प्रो. गोविन्द सिंह
अपने देश में प्रकृति और ईश्वर दोनों को पर्याय ही माना गया है. चाहे लोक हो या शास्त्र, दोनों ने प्रकृति के महत्व को बराबर स्वीकार किया है. हमारा प्राचीन साहित्य इस बात का प्रमाण है कि प्रकृति सदैव पूजनीय रही है. प्रकृति से हमारा आशय केवल नदी-नाले, जंगल, पर्वत या हिमशिखर ही नहीं, वे समस्त जीव-जंतु भी हैं, जो इस समस्त सृष्टि को निर्मित करते हैं.
यजुर्वेद के शांतिपाठ में पर्यावरण के सभी तत्वों को शांत और संतुलित बनाए रखने का उत्कट भाव है, वहीं इसका तात्पर्य है कि समूचे विश्व का पर्यावरण संतुलित और परिष्कृत हो। ऋग्वेद की ऋचा कहती है- हे वायु! अपनी औषधि ले आओ और यहां से सब दोष दूर करो क्योंकि तुम ही सभी औषधियों से भरपूर हो।
सामवेद कहता है- इन्द्र! सूर्य रश्मियों और वायु से हमारे लिए औषधि की उत्पत्ति करो। हे सोम! आपने ही औषधियों, जल और पशुओं को उत्पन्न किया है।
अथर्ववेद मानता है कि मानव इस संसार के अधिक सन्निकट है। व्यक्ति स्वस्थ, सुखी दीर्घायु रहे, नीति पर चले और पशुओं, वनस्पति एवं जगत के साथ साहचर्य रखे।
गीता में प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण बताया गया है। प्रकृति के कण-कण में सृष्टि का रचयिता समाया हुआ है। गीता कहती है, ‘न तो यह शरीर तुम्हारा है और न ही तुम इस शरीर के हो। यह शरीर पांच तत्वों से बना है- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश। एक दिन यह शरीर इन्हीं पांच तत्वों में विलीन हो जाएगा। ‘प्रत्येक व्यक्ति, पशु, पक्षी, जीव, जंतु आदि सभी आत्मा हैं। खुद को यह समझना कि मैं शरीर नहीं आत्मा हूं। यह आत्मज्ञान के मार्ग पर रखा गया पहला कदम है।
अर्थात, एक बार मनुष्य की समझ में यह आ जाए कि वह आत्मा है, और धरती के कण-कण में आत्मा का वास है तो शायद प्रकृति के प्रति उसका दृष्टिकोण भी बदल जाएगा.
इसलिए आश्चर्य इस बात का होता है कि जिस देश में प्रकृति के साथ साहचर्य की इतनी सुदीर्घ और समृद्ध परम्परा है, वहाँ हम प्रकृति की हर सुन्दर वस्तु का दोहन करके, उसे निचोड़ करके अपने पक्ष में कर लेना चाहते हैं. मनुष्य की तमाम बीमारियों के पीछे आज यह परिग्रह भाव ही सर्वोपरि है. यदि मनुष्य प्रकृति के प्रति थोड़ी भी अपनी जिम्मेदारी को समझे, तो शायद संसार से अनेक कष्ट दूर हो जाएँ.
हर वर्ष प्रकृति अपना भयावह रूप दिखाने में कोई कमी नहीं छोड़ रही. वैज्ञानिक कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसा हो रहा है. कभी अतिवृष्टि होती है, कभी अति सूखा पड़ जाता है, कभी अत्यधिक शीत पड़ती है तो कहा जाता है कि शायद हिम युग की वापसी होने वाली है. साल-दर-साल पहाड़ों में बादल फटने की घटनाएं बढ़ रही हैं. आपदा आती है, भू-स्खलन होते हैं, सूनामी का कहर बरपता है. उन्नत कहे जाने वाले देशों के पास इनका कोई जवाब नहीं है. हो भी कैसे? आखिर वे ही इन समस्याओं के जनक जो हैं.
इसी तरह पहाड़ों में रहने वालों का जीवन दूभर होता जा रहा है. वन्य जीव-जंतुओं का हस्तक्षेप बढ़ता ही जा रहा है. लोग कहते हैं कि कृषि करें तो किसके लिए? सबकुछ तो बन्दर और सूअर नष्ट कर जाते हैं. बाघ और हाथियों का आतंक बढ़ता ही जा रहा है. जब मनुष्य ने उनके क्षेत्र में घुसपैठ की तो उन्होंने भी मानव-बस्तियों में घुसपैठ कर दी. ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि मनुष्य, खास करके शहरी मनुष्य ने खुद को प्रकृति से एकदम दूर कर लिया है. शहर बढ़ते जा रहे हैं. प्रकृति के साहचर्य के साथ बसे गाँव उजड़ते जा रहे हैं. शहरों से बंदरों को पकड़-पकड़ कर पहाड़ों और जंगलों में छोड़ दिया जाता है, जिससे ये जानवर अपने व्यवहार को खो बैठते हैं.
इसलिए मानव सभ्यता अपनी जड़ों की ओर देखे. अपने पूर्वजों की जीवनशैली पर नजर डाले. अपने प्राच्य ज्ञान पर नजर डाले. सब कुछ हमारे पास मौजूद है. प्रकृति के साथ संघर्ष की बजाय उसके साथ सहयोग और साहचर्य का रुख अख्तियार करे. तभी हमारा भविष्य सुरक्षित रह पायेगा. (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं)