सुप्रभातम्: मृत संजीवनी विद्या भारत की है

मृत्यु पर विजय प्राप्त करना असंभव है, पर भारत में अति पुरातन काल में औषधोपचार के क्षेत्र में संजीवनी विद्या का प्रचलन था। जिससे मृत काया को भी जीवित किया जा सकता था। स्वयं आदिगुरु भगवान शिव ने यह ज्ञान दैत्यगुरु को दिया, जिसे मृत संजीवनी भी कहा जाता है।


डाॅ. माया राम उनियाल

से. नि. निदेशक आयुष (भारत सरकार)


भारत में अति पुरातन काल में औषधोपचार के क्षेत्र में संजीवनी विद्या का प्रचलन था, यह महाभारत काल से प्राप्तत्य है। यह कोई चमत्कार जैसी कोई चीज नहीं है। वस्तुतः यह एक ऐसी विद्या है जिसके आदि क्रिया प्रारम्भ काल का लेखा-जोखा कर पाना संभव नहीं। इसलिए इसे सनातन भारत की ही विद्या कहना समीचीन होगा।

रामायणोक्त संजीवनी विद्या को लें तो सर्वप्रथम वैद्य शब्द का प्रयोग वाल्मीकि रामायण में ही मिलता है। इसके पूर्व वेदों में वैद्य नहीं तदर्थ भिषक् शब्द का प्रयोग हुआ है, परन्तु वाल्मीकि रामायण (युद्ध काण्ड 16/4) में उल्लेख है-

प्रधान साधक वैद्य धर्मशीलं च राक्षस।

यहां वैद्य शब्द ध्यान देने योग्य है। यह संजीवनी विद्या का ही प्रभाव था कि संज्ञाहीन पड़े हुए लक्ष्मण केवल सुषैण वैद्य द्वारा नस्य सुंघाने से पूर्ण स्वस्थ होकर उठ बैठे, जबकि पहले श्रीराम यह सोचकर व्यथित हो रहे थे कि लक्ष्मण शक्ति लगने पर जीवित भी हैं या नहीं? ऐसी दशा को प्राप्त हो गए थे सौमित्र।

जब सुषैण वैद्य वहां आए, तो उन्होंने मूर्छित पड़े लक्ष्मण के शरीर के लक्षणों को अनुवीक्षण करके श्रीराम को आश्वस्त करते हुए कहा-हे श्रीराम! आपका यह अनुज लक्ष्मण दीर्घजीवी हैं। देखो न इसके मुख का वर्ण तनिक भी परिवर्तित नहीं हुआ। कान्तिमान है, कालिमा रहित, जबकि मृत व्यक्ति के मुंह पर कालिमा छा जाती है-मुखाकृति निस्तेज हो जाती है।

इस पर सुषैण वैद्य ने हनुमान जी से कहा था कि तुम हिमालय पर्वत पर जाओ, वहां तुम्हें उसी के निकट कांचन पर्वत और कैलाश शिखर दिखेगा। इन्हीं के मध्यवर्ती भाग में वह पर्वत स्थित है जहां मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सावण्र्यकरणी तथा सन्धानकरणी आदि सर्वप्रकार की दुर्लभ औषधियां हैं। तुम इन चारों को शीघ्र लेकर यहां लौटों। ये औषधि पर्वत की दक्षिणी छोर पर प्राप्त होंगी। हनुमान को उन औषधियों को पहचान बताई पर जब वे उस पर्वत पर पहुंचे, तो उन औषधियों को पहचान न सके। जिनके नाम-रूप सुषैण वैद्य ने उन्हें बताए थे। वाल्मीकि रामायण में उन चारों के नाम दिए गए हैं-

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मृत संजीवनी चैव विशल्यकरणीमपि।

सवण्र्यकरणीं चैव सन्धानकारणीं तथा।

तः सर्वा हनुमान गुह्या क्षिप्रमागन्तुमर्हसि।। (वाल्मीकि रामायण)

सो हनुमान जी उतावली में उस पहाड़ का एक भाग ही उठाकर लंका लौट चले। उन्हें अपने प्राणों से प्रिय लक्ष्मण जी की जान जो बचानी थी। आगे वाल्मीकि रामायण के अनुसार सुषैण वैद्य ने वे औषधियां उससे निकालकर वानरों को दी और कहा इन्हें कूटकर लक्ष्मण को सुंघाओ। सूंघते ही लक्ष्मण को शक्ति के आघात से जो पीड़ा उत्पन्न हुई थी, वह खत्म हो गई।

महाभारत में भी संजीवनी विद्या का वर्णन है। असुरों के गुरु शुक्राचार्य यह विद्या जानते थे। इसी से देवासुर संग्राम में देवगण असुरों से नहीं जीत पाते थे, क्योंकि मृत असुरों को शुक्राचार्य संजीवनी विद्या से पुनः जीवित कर देते थे। देव गुरु वृहस्पति के पल्ले यह विद्या पड़ी ही नहीं थी। फलतः उनके पुत्र कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने भेज गया। उसने पूरे पांच साल रहकर उस विद्या को सीखा।

इसी बीच दानवों ने उसे मार डाला, जिस पर शुक्राचार्य ने इस विद्या से उसे पुनः जीवित कर दिया। पश्चिमी जगत को तो इन विद्याओं की खोज में सदियां गुजर जाएंगी। आयुर्वेद मानव स्वास्थ्य का ध्यान रखता है लेकिन आयु रहते हम करें क्या? इसका निर्देश सनातन भारत यह कहता है कि ‘आयुर्यज्ञेन कल्पताम्’ अर्थात अपनी आयु व्यतीत करो, खपाओ-लगाओ पर हित, पर सेवा, परमार्थ और परोपकार में।

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