डा कमल टावरी (भाई कमलानंद)
सहकारिता का तात्पर्य सहभागिता है। आसान शब्दों में कहें तो मिलजुल कर काम करने को सहकारिता कहा जाता है। “साथी हाथ बढ़ाना” के मकसद से समस्त मानव जगत का कल्याण करना है। उद्यम के क्षेत्र में शोषण से बचने के लिए सहकारिता की शरण में जाना होगा। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फायदे के साथ ही नुकसान भी काफी हैं। यह शोषण और गड़बड़ी के जनक भी हैं। ऐसे में सहकारिता की भूमिका अहम हो जाती है। जरूरत है कि सहकारिता से जुड़े अधिकारी जमीन पर सिंगल विंडो दे सकें। कुछ धर्मों में सहकारिता का सख्ती से पालन किया जाता है। लेकिन हैरानी वाली बात यह है कि सनातन धर्म में इसके प्रति लगाव कम होता जा रहा है। लोगों में जलन और ईर्ष्या की भावना तेजी से पनप रही है।
सहकारी समितियों में कृषि को पुनर्जीवित करने और इसे टिकाऊ बनाने की क्षमता है। सहकारी आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने की दिशा में काम किया जाना चाहिए। शहरी-ग्रामीण विभाजन को पाटने और आय सृजन के अवसर पैदा करने में सहकारी क्षेत्र की बड़ी भूमिका है। महिलाओं की भागीदारी से ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधियां और मजबूत होंगी। उपज की संकटपूर्ण बिक्री से बचने के लिए अधिक गोदाम स्थापित करना, राष्ट्रीय ई-बाज़ार (ई-एनएएम) से जुड़ना, मूल्य संवर्धन पर जोर देना और विभिन्न स्वरोजगार संबंधित गतिविधियों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करना।
सहकारी समितियों से ग्रामीण युवाओं को कुशल बनाने में सक्रिय भाग लेने का आग्रह किया चाहिए। बेरोजगारी की समस्या को हल करने में सहकारी समितियों के पास जबरदस्त अवसर हैं, इसलिए सहकारी समितियों के माध्यम से ग्रामीण आबादी को कुशल बनाना एक बड़ी छलांग हो सकती है।
सहकारी प्रशिक्षण न केवल सहकारी समितियों के कर्मचारियों को दिया जाना चाहिए, बल्कि इसका विस्तार सहकारी समितियों से आगे बढ़कर स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, तकनीकी और व्यावसायिक संस्थानों के बच्चों और उन लोगों को भी दिया जाना चाहिए जो सहकारी समितियां बनाना चाहते हैं, लेकिन विभिन्न पहलुओं के बारे में नहीं जानते हैं।