दुख में भगवान की स्वत: ही याद जाती है। सुख आने पर जीव भगवान को भुला देता है। यही कारण है कि कुन्ती ने भगवान से दुख मांगा, ताकि भगवान उसे हमेशा याद रहें।
हिमशिखर धर्म डेस्क
भगवान श्रीकृष्ण उत्तरा के गर्भ में परीक्षित महाराज की रक्षा करने के बाद जब द्वारका जाने लगे है तो मार्ग में आई हैं कुंती महारानीजी। ये कृष्ण जी की बुआ लगती है। इन्होने रथ को रोक दिया। भगवान रथ से उतरे और बुआ को प्रणाम किया। कुंती ने भगवान कृष्ण की स्तुति की। इस स्तुति में नवधा भक्ति – (श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन ये सभी भाव समाहित हैं।)
“कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम: ॥”
कुंती कहती है ‘हे कृष्ण, हे वासुदेव, हे देवकीनंदन, हे नन्द के लाला, हे गोविन्द आपको मेरा प्रणाम !
“नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने ।
नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घ्रये ।।”
जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है जिन्होँने कमलोँ की माला धारण की है। जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल है और जिनके चरणोँ मेँ कमल चिह्न हैँ ऐसे हे कृष्ण आपको बार बार वंदन है।
भगवान बोले- मेरी प्यारी बुआ, तू मेरी इतनी स्तुति कर रही है, क्या बात है? आपकी कुछ लेने की इच्छा है क्या? कुंती बोली- आपकी स्तुति कोई तब ही करता है क्या जब किसी को कुछ मांगना हो ?
कृष्ण कहते है– हाँ बुआ संसार मे तो यही देखने मे आता है। तब कुंती कहती है अच्छा, मै मांगू तू देगा ना, देख कहीं तेरा हाथ देते देते न रुक जाये ?
अब भगवान सोच मे पड़ गए- मेरी बुआ पता नही क्या मांग लेगी और मैं दे भी पाउगा या नहीं?
देखिये कुंती क्या मांगती है –
“विपद: सन्तु ता: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ॥”
हे कान्हा तू मुझे कुछ देना चाहता है तो मुझे दुःख दे दे ।
भगवान बोले की बुआ ये क्या मांग रही है। संसार तो मुझसे सुख की कामना करते करते थकता नहीं है और एक तू है जो दुःख मांग रही है। ऐसा वरदान आज तक किसी ने नहीं माँगा होगा ।
कुंती कहती है की मैंने संसार मे देखा है जब सुख होता है तब वो भगवान को भूल जाता है और जब दुःख होता है तो पल पल आपकी याद आती है। ऐसा सुख किस काम का? जब हमारे जीवन मे दुःख थे तब आप हमारे साथ थे और आज जब सुख आया है तो आप हमे छोड़ कर जा रहे हो ? इसलिए मुझे तुझसे बस दुःख चाहिए – कुंती कहती है की मुझे वो सुख नहीं चाहिए जिसे पाकर मे आपको भूल जाऊ ।
“दुःख मे सुमिरन सब करे सुख मे करे ना कोय,
जो सुख मे सुमिरन करे तो दुःख कहे हो होए”
“सुख के माथे सील पर जो हरी नाम भुलाये ,
बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम रटाये ।।”
हे गोविन्द ऐसा सुख जो आपको भुलाये मुझे नहीं चाहिए, मुझे तो बस दुःख दे दो। तब भगवान मुस्करा दिए है मानो अपनी माया बुआ पर फेर दी है ।
भगवान कहते है कि बुआ मेरे बचपन की बात बताओ ना कुछ।
तब कुंती जी भगवान की कुछ बाल लीलाओं को भगवान को याद दिलाती हैं और भगवान बहुत खुश होते है।
श्रीमद्भभागवतपुराण में भगवान् की, उनके कृपा प्राप्त भक्तों के द्वारा की गयी स्तुतियां हैं।
भगवान् ने गीता में कहा है-
“जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।
त्यक्तवा देह पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।” (४/९)
– हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य हैं अर्थात् भगवान् के जन्म प्रारब्ध भोग के लिए, प्रारब्धवशात् नहीं होते। बल्कि वे स्वयं उनके द्वारा योगमाया का आश्रय लेकर लीला विलास के लिए लिए जाते हैं। प्रारब्धवशात् लिए गये जन्मों का स्मरण नहीं रहता।
इसीलिए भगवान् ने अर्जुन से कहा है-
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।।४/५)
– हे अर्जुन! तुम्हारे अनेक जन्म हो चुके हैं, उन्हें मैं जानता हूँ, हे परंतप,परम तपस्वी अर्जुन तुम उन्हें नहीं जानते हो।
भगवान् श्री कृष्ण की स्तुतियां अनेक भक्तों के द्वारा की गई है। भक्त ध्रुव के द्वारा, भक्त प्रह्लाद के द्वारा, गज के द्वारा (गजेन्द्र मोक्ष), पितामह भीष्म के द्वारा।
किन्तु महारानी कुन्ती के द्वारा के द्वारा की गई स्तुति सभी स्तुतियों से अलग है।
इसमें महारानी कुन्ती भगवान् श्री कृष्ण से दुःख मांगती हैं, यह अद्भुत है, किसी भक्त ने ऐसा नहीं मांगा।
किसी ने राज्य मांगा, किसी ने मोक्ष मांगा,किसी ने भगवान् की सेना मांगी (दुर्योधन), किसी ने भगवान् को ही मांग लिया (अर्जुन)।
किन्तु महारानी कुन्ती कहती हैं-
“विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।।”
हे जगद्गुरु! हमारे जीवन में हमेशा जहां-जहां हम जाएं, विपत्तियां आती रहें, जिससे आपके दर्शन हों और इस संसार का, भव का दर्शन नहीं हो, जन्म-मृत्यु के चक्र में नहीं पड़ना पड़े।
महारानी कुन्ती के द्वारा की गई भगवान् श्री कृष्ण की भक्ति-भावित स्तुति श्रीमद्भागवत महापुराण के प्रथम स्कंध अध्याय आठ, श्लोक- १८ से ४३ तक में वर्णित है। इसके पाठ करने से कई फल मिलते हैं।
।। अथ श्रीमद्भागवतपुराण कुंतीकृत श्रीकृष्ण स्तुति ।।
अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से उत्तरा के गर्भ में परीक्षित की रक्षा करने के बाद जब भगवान् जाने लगे तो अपने पुत्रों तथा द्रौपदी के साथ महारानी कुन्ती ने भगवान् श्री कृष्ण की इस प्रकार स्तुति की—
कुंती उवाच
नमस्ये पुरुषं त्वाद्यमीश्वरं प्रकृतेः परम्। अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवस्थितम्।।१८।।
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षजमव्ययम्। न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाट्यधरोयथा।।१९।।
तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम्। भक्तियोग विधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रियः।।२०।।
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च। नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नमः।।२१।। नमः पंकजनाभाय नमः पंकजमालिने। नमः पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजांघ्रये।।२२।।
यथा हृषिकेश खलेन देवकी कंसेन रुद्धातिचिरं शुचार्पिता। विमोचिताहं च सहात्मजा विभो त्वयैव नाथेन मुहुर्विपद्गणात्।।२३।।
विषान्महाग्नेः पुरुषाददर्शनादसत्सभाया वनवासकृच्छ्रतः। मृधे मृधेऽनेकमहारथास्त्रतो द्रौण्यस्त्रतश्चास्म हरेऽभिरक्षिता।।२४।।
विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र -तत्र जगद्गुरो। भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्।।२५।।
जन्मैश्वर्यश्रुतश्रीभिरेधमानमदः पुमान्। नैवार्हत्यभिधातुं वै त्वामकिञ्चनगोचरम्।।२६।।
नमोऽकिञ्चनवित्ताय निवृत्तगुणवृत्तये। आत्मारामाय शान्ताय कैवल्यपतये नमः।।२७।।
मन्ये त्वां कालमीशानमनादिनिधनं विभुम्। समं चरन्तं सर्वत्र भूतानां यन्मिथः कलिः।।२८।।
न वेद कश्चिद्भगवंश्चिकीर्षीतं तवेहमानस्य नृणां विडम्बनम्।
न यस्य कश्चिद्दयितोऽस्ति कर्हिचिद् द्वेष्यश्च यस्मिन् विषमा मतिर्नृणाम्।।२९।।
जन्म कर्म च विश्वात्मन्नजस्याकर्तुरात्मनः।
तिर्यङ्नृषिषु यादःसु तदत्यन्तविडम्बनम्।।३०।।
गोप्याददे त्वयि कृतागसि दाम तावद् या ते दशाश्रुकलिलाञ्जनसम्भ्रमाक्षम्।
वक्त्रं निनीय भयभावनया स्थितस्य
सा मां विमोहयति भीरपि यद्विभेति।।३१।।
केचिदाहुरजं जातं पुण्यश्लोकस्य कीर्तये।
यदो: प्रियस्यान्ववाये मलयस्येव चन्दनम्।।३२।।
अपरे वसुदेवस्य देवक्यां याचितोऽभ्यगात्।
अजस्त्वमस्य क्षेमाय वधाय च सुरद्विषाम्।।३३।।
भारावतारणायान्ये भुवो नाव इवोदधौ।
सीदन्त्या भूरि भारेण जातोह्यात्मभुवार्थितः।।३४।।
भवेऽस्मिन् क्लिश्यमानानामविद्याकामकर्मभिः।श्रवणस्मरणार्हाणि करिष्यन्निति केचन।।३५।।
श्रृण्वन्ति गायन्ति गृणन्त्यभीक्ष्णशः स्मरन्ति नन्दन्ति तवेहितं जनाः। त एव पश्यन्त्यचिरेण तावकं भवप्रवाहोपरमं पदाम्बुजम्।।३६।।
अप्यद्य नस्त्वं स्वकृतेहित प्रभो जिहाससि स्वित्सुहृदोऽनुजीविनः। येषां न चान्यद्भवतः पदाम्बुजात् परायणं राजसु योजिताहंसाम्।।३७।।
के वयं नामरूपाभ्यां यदुभिः सह पाण्डवाः। भवतोऽदर्शनं यर्हि हृषीकाणामिवेशतुः।।३८।।
नेयं शोभिष्यते तत्र तथेदानीं गदाधरः। त्वत्पदैरङ्किताभाति स्वलक्षणविलक्षितैः।।३९।।
इमे जनपदाः स्वृद्धाः सुपक्वौषधिविरुधः। वनाद्रिनद्युदन्वन्तो ह्येधन्ते तव वीक्षितैः।।४०।।
अथ विश्वेश विश्वात्मन् विश्वमूर्ति स्वकेषु मे। स्नेहपाशमिमं छिन्धि दृढं पाण्डुषु वृष्णिषु।।४१।।
त्वयि मेऽनन्यविषया मतिर्मधुपतेऽसकृत्। रतिमुद्वहतादद्धा गङ्गेवौघमुदन्वति।।४२।।
श्रीकृष्ण कृष्णसख वृष्ण्यृषभावनिध्रुग् राजन्य वंशदहनानपवर्गवीर्य। गोविन्द गोद्विजसुरार्तिहरावतार योगेश्वराखिलगुरो भगवन्नमस्ते।।४३।।
।। कुंतीकृत श्रीकृष्ण स्तुति: सम्पूर्णम् इति ।।
उक्त छब्बीस (२६) श्लोकों से भगवान् श्रीकृष्ण की, उनके बुआ महारानी कुन्ती द्वारा की गयी यह स्तुति अद्भुत है।
श्लोक संख्या- २२ बहुप्रयुक्त है एवं इसमें सर्वाधिक चार बार भगवान् के लिए नमस्कार शब्द का प्रयोग किया गया है।
इस स्तुति में श्लोक संख्या- १८ में एक बार, श्लोक संख्या-२१में दो बार, श्लोक संख्या-२२में चार बार, श्लोक संख्या- २७में दो बार एवं श्लोक संख्या-४३ में एक बार कुल – दस बार प्रत्यक्ष रूप से भगवान् के लिए नमस्कार शब्द का प्रयोग किया गया है।
इसके अतिरिक्त भगवान् के विभिन्न नामों में नमस्कार का अन्वय है अर्थात् चतुर्थी विभक्ति का प्रयोग कर भगवान् को नमस्कार अर्पित किया गया है। नमः स्वस्ति स्वाहा स्वधाऽलंवषड्योगाच्च।। (पाणिनि कृत अष्टाध्यायी सूत्र -२।३।१६।।) एभिर्योगे चतुर्थी स्यात्।
इनके अर्थ एवं भावार्थ
कुन्ती कहती हैं-
हे प्रभो! आप सभी जीवों के बाहर और भीतर एक समान स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियों से देखे नहीं जाते क्योंकि आप प्रकृति से परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं, मैं आपको नमस्कार करती हूँ।।१८।।
इन्द्रियों के अन्तःप्रवृत्त होने पर जिनका ज्ञान होता है(अधोक्षज) अथवा इन्द्रियों के ज्ञान के कारणभूत आप अपनी माया के परदे से अपने को ढंके रहते हैं। मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तम को कैसे जान सकती हूँ, हे लीलाधर! जैसे मूढ़ लोग वेश बदले हुए नट को प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दिखते हुए भी नहीं दिखते।।१९।।
आप शुद्ध हृदयवाले,विचारशील जीवनमुक्त परमहंसों के हृदय में अपनी प्रेममयी भक्ति का सृजन करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं फिर हम स्त्रियां आपको किस प्रकार देख सकती हैं।।२०।।
आप श्री कृष्ण, वासुदेव,देवकीनन्दन,नन्दगोप लाडले लाल गोविन्द को हमारा बारम्बार प्रणाम है।।२१।।
जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्म स्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हैं,जिनके नेत्र कमल के समान हैं,जिनके चरण कमलों में कमल का चिह्न है,ऐसे श्री कृष्ण को मेरा बारम्बार प्रणाम है।।२२।।
हे हृषिकेश! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और चिरकाल से शोकग्रस्त देवकी की रक्षा की थी, वैसे ही हे व्यापक प्रभु! पुत्रों के साथ मैं भी आपके द्वारा बार- बार विपत्तियों से रक्षित हुई।।२३।।
हे हरि, हे श्री कृष्ण विष से,लाक्षागृह की भयानक आग से,हिडिम्ब आदि राक्षसों की दृष्टि से, दुष्टों की द्यूत-सभा से,वनवास की विपत्तियों से और अनेक बार के युद्धों में अनेक महारथियों के शस्त्रास्त्रों से और अभी- अभी इस अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र से भी आपने ही हमारी रक्षा की है।।२४।।
• हे जगद्गुरु! हमारे जीवन में सर्वदा पग- पग पर विपत्तियां आती रहें,क्योंकि विपत्तियों में ही आपके दर्शन हुआ करते हैं और आपके दर्शन हो जाने पर फिर संसार(जन्म-मृत्यु- चक्र)के दर्शन नहीं होते।।२५।।
• ऊंचे कुल में जन्म, ऐश्वर्य, विद्या और सम्पत्ति के कारण बढ़ते हुए अभिमान वाले मनुष्य तो आपका नाम भी नहीं ले सकता है,क्योंकि आप अकिञ्चन को दर्शन देते हैं।।२६।।
• हे, निर्धनों के परम एवं एकमेव धन, माया-प्रपंच के स्पर्श से भी परे, स्वयं में रमण करने वाले, परम शान्त- स्वरूप, मोक्ष के अधिपति आपको मैं बार-बार नमस्कार करती हूँ।।२७।।
• आपको अनादि, अनन्त,सर्वव्यापक, सबके नियन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती हूँ। संसार के समस्त पदार्थ और प्राणी आपस में टकराकर विषमता के कारण परस्पर विरुद्ध हो रहे हैं, परन्तु आप सबमें समान रूप से विचर रहे हैं।।२८।।
• भगवन् ! जब आप मनुष्यों जैसी लीला करते हैं, तब आप क्या करना चाहते हैं यह कोई नहीं जानता, आपका कोई न कभी प्रिय है न अप्रिय। आपके सम्बन्ध में लोगों की बुद्धि ही विषम हुआ करती है।।२९।।
• आप विश्व के आत्मा हैं, विश्वरूप हैं। न आप जन्म लेते हैं और न कर्म ही करते हैं। फिर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋषि, जलचर, आदि में आप जन्म लेते हैं और उन योनियों के अनुरूप दिव्य कर्म भी करते हैं। यह आपकी लीला ही तो है।।३०।।
• जब बचपन में आपने दही की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को खिझा दिया था और उन्होंने आपको बांधने के लिए हाथ में रस्सी ली थी, तब आपकी आंखों में आंसू छलक आए थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेत्र चञ्चल हो रहे थे और भय की भावना से आपने अपने मुख को नीचे झुका लिया था।आपकी उस दशा का लीला- छवि का ध्यान करके मैं मोहित हो जाती हूँ।भला, जिससे भय भी भय मानता हो,उसकी यह दशा!।।३१।।
• आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों लिया है इसका कारण बतलाते हुए कोई- कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जैसे मलयाचल की कीर्ति का विस्तार करने के लिए उसमें चन्दन प्रकट होता है,वैसे ही अपने प्रिय भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु की कीर्ति का विस्तार करने के लिए ही आपने उनके वंश में अवतार ग्रहण किया है।।३२।।
• दूसरे लोग यों कहते हैं कि वसुदेव और देवकी ने पूर्वजन्म में (सुतपा और पृश्नि के रूप में) आपसे यही वरदान प्राप्त किया था, इसीलिए आप अजन्मा होते हुए भी जगत् के कल्याण और दैत्यों के नाश के लिए उनके पुत्र बने हैं।।३३।।
• कुछ और लोग यों कहते हैं कि यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यंत भार से समुद्र में डूबते हुए जहाज की तरह डगमगा रही थी,पीड़ित हो रही थी,तब ब्रह्मा की प्रार्थना से उसका भार उतारने के लिए आप प्रकट हुए।।३४।।
• कोई महापुरुष यों कहते हैं कि जो लोग इस संसार में अज्ञान,कामना और कर्मों के बंधन में जकड़े हुए पीड़ित हो रहे हैं, उन लोगों के लिए श्रवण और स्मरण करने योग्य लीला करने के विचार से ही आपने अवतार ग्रहण किया है।।३५।।
• भक्तजन बार-बार आपके चरित्र का श्रवण, गान, कीर्तन एवं स्मरण करके आनन्दित होते रहते हैं। वे ही अविलंब आपके उस चरणकमल का दर्शन कर पाते हैं, जो जन्म मृत्यु के प्रवाह को सदा के लिए रोक देता है।।३६।।
• भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभो! क्या अब आप अपने आश्रित और सम्बन्धी हमलोगों को छोड़कर जाना चाहते हैं? क्या आप जानते हैं कि आपके चरण कमलों के अतिरिक्त हमें और किसी का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही विरोधी हो गये हैं।।३७।।
• जैसे जीव के बिना इन्द्रियां शक्तिहीन हो जाती हैं,वैसे ही आपके दर्शन बिना यदुवंशियों के और हमारे पुत्र पाण्डवों के रूप और गुण का अस्तित्व ही क्या रह जाता है।।३८।।
• हे गदाधर! आपके विलक्षण चरण चिह्नोंसे चिह्नित यह कुरु जाङ्गल -देश की भूमि आज जैसी शोभायमान हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद नहीं रहेगी।।३९।।
• आपकी दृष्टि के प्रभाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन,पर्वत,नदी और समुद्र भी आपकी दृष्टि से ही वृद्धि को प्राप्त हो रहे हैं।।४०।।
• आप विश्व के स्वामी हैं, विश्व के आत्मा हैं और विश्व रूप हैं। यदुवंशियों और पाण्डवों में मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ फांसी को काट दीजिये।।४१।।
• श्री कृष्ण जैसे गंगा की अखण्ड धारा समुद्र में गिरती रहती है, वैसे ही मेरी बुद्धि किसी दूसरे ओर न जाकर आपसे निरन्तर प्रेम करती रहे।।४२।।
• श्री कृष्ण! अर्जुन के प्यारेसखा यदुवंशशिरोमणे! आप पृथ्वी के भार रूप राजवेशधारी दैत्यों को जलाने के लिए अग्नि रूप हैं। आपकी शक्ति अनन्त है। गोविन्द! आपका यह अवतार गौ, ब्राह्मण और देवताओं का दुःख मिटाने के लिए ही है। योगेश्वर! चराचर के गुरु भगवन्! मैं आपको नमस्कार करती हूँ।।४३।।
कुन्ती स्तुति के अर्थ को समझकर इसका पाठ करने से भगवान् श्रीकृष्ण में भक्ति प्रबल होती है एवं उनकी कृपा प्राप्त होती है।