जलवायु परिवर्तन की मार : उत्तराखंड आपदा का कौन है जिम्मेदार?

हिमशिखर पर्यावरण डेस्क

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उत्तराखंड के लिए प्राकृतिक आपदाएं नई बात नहीं हैं। हर साल मानसून के सीजन में बदल फटने, भूस्खलन और बाढ़ जैसी आपदाएं आती हैं। लेकिन पहले मानसून के लौटने के दौरान यह घटनाएं देखने को नहीं मिलती थीं। लेकिन इस साल पिछले सप्ताह मानसून की विदाई के बाद उत्तराखण्ड में बेमौसमी मूसलाधार बारिश का जमकर कहर टूटा। खास बात यह है कि मानसून के बाद की इस बारिश से जानमाल का भी काफी नुकसान हुआ। ऐसे में लोगों के जेहन में यही सवाल है कि आखिर हर साल हम आसमानी आफत का सामना क्यों करते जा रहे हैं। मौसम विज्ञानियों के मुताबिक, जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों के कारण मौसम में बदलाव आने से प्रकृति कहर बरपा रही है।

उत्तराखण्ड में पिछले सप्ताह बेमौसमी मूसलाधार बारिश के कारण कई लोग काल के गाल में समा गए। पिछले सप्ताह गढ़वाल और कुमाऊं में जगह-जगह भारी बारिश ने लोगों की बैचेनी बढ़ा दी थी। आश्चर्यजनक बात यह है कि यह बारिश ऐसे समय में हुई जब दक्षिण-पश्चिम मानसून लौट चुका था। प्रकृति के इस कहर के सामने सभी असहाय से दिखे। ऐसे में लोगों के मन में सवाल कौंध रहा है कि मानसून सीजन के बाद भारी बारिश की घटनाएं क्यों घट रही हैं?

विशेषज्ञ इसके लिए जलवायु परिवर्तन से जुड़े खतरों की ओर संकेत कर रहे हैं। गोविन्द बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय के मौसम वैज्ञानिक प्रो आर. के. सिंह के अनुसार बंगाल की खाड़ी में चक्रवाती तूफान जवाद बना था। इस चक्रवाती तूफान जवाद के कारण पश्चिम बंगाल, बिहार, यूपी सहित कई राज्यों में भारी बारिश हुई। वहीं, जवाद के कारण नमी युक्त बादल और मजबूत पश्चिमी विक्षोभ के मिल जाने से उत्तराखण्ड में भारी बारिश हुई।

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Prof R. K. Singh

धरती का लगातार बढ़ता तापमान चिंताजनक

प्रो सिंह के अनुसार धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों के कारण मौसम में बदलाव आ रहा है। जिस कारण भारी बारिश और अति सूखे की घटनाएं और उनकी संख्या भी बढ़ रही हैं।

Prof. Govind Singh

प्राकृतिक जीवन में है समाधान

देश के जाने माने पत्रकार प्रो. गोविन्द सिंह का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों से पहाड़ों में बेमौसम अति-वृष्टि और बाढ़ जैसी घटनाएं बढ़ रही हैं, जिसके कारण भीषण तबाही के मंजर देखने को मिलते हैं। बड़ी संख्या में लोग मारे जाते हैं और उससे कहीं ज्यादा लोग बेघर हो जाते हैं। सरकारें राहत कार्य करती तो हैं, लेकिन वह हाथी के पेट में जीरे जैसा होता है। 2015 में जम्मू-कश्मीर में भी सितम्बर-अक्टूबर में बाढ़ आई थी। इस बार कुमाऊँ में भी ऐसा ही हुआ है. इसकी वजह दुनिया की तमाम सरकारों को मालूम है. लेकिन वे भौतिक सुविधाओं के इतने दास बन चुके हैं कि कुछ करना नहीं चाहते। इस समय जी 20 देशों का सम्मेलन चल रहा है, वहाँ भी यह मसला उठा है। लेकिन चाह कर भी कोई पीछे नहीं जाना चाहता। जो भी उपाय अपनाए जा रहे हैं, वे दुष्परिणामों को कम करने के हैं। उसकी तह तक कोई जाना नहीं चाहता. इसका एकमात्र समाधान प्राकृतिक जीवन में है. भारत की प्राचीन संस्कृति यही सिखाती है। लेकिन कौन उस तरफ जाए, यही यक्ष प्रश्न हम सब के सामने है। 

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Jagat singh jungli

भविष्य में विकराल मौसम की आशंका से नहीं किया जा सकता इन्कार

जाने माने पर्यावरणविद् जगत सिंह जंगली कहते हैं कि प्रकृति के इस विचित्र मिजाज को हमें समझना होगा। अगर हम अब भी नहीं समझ पाए तो यह हमारी बेहद खतरनाक भूल होगी।  कार्बन उत्सर्जन की वजह से पृथ्वी पर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर बढ़ता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण जलवायु परिवर्तन में तेजी आने लगी है। यही कारण है कि अक्टूबर में ऐसा मौसम देखने को मिला। भविष्य में इससे भी विकराल मौसम की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून भी आगे खिसक रहा है।

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