हिमशिखर धर्म डेस्क
भगवान् विष्णु का बदरी नामक क्षेत्र सब पातकों का नाश करने वाला है और संसार-भय से डरे हुए मनुष्यों के कलिसम्बन्धी दोषों का अपहरण करके उन्हें मुक्ति देने वाला है; जहाँ भगवान् नारायण तथा नर ऋषि, जिन्होंने धर्म से उनकी पत्नी मूर्ति के गर्भ से अवतार ग्रहण किया है, गन्धमादन पर्वत पर तपस्या के लिये गये थे और जहाँ बहुत सुगन्धित फल से युक्त बेर का वृक्ष है वे दोनों महात्मा उस स्थान पर कल्पभर के लिये तपस्या में स्थित हैं। कलापग्रामवासी नारद आदि मुनिवर तथा सिद्धों के समुदाय उन्हें घेरे रहते हैं और वे दोनों लोक रक्षा के लिये तपस्या में संलग्न हैं। वहां सम्पूर्ण सिद्धियों को देने वाला सुविख्यात अग्नि तीर्थ है। उसमें स्नान करके महापातकी भी पातक से शुद्ध हो जाते हैं। सहस्रों चान्द्रायण और कृच्छ्रव्रत से मनुष्य जो फल पाता है, उसे अग्नितीर्थ में स्नान करने मात्र से पा लेता है।
उस तीर्थ में पाँच शिलाएँ जहाँ भगवान् नारद ने अत्यन्त भयंकर तपस्या की, वह शिला नारदी नाम से विख्यात है, जो दर्शन मात्र से मुक्ति देने वाली है। वहाँ भगवान् विष्णु का नित्य निवास है। उस तीर्थ में नारदकुण्ड है, जहाँ स्नान करके पवित्र मनुष्य भोग, मोक्ष, भगवान्की भक्ति आदि जो-जो चाहता है, वही वही प्राप्त कर लेता है।
जो मानव भक्तिपूर्वक इस नारदी शिला के समीप स्नान, दान, देवपूजन, होम, जप तथ अन्य शुभ कर्म करता है, वह सब अक्षय होता है। इस क्षेत्र में दूसरी शुभकारक शिला वैनतेय शिला के नामसे विख्यात जहाँ महात्मा गरुड़ ने भगवान् विष्णु के दर्शन की इच्छा से तीस हजार सालों तक कठोर तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें श्रेष्ठ वर दिया- ‘वत्स ! मैं ऊपर बहुत प्रसन्न हूँ तुम दैत्य समूह के लिये अजेय और नागों को अत्यन्त भय देने वाले मेरे वाहन होओ। यह शिला इस पृथ्वी पर तुम्हारे ही नाम से विख्यात होगी और दर्शन- मात्र से मनुष्यों के लिये पुण्यदायिनी होगी। महाभाग ! तुमने जहाँ तपस्या की है, उस मुख्यतम तीर्थ में मेरी प्रसन्नता के लिये स्नान करने वालों को पुण्य देने वाली गङ्गा प्रकट होगी। जो पञ्चगङ्गा में स्नान करके देवता आदि का तर्पण करेगा, उसकी सनातन ब्रह्मलोक से इस लोकमें पुनरावृत्ति नहीं होगी ।’ ऐसा वरदान देकर भगवान् विष्णु उसी समय अन्तर्धान हो गये। गरुडजी भी भगवान् विष्णु की आज्ञा से उनके वाहन हो गये।
तीसरी जो शुभकारक शिला है, वह वाराही शिला के नामसे विख्यात है, जहाँ पृथ्वी का रसातल से उद्धार करके भगवान् वाराह ने हिरण्याक्ष को मार गिराया और शिला रूप से वे पापनाशक श्रीहरि उस दैत्य को दबाकर बैठ गये। जो मानव वहाँ जाकर गङ्गा के निर्मल जल में स्नान करता और भक्तिभाव से उस शिला की पूजा करता है, वह कभी दुर्गति में नहीं पड़ता। देवेश्वरि! वहाँ चौथी नरसिंह शिला है, जहाँ हिरण्यकशिपु को मारकर भगवान् नरसिंह विराजमान हुए थे। जो मनुष्य वहाँ स्नान और नरसिंह शिला का पूजन करता है, वह पुनरावृत्तिरहित वैष्णवधाम को प्राप्त कर लेता है। देवि! वहाँ पाँचवी नर-नारायण शिला है। सत्ययुगमें भोग और मोक्ष देने वाले भगवान् नर-नारायणावतार श्रीहरि सबके सामने प्रत्यक्ष निवास करते थे। शुभे! त्रेता आने पर वे केवल मुनियों देवताओं और योगियों को दिखायी देते थे। द्वापर आने पर केवल ज्ञान- योग से उनका दर्शन होने लगा। तब ब्रह्मा आदि देवताओं तथा तपस्वी ऋषियों ने अपनी विचित्र वाणी द्वारा स्तुति करके भगवान् श्रीहरि को प्रसन्न किया। तदनन्तर उन ब्रह्मा आदि देवताओं से आकाशवाणी नेे कहा- देवेश्वरी ! यदि तुम्हें स्वरूप के दर्शन की श्रद्धा है तो नारदकुण्डमें जो मेरी शिलामयी मूर्ति पड़ी हुई है, उसे ले लो।’ तब उस आकाशवाणी को सुनकर ब्रह्मा आदि देवताओं का चित्त प्रसन्न हो गया। उन्होंने नारदकुण्ड में पड़ी हुई उस शिलामयी दिव्य प्रतिमा को निकालकर वहाँ स्थापित कर दिया और उसकी पूजा करके अपने-अपने धामको चले गये। वे देवगण प्रतिवर्ष वैशाख मास में अपने धामको जाते हैं और कार्तिक में आकर फिर पूजा प्रारम्भ करते हैं। इसलिये वैशाख से वर्ष के कष्ट का निवारण हो जाने से पापकर्म रहित पुण्यात्मा मनुष्य वहाँ श्रीहरि के विग्रहका दर्शन पाते हैं। छः महीने देवताओं और छः महीने मनुष्योंके द्वारा उस भगवद्विग्रह की पूजा की जाती है। इस व्यवस्था के साथ तबसे भगवान की प्रतिमा प्रकट हुई। जो भगवान् विष्णु की उस शिलामयी प्रतिमा का भक्तिभाव से पूजन करता है और उसका नैवेद्य (प्रसाद) भक्षण करता है, वह निश्चय ही मोक्ष पाता है। इस प्रकार वहाँ ये पाँच पुण्य शिलाएँ स्थित हैं। श्रीहरि का नैवेद्य देवताओं के लिये भी दुर्लभ है, फिर मनुष्य आदिके लिये तो कहना ही क्या है। उस नैवेद्य का भक्षण कर लेने पर वह मोक्षका साधक होता है। बदरीतीर्थ में भगवान् विष्णु का सिक्थमात्र (थोड़ा) भी प्रसाद यदि खा लिया जाय तो वह पाप का नाश करता है।
वहीं एक दूसरा महान् तीर्थ है, उसमें भक्ति पूर्वक स्नान करने वाला पुरुष वेदों का पारङ्गत विद्वान् होता है। एक समय सोते हुए ब्रह्माजीके मुख से निकले हुए मूर्तिमान् वेद को हयग्रीव नामक असुर ने हर लिया वह देवता आदि के लिये बड़ा भयंकर था। तब ब्रह्माजी ने भगवान् विष्णुसे प्रार्थना की। अतः वे मत्स्यरूप से प्रकट हुए। उस असुर को मारकर उन्होंने सब वेद ब्रह्माजी को लौटा दिये। तब से वह स्थान महान् पुण्यतीर्थ हो गया। वह सब विद्याओं का प्रकाशक है। तैमिङ्गिलतीर्थ दर्शनमात्रसे सब पापों का नाश करने वाला है। तदनन्तर किसी समय अविनाशी तीर्थ भगवान् विष्णु ने पुनः वेदों का अपहरण करने वाले दो मतवाले असुर मधु और कैटभ को हयग्रीवरूपसे मारकर फिर ब्रह्माजी- को वेद लौटाये अतः वह तीर्थ स्नानमात्र से तीर्थ सब पापों का नाश करनेवाला है। मत्स्य और हयग्रीव- तीर्थ में द्रवरूपधारी वेद सदा विद्यमान रहते हैं। अतः वहाँ का जल सब पापोंका नाश करने वाला है। वहीं एक दूसरा मनोरम हैं तीर्थ है, जो मानसोदक नाम से विख्यात है। वह हृदय की गाँठे खोल देता है, मन के समस्त संशय का नाश करता है और सारे पापों को भी हर लेता है। इसीलिये वह मानसोद्भेदक कहलाता है। वहीं कामाकाम नामक दूसरा तीर्थ है, जो सकाम पुरुषों-की कामना पूर्ण करने वाला और निष्कामभाव वाले पुरुष को मोक्ष देनेवाला है। वहाँ से पश्चिम वसुधारा तीर्थ है। वहाँ भक्तिपूर्वक स्नान करके मनुष्य मनोवाञ्छित फल पाता है। इस वसुधारातीर्थ में पुण्यात्मा पुरुषों को जलके भीतर से ज्योति निकलती दिखायी देती है, जिसे देखकर मनुष्य फिर गर्भवास में नहीं आता।
वहाँ से नैर्ऋत्य कोण में पाँच धाराएँ नीचे गिरती हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं-प्रभास, पुष्कर, गया, नैमिषारण्य और कुरुक्षेत्र। उनमें पृथक्-पृथक् स्नान करके मनुष्य उन-उन तीर्थों का फल पाता है। उसके बाद एक दूसरा विमलतीर्थ है, जो सोमकुण्ड के नाम से भी विख्यात है, जहाँ तपस्या करके सोम ग्रह आदि के अधीश्वर हुए हैं। वहाँ स्नान करने से मनुष्य दोष रहित हो जाता है। वहाँ एक दूसरा द्वादशादित्य नामक तीर्थ है, जो सब पाप को हर लेने वाला और उत्तम है। वहाँ स्नान करके मनुष्य सूर्य के समान तेजस्वी होता है। वहीं चतुःस्रोत नामका एक दूसरा तीर्थ है, जिसमें डुबकी लगाने वाला मानव धर्म और मोक्ष इन चारों में से जिसको चाहता लेता है। तदनन्तर वही सप्तपद नाम तीर्थ है, जिसके दर्शनमात्र से बड़े-बड़े पातक भी अवश्य नष्ट हो जाते हैं। फिर उसमें स्नान करने की तो बात ही क्या❓ उस कुण्ड के तीनों कोणों पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्थित है। वहां से दक्षिण भाग में परम उत्तम तीर्थ है, जहाँ भगवान् नर और नारायण अपने अस्त्र शस्त्र रखकर तपस्या में संलग्न हुए। वहाँ पुण्यात्मा पुरुषों को शङ्ख, चक्र आदि दिव्य आयुध मूर्तिमान् दिखाई देते हैं। वहाँ भक्तिपूर्वक स्नान करने से मनुष्य को शत्रु का भय नहीं प्राप्त होता। वहीं मेरुतीर्थ है, जहाँ स्नान और है धनुर्धर श्रीहरि का दर्शन करके मनुष्य सम्पूर्ण मनोरथों को प्राप्त कर लेता है। जहाँ भागीरथी और अलकनन्दा मिली है, पुण्यमय (देवप्रयाग) बदरिकाश्रम में सबसे श्रेष्ठ तीर्थ है। वहाँ स्नान, देवताओं और पितरों का तर्पण तथा भक्तिभाव से भगवत्पूजन करके मनुष्य सम्पूर्ण देवताओं द्वारा बन्दित विष्णुधाम को प्राप्त कर लेता है। संगम से दक्षिण भागमें धर्मक्षेत्र है। वह सब तीर्थों में परम उत्तम और पावन क्षेत्र है। वहीं कर्मोद्धार नामक दूसरा तीर्थ है, जो भगवान्की भक्तिका एक मात्र साधन है। ब्रहा नामक तीर्थ ब्रह्मलोककी प्राप्तिका प्रमुख साधन है। ये गङ्गा के आश्रित तीर्थ तुम्हें बताये गये हैं। बदरिकाश्रम तीर्थोंका पूरा-पूरा वर्णन करने में ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं है। जो मनुष्य भक्ति-भावसे ब्रह्मचर्य आदि व्रतका पालन करते हुए एक मास तक यहाँ निवास करता है, वह नर-नारायण श्रीहरि का दर्शन पा सकता है।