हिमशिखर धर्म डेस्क
गीता में शोक और मोह में जकड़े, रथ के पीछे सिर झुकाकर बैठे अर्जुन को समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण उसे जन्म और मृत्यु का अटल सत्य समझाते हैं। वह कहते हैं कि ‘जिसने जन्म लिया है उसका मरण निश्चित है और जो मर गया है उसका फिर से जन्म लेना तय है। यहां वह मृत्यु और फिर जन्म लेने की बात कर रहे हैं और कहते हैं कि इसीलिए किसी की मृत्यु का शोक मिथ्या है।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। 2.2
महाभारत के एक और प्रसंग में मृत्यु की चर्चा होती है। जब यक्ष युधिष्ठिर से सवाल करता है कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो इसके जवाब में युधिष्ठिर कहते हैं कि मनुष्य हर एक दिन किसी न किसी को अचानक ही मरते देखता है, फिर भी यह सोचता है कि उसकी मृत्यु अभी नहीं है। जन्म और मृत्यु जीवन के दो सबसे बड़े रहस्य रहे हैं। आदिम युग के भी आदमी ने सबसे पहले किसी की मृत्यु को बहुत ही रहस्य का विषय ही माना होगा। जो अभी जीवित था, जिसमें हलचल थी और जो बोलने, हंसने, चलने, कुछ कहने में सक्षम था वह अचानक ही ऐसा निर्जीव कैसे हो गया? इस सवाल ने जरूर मनुष्य को काफी झकझोरा होगा। इसीलिए जब वह कुछ कहने, सुनाने और या अपनी जिज्ञासाएं बता पाने में सक्षम हुआ तो उसने मृत्यु का जिक्र भी बहुत विस्तार से किया।
ऋग्वेद में सूर्य, चंद्र, इंद्र, अग्नि और रुद्र के साथ ही जिस एक और देवता का उल्लेख देवों की श्रेणी में हुआ है, उसका नाम यम है। यम यानी मृत्यु का देवता। पुराणों में यम को मृत्यु का देवता कहा गया है। यम की दिशा दक्षिण बताई गई है और वह इस दिशा के लोकपाल हैं। इसीलिए दक्षिण दिशा मृत्यु की दिशा मानी जाती है और सनातन परंपरा में सिर्फ एक ही बार दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके खाना खाने का विधान है। जब किसी के पिता की मृत्यु हो जाती है तो वह दाह, तर्पण, जल और पिंड इन सभी का दान दक्षिण दिशा में ही करता है। तेरहवीं हो जाने तक भोजन भी इसी दिशा में मुंह करके करता है। सामान्य दिनों में दक्षिण दिशा की ओर बैठकर भोजन करने का निषेध है, क्योंकि वह मृत्यु की दिशा है।
वेदों और उपनिषदों में यम को सत्य और धर्म का प्रतीक बताते हुए उसे ही सबसे ज्ञानी भी कहा गया है। जीवन के असल मूल्य को समझने और समझाने वाले देव यम ही हैं। इस बात पर कठोपनिषद की वो कहानी भी मुहर लगाती है, जिसमें एक सात साल के बालक नचिकेता को यम ने ही जीवन के गूढ़ रहस्यों का ज्ञान दिया था।
कहानी कुछ ऐसी है कि नचिकेता के पिता वाजश्रवा ने एक बड़ा यज्ञ किया और अपनी सारी गायें दान करने का संकल्प लिया। वास्तव में ये गायें बीमार और बूढ़ी थीं। नचिकेता को यह अच्छा नहीं लगा। वह अपने पिता को दान से रोकने लगा और कहा कि दान तो अपनी प्रिय और उत्तम वस्तु का करते हैं। आपके लिए सबसे प्रिय तो मैं हूं, तो बताइए मुझे किसे दान करेंगे। नचिकेता के बार- बार इस तरह से सवाल करने पर वाजश्रवा गुस्सा गए और उन्होंने गुस्से में ही कह दिया कि जा मैं तुझे यम को दान करता हूं।
नचिकेता ने अपने पिता की बात रखने के लिए यमलोक की यात्रा की। वहां पहुंचकर उसने यमराज को प्रसन्न किया और उनसे जीवन के मूल तत्व का ज्ञान प्राप्त किया। इस कथा में यम के भयंकर स्वरूप का वर्णन तो हुआ है, लेकिन उन्हें शांत चित्त वाला और ज्ञान के साथ रहस्यवाद का ज्ञाता भी बताया गया है। कठोपनिषद में लिखी नचिकेता की ये कहानी जीवन की जिज्ञासाओं को लेकर मनुष्य में पाई जाने वाली उलझनों को सुलझाने की पहली कोशिश है।
यमराज सनातन धर्म के अनुसार मृत्यु के देवता हैं। इनका उल्लेख वेद में भी आता है। इनकी बहन यमुना (यमी) है। यमराज, महिषवाहन (भैंसे पर सवार) दण्डधर हैं। वे जीवों के शुभाशुभ कर्मों के निर्णायक हैं। वे परम भागवत, बारह भागवताचार्यों में हैं।
यमराज दस दिक्पालों में से एक माने जाते हैं जो दक्षिण दिशा के स्वामी और मृत्यु के देवता माने जाते हैं। भगवान ब्रह्मा ने उन्हें यमलोक का अधिपति एवं मृत्यु का देवता बनाया। ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात यमदूत व्यक्ति की आत्मा को यमराज के समक्ष लाते हैं और उनके मंत्री श्री चित्रगुप्त उस मनुष्य के पाप और पुण्य का लेखा-जोखा देख कर उसे स्वर्ग अथवा नर्क में भेजते हैं। इसी कारण यमराज को धर्मराज भी कहते हैं क्यूंकि वे धर्मपूर्वक प्राणियों के साथ न्याय करते हैं।
यमराज जीवों के शुभाशुभ कर्मों का फल देते हैं। यमराज के मुंशी “चित्रगुप्त” हैं जिनके माध्यम से वे सभी प्राणियों के कर्मों और पाप-पुण्य का लेखा-जोखा रखते हैं। चित्रगुप्त की बही “अग्रसन्धानी” में प्रत्येक जीव के पाप-पुण्य का हिसाब है। उनका रूप भी अति भयंकर बताया गया है जिससे देखकर ही दुष्टात्मा भयभीत हो जाती हैं। इनका रंग हरा है, ये लाल लाल रंग के वस्त्र धारण करते हैं।
इनकी नगरी “यमपुरी” है एवं इनके राजमहल का नाम “कालीत्री” है। यमराज के लोक को संयमनीपुरी या पितृलोक भी कहते हैं। इनके सिंहासन का नाम “विचार-भू” है। इनके दो अंगरक्षक है जिनका नाम “महादण्ड” एवं “कालपुरुष” है। इनके द्वारपाल का नाम “वैध्यत” है और इनके द्वार की रक्षा के लिए चार आँखों वाले दो श्वान (कुत्ते) तत्पर रहते हैं। इन्हे ब्रह्मदेव से ब्रह्मपाश एवं मृत्युदण्ड प्राप्त हुआ है जिससे कोई भी बच नहीं सकता। कौवे और कबूतर उनके संदेशवाहक बताये गए हैं।
पुराणों अनुसार यमलोक को मृत्युलोक के ऊपर दक्षिण में ८६००० योजन दूरी पर माना गया है। एक योजन में करीब ४ किमी होते हैं। एक लाख योजन में फैली यमपुरी या यमलोक का उल्लेख गरूड़ पुराण और कठोपनिषद में मिलता है।
सनातन धर्म में देवी-देवता से जुड़ी कोई भी चीज बेवजह नहीं है, बल्कि सबमें कोई न कोई गूढ़ रहस्य छिपा हुआ है, चाहे वो उनके अस्त्र-शस्त्र हों, सवारी हों या उनकी शारीरिक बनावट। कई लोगों के मन में ये सवाल भी आता है कि देवी-देवताओं के वाहन पशु या पक्षी ही क्यों है और कुछ के तो ऐसे पशु-पक्षी हैं, जो कोई ख़ास जानवर भी नहीं हैं और लोगों के जीवन में उनका कोई ख़ास महत्व भी नहीं है। ऐसे में उन जानवरों को उन देवताओं ने क्यों चुना, जैसे कि यमराज जी की सवारी भैंसा।
देवताओं द्वारा उन्हें क्यों चुना गया लेकिन भगवान् को किसी पशु से जोड़ने का मुख्य उद्देश्य मनुष्य के जीवन में पशु प्रेम और पशु के प्रति सहानुभूति तथा अहिंसा की भावना पैदा करना होगा। लेकिन इसके अतिरिक्त ये पशु किसी विशेष स्वभाव या गुण का प्रतिनिधित्व भी करते हैं, जिसके कारण उन्हें किसी ख़ास देवी- देवता से जोड़ा गया है। अब बहुतों के मन में यह सवाल आता है कि यमराज मृत्यु के देवता हैं, तो उनकी सवारी भैंसा क्यों, कोई भयावह या मृत्यु के समान दिखने वाला पशु क्यों नहीं? आखिर भैंसा का मृत्यु से क्या लेना-देना?
मानव अपनी अज्ञानता में यह भूल जाता है कि वह एक दिन म्रत्यु को प्राप्त होगा। वह अज्ञानता में अपने नश्वर शरीर से प्रेम करने लगता है, उसके मोह में बांध जाता है, तामसिक गुणों को पोषित करने लगता है, उस क्षणभंगुर सुख को असली सुख समझने लगता है। बिल्कुल वैसे जैसे भैंसा अपने ही गोबर में लेटा आनंद लेता रहता है, उसे ही असली सुख समझने की भूल कर बैठता है। मनुष्य यह भूल जाता है कि उसके जन्म लेते ही यमराज अपने धीमे और एक समान गति से चलने वाले वाहन भैंसे पर सवार हाथ में गदा और पाश लिए उस तक पहुँचने के लिए अपनी यात्रा शुरू कर चुके हैं। उसके पास वह नश्वर शरीर तब तक है, जब तक यमराज उस तक नहीं पहुँच जाते।
हमारी अज्ञानता भी धीरे-धीरे हमें नर्क के मार्ग की ओर ही अग्रसर करती है। वह हमारी चेतना को जागृत नहीं होने देती। यमराज आत्माओं को अपने पाश में बांधकर, यमलोक ले जाकर, उनकी अज्ञानता को ही दंडित करते हैं। पर्याप्त सजा के बाद, वे आत्मा को मुक्त करते हैं और फिर से दूसरा जन्म लेने का मौक़ा देकर अज्ञानता को दूर करने का मौक़ा देते हैं, ताकि इस बार आत्मा खुद को जागृत कर स्वयं को कर्म बंधन से मुक्त कर सके। इस प्रकार, भैंसा अज्ञानता और तामसिक गुणों का प्रतीक है, जो कि केवल और केवल नरक है, वहीं यमराज का पाश अज्ञानता की सजा का प्रतीक है।