अनादिकाल से हिमालय का सम्पूर्ण क्षेत्र भारतीय सन्तों के लिए तपोभूमि रहा है. न केवल हिमालय में, बल्कि भारत के अनेक प्रान्तों में ऐसी सिद्ध भूमियाँ हैं, जहाँ साधक योग-साधना करते रहे. हालांकि, हिमालय में सिद्ध भूमियों की संख्या अधिक अवश्य है. दरअसल, प्राचीनकाल के ऋषिमुनि से लेकर आधुनिक काल के अनेक संत-योगी हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में तपस्या करते रहे. आधुनिक काल के संतों में महात्मा तैलंग, स्वामी लोकनाथ ब्रह्मचारी, हितलाल मिश्र, राम ठाकुर, सदानन्द सरस्वती, प्रभुपाद विजयकृष्ण गोस्वामी, स्वामी रामतीर्थ, स्वामी विशुद्धानन्द, श्यामाचरण लाहिड़ी, कुलदानन्द आदि हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों में आध्यात्मिक साधना करते रहे. सिद्ध पुरुष जिस स्थान पर बैठकर योग-साधना करते हैं वह स्थान सिद्धभूमि बन जाता है. सिद्धभूमि सिद्ध पुरुष के नाम के अनुसार अथवा अन्य किसी प्रकार के नियम के अधीन विभिन्न नाम और रूप लेकर श्री भगवान् की विश्वलीला में अपना- अपना काम करती हैं. जो महापुरुष सिद्धि प्राप्त कर आधिकारिक अवस्था-लाभ करते हैं, वे ही इन सभी सिद्धभूमियों के अधिष्ठाता होते हैं. जिनमें अधिकार-वासना नहीं है, वे सिद्धभूमि में रहते हुए भी न रहने के समान हैं अथवा वे सिद्धभूमि के ऊर्ध्व में रहते हैं. जिस प्रकार सिद्धपुरुष चित् और अचित् कार्य और कारण, शुद्ध और अशुद्ध एवं स्थूल और सूक्ष्म सभी अवस्था में अव्याहत रहते हैं तथा अपने वैशिष्ट्य का संरक्षण कर सकते हैं, उसी प्रकार ये बातें सिद्धभूमि पर भी लागू होती हैं. देह सिद्ध करने के पश्चात् भूमि को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती. क्योंकि देह-सिद्धि होने पर उसी प्रकार भूमि-सिद्धि हो जाती है. इससे स्पष्ट है कि सिद्ध आत्मा की इच्छानुसार तथाकथित सिद्धभूमि का आविर्भाव होता है.
परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद
मनुष्य के ज्ञान की सोच की एक सीमा होती है, अगर वह उस सीमा के दायरे से बाहर निकले तो अनंत रहस्य से उसका सामना होता है. लेकिन वो एक कुवें के मेढक के सामान जीवन जीता है. जो सिर्फ उतनी ही दुनिया को मानता है जिसे वो देख रहा है. ऐसे कई क्षेत्र, प्रदेश या भूमि है जो की सामान्य जन के मानस की कल्पना से परे है. ऐसे कई विशेष स्थान है जो की अगोचर शक्तियों से आबद्ध है, जिन पर मात्र वातावरण का प्रभाव नहीं है, जहां पर एक निश्चित शक्ति या शक्तियों का प्रभाव है. उससे बद्ध वह सीमा क्षेत्र की उर्जा सामान्य मनुष्य की कल्पना से कई गुना ज्यादा है. वहाँ का चेतना का स्तर इस भौतिक जगत की चेतना स्तर से कम से कम २१ गुना ज्यादा होता है. ऐसे ही विशेष स्थानों को सिद्ध क्षेत्र कहते है. सब प्रकार के स्थान को यूँ तो सिद्ध क्षेत्र ही कहा जाता है लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है. इसके भी कई प्रकार है. इनमें तीन मुख्य होते हैं-
चेतन स्थान
सिद्ध स्थान
दिव्य स्थान
यह तीन मुख्य प्रकार है.
चेतन स्थान वह है जहां पर सामान्य जगत से ज्यादा प्राण उर्जा और संस्पर्षित चेतना स्तर हो. यह कोई भी स्थान हो सकता है. कई स्थानों पर जाने पर मन अपने आप खुश हो जाता है. पूर्ण प्राकृतिक जगह, सिद्धो के समाधी स्थल, तपस्या भूमि, नित्य हवन होने वाले स्थान, श्मशान इत्यादि सभी चेतन स्थान है. ऐसे स्थानों पर जाने पर व्यक्ति अपने आप में अंदर डूबता जाता है. उसे घर, परिवार, समाज या अपने भौतिक स्तर की पहेचान नहीं रहती, वह मात्र और मात्र अपने स्व के विचारों में खोने लगता है धीरे धीरे अपने अंदर ही स्व के बारे में मंथन करने लगता है. चेतन स्थान में सभी व्यक्तियो के साथ निश्चित रूप से ऐसा होता ही है. क्यों की वहाँ पर चेतना का स्तर सानी स्थान से ज्यादा होता है और वही चेतना व्यक्ति की अन्तःस्चेत्ना के स्तर का विकास कर देती है, इसलिए व्यक्ति अपने अंदर उतरने लगता है तथा स्व चिंतन में रत होने लगता है. लेकिन जैसे ही वह उस स्थान से बाहर निकलता है, वह अपने सभी पुराने विचारों में वापस लिप्त हो जाता है. क्योंकि वह स्तर वापस से सामान्य हो जाता है. चेतन स्थानों पर ज्ञान शक्ति का विकास होता है. लेकिन वह चिंतन, वह मानसिकता जो व्यक्ति उस समय अनुभव करता है, वह उस स्थान से बाहर आने पर लुप्त हो जाती है.
सिद्ध स्थान वो स्थान है जिसमे यह स्तर सामान्य रूप से २१ गुना ज्यादा हो. इसे स्थान को सिद्ध स्थान तथा इसे पुरे क्षेत्र को सिद्ध क्षेत्र कहा जाता है. ऐसे स्थानों पर व्यक्ति मात्र अपनी विचारों के माध्यम से ही नहीं अपनी क्रियाओ के माध्यम से भी अपने अंदर उतरने लग जाता है. स्व खोज तथा आत्मोन्नति की कामना मात्र विचारों तक सीमित ना रह कर क्रिया रूप में परावर्तित हो जाती है. एक प्रकार से देखा जाए तो प्रथम प्रकार के स्थानों में उसे प्रथम भाव अर्थ पशुभाव का आभास और बोध होने लगता है तथा उससे ऊपर आने के लिए सोचने के लिए विवश होने लगता है. दूसरे प्रकार के स्थान में व्यक्ति दूसरे भाव में स्थिर होने लगता है, अर्थात वह क्रियावान होकर वीर भाव में स्थित होने लगता है. ऐसे स्थानों पर व्यक्ति कई प्रकार के साधन तथा मार्ग का आसरा लेकर अपने जीवन को उर्ध्वगामी बनाने की और गतिशील होता है. निश्चित रूप से प्रकृति में निहित चेतना उसकी सहायता करती है.
ऐसे स्थान प्राकृतिक रूप से भी हो सकते है तथा अत्यंत उच्चकोटि के योगी इस प्रकार के स्थानों की रचना भी कर सकते है. यह निर्माण साधक अपनी तपस्या या साधना से संगृहीत की हुई तपः उर्जा को चेतना रूप में परावर्तित कर उसे क्षेत्र विशेष में प्रसारित कर देता है. इस तरह जब मूल चेतना का स्तर २१ गुना ज्यादा बढ़ जाता है तब वह क्षेत्र सिद्ध क्षेत्र या सिद्ध स्थान बन जाता है. यह हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता, कोई कोई अत्यंत ही उच्च अध्यात्म स्तर प्राप्त सिद्ध ही इस प्रकार की रचना कर सकता है. इसके अलावा, कई ऐसे स्थान प्राकृतिक रूप से भी होते है. क्योकि ऐसे स्थान विशेष में कोई निश्चित शक्ति का स्थायी वास होता है तथा उनकी प्राण उर्जा उस क्षेत्र में व्याप्त होती है. ऐसे स्थान का विशेष लोक लोकान्तरो से सबंध होता है तथा वहाँ पर विविध प्रक्रियाओ के माध्यम से प्राण उर्जा तथा चेतना का स्तर बनाये रखने के लिए सदैव प्रयत्न साधको तथा सिद्धो द्वारा होता रहता है. ऐसे स्थान तृतीय आयाम में तथा चतुर्थ आयाम में भी हो सकते है. तृतीय आयाम के अंतर्गत स्थान भौतिक रूप से द्रष्टिगोचर होते है तथा उनमे प्रवेश पाया जा सकता है, हालाकि कई स्थान बीहडो में तथा जंगलो में गुप्त रूप से होते है की सामान्यजन की नज़रों से बचे हुवे होते है. लेकिन इस प्रकार कई स्थान है जहां पर व्यक्ति जा कर उसकी चैतन्यता का अनुभव कर सकता है तथा अंत:स्फुरणा तुरंत ही अपना असर दिखाती है कोई न कोई एसी प्रक्रिया में संलग्न होने के लिए जिससे ज्ञान की प्राप्ति हो सके. ऐसे स्थानों में सिद्ध शक्तिपीठ, तंत्र पीठ, तथा विविध मठो आदि का समावेश होता है. इसके अलावा चतुर्थ आयाम में भी कई ऐसे स्थान है जिनको स्थूल देह से या द्रष्टि से देखना संभव नहीं है लेकिन ऐसे सिद्ध स्थान को देखने के लिए दिव्यनेत्र तथा आतंरिक शरीरों का भी सहारा लेना पड़ता है. ऐसे कई स्थान जम्मू कश्मीर के पर्वतीय क्षेत्र, मनाली तथा देहरादून के पर्वतीय क्षेत्र के आस पास, पंजाब के उत्तरीय तटवर्ती क्षेत्र में, राजस्थान में आबू के जंगलिय प्रदेश में, गुजरात के गिर जंगलो में, वाराणसी तथा हरिद्वार में आस पास वाले इलाके में, बंगाल में वक्रेश्वर तथा कास्बा, आसाम में कामाख्या दिबरुगढ़ इत्यादि के आस पास भी ऐसे क्षेत्र है। सभी पूर्वोत्तर राज्यों के जंगली क्षेत्र के कापालिक गुप्त मठ तथा वज्रयानी साधको के मठ विद्यमान है जिसको सामन्य द्रष्टि से देखना संभव नहीं है. इसके अलावा, गोरखपुर का जंगल तथा अमरकंटक से ले कर जबलपुर तक का जंगली इलाका भी ऐसे कई स्थानों से भरा पड़ा है, इसके अलावा जबलपुर में भी कई ऐसे गुप्त स्थान है ही. दक्षिण में पश्चिमी घाट का पहाड़ी समूह तथा विशेष रूप से श्रीशैल क्षेत्र में भी ऐसे कई स्थान है. इसके अलावा, उडीसा में तीव्र शाक्तमार्गी महासाधको के कई ऐसे स्थान है. भारतवर्ष के अलावा भी आस पास के क्षेत्र में विशेषतः नेपाल तथा तिब्बत में ऐसे कई स्थान है.
इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, ऐसे स्थान पृथ्वी पर कई सदियों से विद्यमान है तथा कई सैकडो़ वर्ष तथा हजारों वर्ष की आयु प्राप्त योगी ऐसे स्थानों पर साधनारत हैं.