मनुष्य जीवनभर ईश्र्वर की खोज में दर-दर भटकता है लेकिन उसे कहीं भगवान नहीं मिलते हैं। ईश्र्वर स्वयं को खोजने से मिलते हैं। स्वयं को खोजो तो ईश्र्वर से मुलाकात होगी।
हिमशिखर धर्म डेस्क
ईश्वर को ढूंढना है कहां ढूंढू। स्वयं को खोजो, ईश्वर मिलेगा। स्वयं को खोजो, ईश्वर तुम्हें खोजेगा। स्वयं को न खोजा, लाख सिर पटको ईश्वर की तलाश में- और कुछ भी मिल जाए, ईश्वर मिलने वाला नहीं है। जो स्वयं को ही नहीं जानता, वह अधिकारी नहीं है ईश्वर को जानने का। उसकी कोई पात्रता नहीं है। पहले पात्र बनो।
आत्म-अज्ञान सबसे बड़ी अपात्रता है। वही तो एकमात्र पाप है और सब पाप तो उसी महापाप की छायाएं हैं। सारे पापों से लोग लड़ते हैं- क्रोध से लड़ेंगे, काम से लड़ेंगे, लोभ से लड़ेंगे, द्वेष से लड़ेंगे, मद-मत्सर से लड़ेंगे -और एक बात भूल जाएंगे कि भीतर अंधकार है। ये सांप-बिच्छू उस अंधकार में पलते हैं। भीतर रोशनी चाहिए, प्रकाश चाहिए, आत्मबोध चाहिए।
ईश्वर जब भी किसी को मिला है, भीतर ही मिला है। जो लोग परमात्मा को बाहर ढूंढेंगे, वो सारी दुनिया नाप तो लेंगे, लेकिन वह मिलेगा नहीं। यह तय है कि वह अपने भीतर उतरने पर ही मिलेगा। हनुमानजी को उसी लंका में सीताजी प्राप्त हो गई थीं, क्योंकि उन्होंने भीतर खोज लिया था मां को। लंका की राक्षसियां उन्हें बाहर ढूंढ रही थीं, और इसीलिए कभी पा नहीं सकीं।
सीताजी को लंका से लाया गया तो रामजी ने विचार किया जब रावण अपहरण करने आने वाला था, उससे पहले हमने सीता के वास्तविक रूप को अग्रि में रखा था। तो अब वापस इनका भीतर का रूप प्रकट करना चाहिए। उन्होंने अग्रि तैयार करने का जो आदेश दिया, उसे सुनकर सब परेशान हो गए। राक्षसियां तो विषाद करने लगीं।
इस पर तुलसीदासजी ने लिखा- ‘तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद।’ करुणा के सागर श्रीराम ने कुछ कठोर वचन कहे, जिन्हें सुनकर सब राक्षसियां विषाद करने लगीं।
देखिए, आखिर राक्षसियों में सीताजी के प्रति ऐसा क्या लाड़ जाग गया कि विषाद करने लगीं? इसके दो पक्ष हैं। एक तो सत्ता बदल गई तो सुर बदल गए। और, दूसरा पक्ष यह कि परमशक्ति भीतर ही प्राप्त हो सकती है। समझने की बात यही कि ईश्वर कभी बाहर नहीं मिल सकता। वह जब भी मिलेगा, भीतर मिलेगा।