारों पुत्रों को यज्ञ से ही प्राप्त किया था रावण भी यज्ञ की शक्ति से परिचित था। इसलिए राक्षसों को इनमें विघ्न डालने और नष्ट करने के लिए उकसाता रहता था।

महाभारत में वर्णन है कि यज्ञ से लोक परलोक का सुख प्राप्त होता है। यज्ञ के समान दूसरा कोई दान नहीं है। असुर और सुर सभी पुण्य के मूल हेतु यज्ञ के लिए प्रयास करते हैं। सत्पुरुषों को सदा यज्ञ के लिए तत्पर रहना चाहिए।

पद्मपुराण में कहा गया है- अग्निहोत्र से बढ़कर पवित्र कर्म संसार में नहीं है। सब पापों में रत व्यक्ति भी यज्ञ करके पापमुक्त हो जाता है। अग्निपुराण में कहा गया है कि जो निष्काम भाव से हवन करता है, वह परब्रह्म को प्राप्त करता है।

श्रीमद्भागवत में यज्ञ की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। इसमें सृष्टि का आरंभ यज्ञ से बताया गया है। महाप्रतापी सम्राट भरत के नाम से देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। भागवत पंचम स्कन्ध में उल्लेख मिलता है कि भरत ने सब भांति पूर्ण विधि के साथ सौ बार अश्वमेध यज्ञ किए थे।

इसलिए हवन को बनाया हमारी संस्कृति

हमारे ऋषि-मुनि यह मानते थे कि आग में डाला हुआ कोई भी पदार्थ नष्ट नहीं होता है। अग्नि किसी भी पदार्थ से उसके गुणों को वायुमंडल में मुक्त कर देता है जिससे उसके गुणों में कई गुना वृद्धि होती है। एक चम्मच घी एक आदमी खाता है तो उसकी लाभ-हानि सिर्फ खाने वाले आदमी तक ही सीमित है, परंतु यज्ञ कुंड में एक चम्मच घी अनेक व्यक्तियों को लाभ पहुंचाता है। एक बात यह भी है कि किसी चीज़ को आग में डालने से उसका दायरा, उसका क्षेत्र ही नहीं बढ़ता है, बल्कि उसके गुण भी बढ़ जाते हैं। इसलिए यजुर्वेद में अग्नि को ‘धूरसि’ कहा जाता है।

महर्षियों ने इसका अर्थ दिया है कि भौतिक अग्नि पदार्थों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने पर उनकी क्रियाशीलता उतनी ही बढ़ जाती है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धांत है। जैसे अणु से सूक्ष्म परमाणु और परमाणु से सूक्ष्म इलेक्ट्रान होता है। अतः ये क्रमानुसार एक-दूसरे से ज्यादा क्रियाशील एवं गतिशील है। यज्ञ में यह सिद्धांत एक साथ काम करते हैं। यज्ञ में डाली गई समिधा अग्नि द्वारा विघटति होकर सूक्ष्म बनती है, वहीं दूसरी तरफ वही सूक्ष्म पदार्थ अधिक क्रियाशील एवं प्रभावी होकर विस्तृत क्षेत्र को प्रभावित करते हैं।

अतः हमें निज हित व लाभ सहित समाज व देश हित के कामों के लिये यज्ञ-हवन का अनुष्ठान करना चाहिये। हम सदैव सुखी, निर्भय, स्वस्थ तथा दीर्घजीवी हों। आइए आज से ही हम सब रोजाना हवन-यज्ञ का संकल्प लें।

Uttarakhand

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *