स्वामी श्री 1008 श्री स्वामी करपात्रीजी महाराज
वेदाचार्य श्रीमत्कृष्णद्वैपायनप्रणीत अठारह पुराणों में ‘श्रीनारदपुराण’ जिसमें २५००० श्लोक हैं-अनेक विषयों से पूर्ण एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। समस्त तीर्थों में जैसे गङ्गा, वनों में वृन्दावन, पुरियों में वाराणसी, व्रतों में एकादशी श्रेष्ठ है, वैसे ही सब पुराणों में यह पुराण श्रेष्ठ है। इस पुराण रत्न का निरीक्षण करते हुए उसमें जो कल्याण है, वह सर्वसाधारण में अप्रसिद्ध और विलक्षण विषय दृष्टिगोचर हुए, उन्हें जनताजनार्दनके सामने उपहारस्वरूप प्रस्तुत किया जा रहा है। ‘नारदपुराण’ का परम तात्पर्य परमानन्दघन भगवान् श्रीकृष्ण में है, क्योंकि उपक्रम और उपसंहार- में उन्हीं का संकीर्तन हुआ है उपक्रम में कहा गया है-
वन्दे वृन्दावनासीनमिन्दिरानन्दमन्दिरम् ।
उपेन्द्र सान्द्रकारुण्यं परानन्दं परात्परम् ॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाख्या यस्यांशा लोकसाधकाः ।
तमादिदेवं चिद्रूपं विशुद्धं परमं भजे ॥
इस तरह सगुण और निर्गुण-भेद से श्रीकृष्ण के दोनों स्वरूपों का वर्णन किया गया है। उपसंहार आगे बतलाया जायगा। भगवत्परायण भागवतों की वेद और वेदोक्त धर्मों में सर्वतोभावेन परिनिष्ठितता आवश्यक है। उसके बिना अनेकधा दोषों एवं उसके होने पर बहुत से गुणों का वर्णन किया गया है। अपने आचारका पालन करते हुए जो हरि भक्ति में तत्पर होता है, वह उस वैकुण्ठ धाम को प्राप्त करता है, जिसे विद्वान् देखते हैं–
स्वाचारमनतिक्रम्य हरिभक्तिपरो हि यः।
स याति विष्णुभवनं यद् वै पश्यन्ति सूरयः॥
जो अपने आचार से हीन है, चाहे वह वेदान्तपारगामी ही क्यों न हो, वह पतित है; क्योंकि वह कर्म से हीन है-
स्वाचारपरिभ्रष्टः साङ्गवेदान्तगोऽपि वा।
स एव पतितो ज्ञेयो यतः कर्मबहिष्कृतः॥
जो अपने आश्रम और आचार से हीन है और हरिभक्ति, हरिध्यान करता है, तो वह भी निन्द्य है-
हरिभक्तिपरो वापि हरिध्यानपरोऽपि वा।
भ्रष्टो यः स्वाश्रमाचारात् पतितः सोऽभिधीयते ॥
आचार से हीन पुरुष को हरि या हर की भक्ति अथवा वेद भी नहीं पवित्र कर सकते –
वेदो वा हरिभक्तिर्वा भक्तिर्वापि महेश्वरे।
आचारात् पतितं मूढं न पुनाति द्विजोत्तमम् ॥
अपने आश्रम और आचार से युक्त हरि भक्त के जैसा – तीन लोक में कोई नहीं –
स्वाश्रमाचारयुक्तस्य हरिभक्तिर्यदा भवेत् ।
न तस्य त्रिषु लोकेषु सदृशोऽस्त्यजनन्दन ॥
भक्ति से किये गये कर्म भगवान् को प्रसन्न करने में समर्थ होते हैं, अतः वे ही कर्म सफल हैं। भक्तिपूर्वक सम्पादित कर्मों से भगवान् की प्रसन्नता होने पर ज्ञान और फिर मोक्ष सिद्ध होता है-
भक्त्या सिद्धयन्ति कर्माणि कर्मभिस्तुष्यते हरिः ।
तस्मिंस्तुष्टे भवेज्ज्ञानं ज्ञानान्मोक्षमवाप्यते ॥
वैष्णव और भागवत कौन है, इस पर अनेक विप्रति- दोनों पत्तियाँ हैं; परंतु विविध सिद्धान्तों पर समीचीन विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि विष्णु स्वरूपोपलक्षित, सकल सच्छास्त्र के महातात्पर्य के विषय भगवान के जो भक्त हैं, वे वैष्णव हैं; क्योंकि ‘वेवेष्टीति विष्णु:’ इस व्युत्पत्ति से शुद्ध ब्रह्म ही मुख्यतया विष्णुपदार्थ है। एवंच विष्णुमन्त्रनिष्ठ जैसे वैष्णव जो है, वैसे ही शिवमन्त्रादिनिष्ठ भी वैष्णव ही है; क्योंकि विष्णु प्राप्त और शिव में वस्तुतः अभेद है। समस्त वेदों का और गायत्री-का विष्ण्वात्मक परब्रह्म में पर्यवसान है, अतः गायत्री निष्ठ सभी वैदिक सुतरां वैष्णव और भागवत कहे जा सकते हैं। ‘नारदपुराण’ में स्पष्ट ही बतलाया गया है कि जो शिवजी के अर्चन आदि में लगे रहते हैं, त्रिपुण्ड्र धारण करते हैं, जो शिव या विष्णु का नाम जपते हैं, रुद्राक्ष से अलंकृत होते हैं, शिव या विष्णु में जिनकी समान बुद्धि है, जो शिव और अग्नि के आराधन में लगे हैं, पञ्चाक्षर मन्त्र का जप करते हैं, वे भागवत हैं–
शिवप्रियाः शिवासक्ताः शिवपादार्चने रताः ।
त्रिपुण्ड्रधारिणो ये च ते वै भागवताः स्मृताः ॥
व्याहरन्ति च नामानि हरेः शम्भोर्महात्मनः ।
रुद्राक्षालंकृता ये च ते वै भागवताः स्मृताः ॥
शिवे च परमेशे च विष्णौ च परमात्मनि ।
समबुद्धया प्रवर्तन्ते ते वै भागवताः स्मृताः ॥
शिवाग्निकार्यनिरताः पञ्चाक्षरजपे रताः ।
शिवध्यानरता ये च ते वै भागवताः स्मृताः ॥
इन भागवतों के लिये सदाचार पालन अत्यावश्यक है, अन्यथा पातित्य बतलाया गया है। भगवान का नाम विक्रय करना पाप है। केवल कमाई की दृष्टि से पैसा लेकर संकीर्तन नाम विक्रय ही है। भगवान का नाम बेचने वाले, संध्याकर्म छोड़ देने वाले और दुष्प्रतिग्रह लेने वाले को दान देना निष्फल बतलाया गया है-
नामविक्रयिणो विष्णोः संध्याकर्मोज्झितस्य च ।
दुष्प्रतिग्रहदग्धस्य दत्तं भवति निष्फलम् ॥
उच्छिष्ट भोजन भी निन्दित ही कहा गया है। उच्छिष्ट भोजन करने, मित्रों के साथ द्रोह करने वाले, जब तक चन्द्रमा और नक्षत्र हैं, तब तक तीव्र यातना भोगते हैं—
उच्छिष्टभोजिनो ये च मित्रद्रोहपराश्च ये ।
एतेषां यातनास्तीवा भवन्त्याचन्द्रतारकम् ॥
इसके अतिरिक्त अपने वर्णाश्रमोचित धर्म को छोड़कर भक्तिमात्रोपजीवन अत्यन्त दोषावह बतलाया गया है, अतः जिससे स्वधर्म में विरोध न आये, ऐसी भक्ति करनी चाहिये-
यः स्वधर्मं परित्यज्य भक्तिमात्रेण जीवति ।
न तस्य तुष्यते विष्णुराचारेणैव तुष्यति ॥
तस्मात् कार्या हरेर्भक्तिः स्वधर्मस्याविरोधिनी ।
स्वधर्महीना भक्तिश्चाप्यकृतैव प्रकीर्तिता ॥
भगवान को प्रसन्न करने के लिये कर्म करने चाहिये। निष्काम पुरुष को भी यथा विधि भगवत्प्रसादके लिये कर्म करते रहना चाहिये अपने आश्रम और आचार से शून्य पुरुष पतित ही है-
सदाचारपरो विप्रो वर्द्धते ब्रह्मतेजसा।
विष्णुश्च तुष्टो भवति…
इन सब कथनों से यह कहना कि ‘उनके लिये कोई कर्म करना शेष नहीं रह जाता’ खण्डित हो जाता है। श्रुतिस्मृतिप्रोक्त धर्म का अतिलङ्घन करने वाले के लिये वैष्णवत्व असम्भव है। लोक का अतिलङ्घन करने के बाद ही परम विरक्त ब्राह्मण का विधिपूर्वक तीव्र विविदिषा से सर्वकर्म त्याग लक्षण संन्यास में अधिकार है-
ज्ञाननिष्ठो विरक्तो वा मद्भक्तो वानपेक्षकः।
सलिङ्गानाश्रमांस्त्यक्त्वा चरेदविधिगोचरः॥
विरक्तः प्रव्रजेद्धीमान् सरक्तश्चेद् गृहे वसेत् ।
इत्यादि स्मृति के अनुसार स्त्री पुत्र, धन आदिव अर्जन में लगे हुए, संसार में आसक्त, वैष्णवी दीक्षायुक्त के लिये भी कर्म का त्याग कर देने पर पातित्य अवश्यम्भावी प्रतीत होता है। जो लोग यह उपदेश करते हैं कि ‘अवैष्णवों के लिये ही श्रौत स्मार्त्त कर्मों का विधान है, वैष्णवों के लिये नहीं’ वे उपेक्ष्य हैं; क्योंकि ‘भारत’ और ‘गीता’ में भी ‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’ इत्यादि से परमान्तरङ्ग भक्त अर्जुनके लिये भी भगवान्ने ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ इत्यादि से श्रौतस्मार्त्तकर्मा- नुष्ठानका ही प्रतिपादन किया है । ‘नारदपुराण’ ने इन वचनों से यह बात स्पष्ट कर दी है। त्यागेच्छु को भगवत्प्रसन्नता- के लिये अपने आश्रमानुसार वेदशास्त्रोक्त कर्मों को करते रहना चाहिये, इससे अव्यय पद प्राप्त होता है। निष्काम हो या सकाम, उसे यथाविधि स्वोचित कर्म करना चाहिये अपने आश्रमोचित आचार से रहित व्यक्ति को विवेकी पुरुष पतित बतलाते हैं। भक्तियुक्त पुरुष सदाचारपरायण हो तो वह ब्रह्मतेजसे वृद्धिङ्गत होता है और उसपर भगवान् विष्णु संतुष्ट होते हैं। भारतवर्ष में जन्म पाकर भी जो अपने आपको नहीं तार लेता, वह जब तक चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र वर्तमान रहते हैं, तब तक भयंकर नरक में कष्ट पाता है—
वेदोदितानि कर्माणि कुर्यादीश्वरतुष्टये
यथाश्रमं त्यक्तुकामः प्राप्नोति पदमव्ययम् ॥
निष्कामो वा सकामो वा कुर्यात् कर्म यथाविधि ।
स्वाश्रमाचारशून्यश्च पतितः प्रोच्यते बुधैः ॥
सदाचारपरो विप्रो वर्द्धते ब्रह्मतेजसा ।
तस्य विष्णुश्च तुष्टः स्याद् भक्तियुक्तस्य नारद ॥
भारते जन्म सम्प्राप्य नात्मानं तारयेत्तु यः ।
पच्यते निरये घोरे स त्वाचन्द्रार्कतारकम् ॥
इस पुराण में युगधर्मो का वर्णन भी हुआ है। कलियुग में कौन त्याज्य और कौन ग्राह्य धर्म है, यह भी बतलाया गया है। औचित्य- विचारपूर्वक वर्णों को युगधर्म का ग्रहण करना चाहिये और जिनका स्मृति-धर्मो से विरोध न हो, उन देशाचारों को भी ग्रहण करना चाहिये—
युगधर्मः परिग्राह्यो वर्णैरेतैर्यथोचितम्
देशाचारस्तथा गाह्यः स्मृतिधर्माविरोधतः ॥
मन, वाणी और कर्म यत्नपूर्वक धर्म का आचरण करना चाहिये, परंतु लोकविरुद्ध या लोक में जिससे विद्वेष हो तथा जो अस्वर्ग्य हो, ऐसे धर्म सम्बन्धी कार्यों को भी न करना चाहिये–
कर्मणा मनसा वाचा यत्नाद् धर्मं समाचरेत् ।
अस्वयं लोकविद्विष्टं धर्म्यमप्याचरेन्न तु ॥
आगे चलकर देशाचार पर बड़ा जोर दिया है। कहा है कि उन-उन देशवासियों को वहाँ के देशाचार का ग्रहण करना चाहिये, नहीं तो वे पतित माने जायँगे और उनका किसी धर्म में स्वीकार न होगा-
देशाचाराः परिग्राह्यास्तत्तद्देशगतैर्नरैः।
अन्यथा पतितो ज्ञेयः सर्वधर्मबहिष्कृतः॥
इसके आगे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के कर्मों का सामान्यतः प्रतिपादन हुआ है संध्या-वन्दनादि से विहीन द्विज की बड़ी निन्दा की गयी है। कहा गया है कि बिना किसी आपत्ति भी जो धूर्त बुद्धि द्विज संध्योपासन नहीं करता, उसे पाखण्डी समझना चाहिये और वह सब धर्मो से बहिष्कृत है—
नोपास्ते यो द्विजः संध्यां धूर्त्तबुद्धिरनापदि ।
पाखण्डः स हि विज्ञेयः सर्वधर्मबहिष्कृतः ॥
छल- प्रयोगमें चतुर जो द्विज संध्या-वन्दन आदि कर्मों को छोड़ देता है, वह महापापी है-
यस्तु संध्या कर्माणि कूटयुक्तिविशारदः
परित्यजति तं विद्यान्महापातकिनां वरम् ॥
जिसने संध्योपासनादि कर्म का त्याग कर दिया है, उसके साथ भाषण करनेवाले द्विज घोर नरकों में जाते हैं और वहाँ उन्हें सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्रों की स्थितिपर्यन्त रहना पड़ता है-
ये द्विजा अभिभाषन्ते त्यक्तसंध्यादिकर्मणः ।
ते यान्ति नरकान् घोरान् थावच्चन्द्रार्कतारकम् ॥
इसके अतिरिक्त सामान्य कर्म-वर्णन-प्रसङ्ग में देवार्चन, वैश्वदेव और अतिथि सत्कार के सम्पादन पर बड़ा जोर दिया गया है–
देवार्चनं ततः कुर्याद् वैश्वदेवं यथाविधि
वक्तव्या मधुरा वाणी तेष्वप्यभ्यागतेषु तु
जलानकन्दमूलैर्वा गृहदानेन चार्चयेत् ॥
इस प्रसङ्गके अन्त में कहा गया है कि जो उक्त रीति से वर्णाचार और आश्रमाचार में निरत हैं, सब पापों से रहित हैं, श्रीमन्नारायण के अनन्य भक्त हैं, वे भगवान् विष्णुके परमपद को प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त प्राणियों में बुद्धि, मन, इन्द्रिय, सत्त्व, तेज, बल और धृति आदि चाहे पर्याप्त हों, परंतु धर्म में जिनकी भक्ति नहीं है, उनसे श्रीहरि अत्यन्त दूर हैं। धर्म वेदविहित हैं और वेद सर्वातिशायी भगवान् नारायण हैं, उनमें जिनकी श्रद्धा नहीं है, श्रीहरि उनसे अत्यन्त दूर हैं—
वर्णाश्रमाचाररताः सर्वपापविवर्जिताः ।
नारायणपरा यान्ति यद् विष्णोः परमं पदम् ॥
निरञ्जनमनन्ताख्यं विष्णुरूपं नतोऽस्म्यहम् ।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्वं तेजो बलं धृतिः ॥
धर्मेवभक्तिमनसां तेषां दूरतरो हरिः ।
वेदप्रणिहितो धर्मों वेदो नारायणः परः ।
तत्राश्रद्धापरा ये तु तेषां दूरतरो हरिः ॥
यहाँ श्रीशिव और श्रीविष्णु का अभेद बहुधा वर्णित हुआ है। कहा है कि श्रीशिव ही श्रीहरि हैं और साक्षात् श्रीहरि ही शिव हैं, इनमें परस्पर भेद देखने वाला खल है और वह करोड़ों नरकों में जाता है। इसलिये श्रीविष्णु की अथवा भगवान् शङ्कर की समबुद्धि से पूजा करनी चाहिये। जो भेद- बुद्धि रखता है, उसे दोनों लोकों में दुःख उठाना पड़ता है–
शिव एव हरिः साक्षाद्धरिरेव शिवः स्वयम् ।
द्वयोरन्तरदृग् याति नरकान् कोटिशः खलः ॥
तस्माद् विष्णुं शिवं वापि समबुद्धया समर्चयेत् ।
भेदकृद् दुःखमाप्नोति इह लोके परत्र च ॥
इसलिये सब सच्छास्त्रों को मान्य, भगवदाराधन लक्षण धर्म में जो विघ्नभूत अपराध हैं, उन्हें भगवद्भक्तों को अवश्य छोड़ देना चाहिये वे अपराध ये हैं–गुरुकी अवज्ञा, साधुओंकी निन्दा, हरि-हरमें भेद बुद्धि, वेद की निन्दा, भगवन्नाम के बल पर पापाचरण, श्रीहरिके नाम में अर्थवाद बुद्धि, नामग्रहण में पाखण्डी, आलसी और नास्तिकको भी हरिनाम का उपदेश, नाम का विस्मरण और नाम में अनादर
गुरोरवज्ञां साधूनां निन्दां भेदं हरौ हरे ।
वेदनिन्दां हरेनमवलात् पापसमीहनम् ॥
अर्थवाद हरेर्नाम्नि पाषण्डं नामसंग्रहे ।
अलसे नास्तिके चैव हरिनामोपदेशनम् ॥
नामविस्मरणं चापि नाम्न्यनादरमेव च ।
संत्यजेद् दूरतो वत्स दोषानेतान् सुदारुणान् ॥
‘वाराहपुराण’ में भी सौभाग्य व्रत के प्रसङ्ग मे श्रीशिव और श्रीविष्णु में भेदबुद्धि रखना महान् दोष बतलाते हुए कहा गया है कि जो लक्ष्मी हैं, वह पार्वती ही हैं और जो श्रीहरि हैं, वे साक्षात् त्रिलोचन ही हैं, सब शास्त्रों, पुराणोंमें ऐसा प्रतिपादित है। इसके विपरीत जो कहता है, वह शास्त्र के विरुद्ध कहता है। ऐसी बात कहनेवाला मनुष्य रुद्र अर्थात् रौद्र है, दुःख देने वाला है और ऐसा शास्त्र शास्त्र नहीं, काव्य है-अनादरणीय भगवान् विष्णु श्रीशिव और लक्ष्मी गौरी कही जाती हैं। इनमें परस्पर भेद को समझने वाला सज्जनों की दृष्टिमें अधम कहा गया है। (स्वयं त्रिदेववचन है-) उसे नास्तिक समझो, वह सब धर्मो से बहिष्कृत है, जो हम तीनोंमें भेद करता है। (श्रीहर-वचन है) वह पाप करने वाला है, दुष्ट है, उसे दुर्गति मिलेगी, जो ब्रह्मा और विष्णु के स्वरूप से मुझे भिन्न समझकर मेरा भजन करता है—
या श्रीः सा गिरिजा प्रोक्ता यो हरिः स त्रिलोचनः ।
एवं सर्वेषु शास्त्रेषु पुराणेषु च गद्यते ॥
एतस्मादन्यथा यस्तु मृते शास्त्रं पृथक्तया ।
रुद्रो जनानां मर्त्यानां काव्यं शास्त्रं तु तद् भवेत् ॥
विष्णुं रुद्रकृतम ब्रुयाच्छ्रीगौरीति निगद्यते
एतयोरन्तरं यथ सोऽधमः कथ्यते जनैः ॥
तं नास्तिकं विजानीयात् सर्वधर्मबहिष्कृतम् ।
यो भेदं कुरुतेऽस्माकं त्रयाणां द्विजसत्तम ॥
स पापकारी दुष्टात्मा दुर्गति समवाप्नुयात् ।
मां विष्णोर्व्यतिरिक्तं ये ब्रह्मणश्च द्विजोत्तम ॥
भजन्ते पापकर्माणस्ते यान्ति नरके नराः।।
वैष्णवताके विचारमै कुछ लोग तो स्मात्तों (स्मृति- प्रधान कर्मशीलों) को छोड़कर केवल श्रौतों (वेदप्रधान कर्मतत्परों) को ही वैष्णव मानते हैं, परंतु यह ठीक नहीं है। गृह्यसूत्रों और मन्यादि बचन को छोड़कर श्रौतों का कोई श्रतत्य नहीं है, उन्हें भी गृहसूत्रादिप्रोक्त धर्म का अनुष्ठान करना ही पड़ता है। वेदों में यज्ञोपवीतका स्वरूप, उसके बनाने का प्रकार, उपनयन-विवाह आदि के प्रकार नहीं बतलाये गये हैं और इन सबके बिना कैसा श्रौतत्व, कैसी आ वैदिकता ? फिर मनु, व्यास, याज्ञवल्क्य प्रभृति वैदिक थे या अवैदिक ? यदि अवैदिक तो जनता के प्रति उन्हें क्या प्रत्याशा होती ? और यदि वैदिक तो ठीक ही है, फिर तो उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म भी वैदिक ही हुए। ऐसी स्थिति- में श्रौतजनोंको उनकी उपेक्षा करना कैसे उचित है ? बल्कि स्मार्त्त कर्मों का अनुष्ठान करने वाले भी श्रौताग्निहोत्र, दर्श-पूर्णमास, चातुर्मास्य और ज्योतिष्टोमादि श्रौत-कर्मोंका करते हुए विशेषतः श्रौत कहे जाते हैं जो श्रौताधानादि रहित हैं, वे केवल स्मार्त हैं। वस्तुतः जो सब इच्छाओं से विनिर्मुक्त हो चुके हैं, सब कर्मों का संन्यास कर चुके हैं, ऐसे परिव्राजक वैष्णव कहे जाते हैं । इसीलिये इस (नारद) पुराण में एकादशी-उपोषण-प्रसङ्ग में दशमी का स्मार्त्तो को सूर्योदयवेध, श्रौतोंको अरुणोदयवेध और वैष्णवोंको अर्द्धरात्र- वेध निर्दिष्ट हुआ है। गृहस्थ लोग किसी भी तरह वैष्णव- कोटि में नहीं आ सकते, क्योंकि वे या तो श्रौत होंगे या स्मार्त्त, इसीलिये गृहस्थों के लिये पहली और यतियों के अर्थात् वैष्णवों- लिये दूसरी एकादशी का व्रत विहित हुआ है कहा गया है किं गृहस्थों को पहली और यतियों को दूसरी एकादशी करनी चाहिये, क्योंकि गृहस्थ सिद्धि चाहते हैं और यतीश्वर मोक्ष द्वादशी यदि त्रयोदशी में आ जाय, तो वह परा दूसरी- एकादशी मानी जाती है । गृहस्थोंको वैसी स्थितिमें दशमी- विद्धा भी पहली ही एकादशी का व्रत करना चाहिये और यतियों को तथा पति-पुत्ररहित स्त्रियों को दूसरी एकादशी करनी चाहिये–
पूर्वा गृहस्थैः सा कार्या ह्युत्तरा यतिभिस्तथा ।
गृहस्थाः सिद्धिमिच्छन्ति यतो मोक्षं यतीश्वराः ॥
द्वादशी चेत् त्रयोदश्यामस्ति चेत् सा परा मता ।
विद्धाप्येकादशी तत्र पूर्वा स्याद् गृहिणां तदा ॥
यतिभिश्वोत्तरा ग्राह्या ह्यवीराभिस्तथैव च ।
वहाँ यह भी कहा गया है कि दोनों ही पक्ष की एकादशी- का व्रत करना चाहिये–
एकादश्यां न भुञ्जीत पक्षयोरुभयोरपि ।
इससे यह स्पष्ट है कि ‘कृष्ण पक्ष की एकादशी का व्रत गृहस्थ न करे’ यह बात साधारण है। एकादशी व्रत करना तो अत्यावश्यक ही है ।
अपने वर्ण और आश्रमके आचारानुसार श्रीहरि का समाराधन करके ही मनुष्य उन्हें जान सकता है। वह आराधन किसका किया जाता है, इसका संक्षिप्त निर्देश निम्न पद्यों में है—वृन्दावनमें समासीन, श्रीलक्ष्मी के आनन्द का स्थान, अत्यन्त कृपालु, आनन्दघन, सर्वातिशायी, लोक-साधनमें तत्पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश नामक देवता जिसके अंश हैं, उन विशुद्ध, चित्स्वरूप आदिदेव का मैं वन्दन-भजन करता हूँ-
वन्दे वृन्दावनासीनमिन्दिरानन्दमन्दिरम्।
उपेन्द्र सान्द्रकारुण्यं परानन्दं परात्परम् ॥
ब्रह्मविष्णुमहेशाख्या यस्यांशा लोकसाधकाः।
तमादिदेवं चिद्रूपं विशुद्धं परमं भजे॥
उपास्यस्वरूप के विषय में और भी कहा है-वह विशुद्ध, निर्गुण, नित्य और माया – मोहसे वर्जित है; परंतु निर्गुण होते हुए भी गुणवान की तरह ज्ञात होता है-
विशुद्धो निर्गुणो नित्यो मायामोह विवर्जितः ।
निर्गुणोऽपि परानन्दो गुणवानिव भाति यः ॥
तत्त्वविचारकोंने मोक्षको उत्कृष्ट और ज्ञान से प्राप्त करने योग्य माना है। ज्ञान भक्तिमूलक है तथा भक्ति शास्त्रोक्त कर्म करने वाले को मिलती है–
ज्ञानलभ्यं परं मोक्षमाहुस्तत्वार्थचिन्तकाः ।
यज्ज्ञानं भक्तिमूलं च भक्तिः कर्मवतां तथा ॥
भक्ति किसे मिलती है, इस पर कहा गया है, हजारों जन्मों में जिसने अनेक दान, यज्ञ, तीर्थयात्रा आदि किये हैं, उसे श्रीहरिभक्ति मिलती है—
दानादियज्ञा विविधास्तीर्थयात्रादयः कृताः ।
येन जन्मसहस्रेषु तस्य भक्तिर्भवेद्धरौ ॥
भक्ति के लेशमात्रसे अक्षय परम धर्म होता है और उत्कृष्ट श्रद्धा के द्वारा समस्त पापों का प्रशमन हो जाता है-
अक्षयः परमो धर्मो भक्तिलेशेन जायते ।
श्रद्धया परया चैव सर्वं पापं व्यपोहति ॥
सब पापों के नष्ट होनेपर बुद्धि निर्मल हो जाती है और वही निर्मल बुद्धि पण्डितोंके द्वारा ‘ज्ञान’ कही गयी है—
सर्वपापेषु नष्टेषु बुद्धिर्भवति निर्मला ।
सैव बुद्धिः समाख्याता ज्ञानशब्देन सूरिभिः ॥
इस चेतन और जड जगत् में श्रेष्ठ पण्डितों के साथ नित्य और अनित्य वस्तु का अच्छी तरह विचार करना चाहिये-
चराचरात्मके लोके नित्यं चानित्यमेव च ।
सम्यग् विचारयेद्धीमान् सद्भिः शास्त्रार्थकोविदैः॥
निर्गुण को ‘पर’ कहा गया है और जिसमें अहंकार का बल हो, वह ‘अपर’। इन दोनोंके अभेद-विज्ञान को ‘योग’ कहा जाता है—
परस्तु निर्गुणः प्रोक्तो ह्यहङ्कारयुतोऽपरः
तयोरभेदविज्ञानं योग इत्यभिधीयते ॥
आगे चलकर ‘विष्णु स्मरण-प्रकार’ का निर्देश हुआ है। उपासक भावना करे कि यह सम्पूर्ण जगत् विष्णु है, सबका कारण विष्णु ही है और मैं भी विष्णु ही हूँ, इस प्रकार के शान या भावना का नाम विष्णु स्मरण है-
सर्वं जगदिदं विष्णुर्विष्णुः सर्वस्य कारणम् ।
अहं च विष्णुर्यज्ज्ञानं तद्विष्णुस्मरणं विदुः ॥
इसमें ‘समता’ भी दिखलायी गयी है—भगवान् विष्णु सर्वभूतमय हैं । वे परिपूर्ण हैं, इस प्रकारकी अभेद बुद्धि का नाम समता है—
सर्वभूतमयो विष्णुः परिपूर्णः सनातनः ।
इत्यभेदेन या बुद्धिः समता सा प्रकीर्तिता ॥
आत्मा और अनात्मा के अनादिसिद्ध आविधिक भेद का अनुवाद करके पारमार्थिक अभेद कहा गया है-
‘हे ब्राह्मणी वेदितव्ये’
आत्माके दो भेद बताये गये हैं—पर और अपर। पञ्चभूतात्मक देहस्थ हृदयमें जो साक्षीरूपसे स्थित है, वह ‘अपर’ और परमात्मा ‘पर’ है। इसके साथ शरीर को क्षेत्र और उसमें रहने वाले को क्षेत्रज्ञ कहा गया है-
आत्मानं द्विविधं प्राहुः परापर विभेदतः ।
पञ्चभूतात्मके देहे यः साक्षी हृदये स्थितः ॥
अपरः प्रोच्यते सद्भिः परमात्मा परः स्मृतः ।
शरीरं क्षेत्रमित्याहुः तत्स्थः क्षेत्रज्ञ उच्यते ॥
अव्यक्त, परम शुद्ध और परिपूर्ण है जब जीवात्मा और परमात्मा का अभेद विज्ञान हो जाता है, तब अपर आत्मा- का पाशबन्धन छिन्न-भिन्न हो जाता है वह परमात्मा जगन्मय है। एक, शुद्ध, अक्षर और नित्य है । मनुष्यों के विज्ञान-भेद से, वह अभिन्न होनेपर भी भिन्न- जैसा प्रतीत होता है–
अव्यक्तः परमः शुद्धः परिपूर्ण उदाहृतः ।
यदा त्वभेदविज्ञानं जीवात्मपरमात्मनोः ॥
भवेत्तदा मुनिश्रेष्ठ पाशच्छेदोऽपरात्मनः ।
एकः शुद्धाक्षरो नित्यः परमात्मा जगन्मयः ॥
नृणां विज्ञानभेदेन भेदवानिव लक्ष्यते ॥
आत्मामें नानात्व अज्ञबुद्धि-कल्पित है, वस्तुतः वह शुद्ध और एक ही हैं । कहा है- वेदान्तोंक द्वारा जिसका समर्थन है, वह एक ही है, अद्वितीय है—
एकमेवाद्वितीयं यत् परं ब्रह्म सनातनम् ।
गीयमानं च वेदान्तैस्तस्मान्नास्ति परं द्विज ॥
उस निर्गुण परात्मामें कर्तृत्व-भोक्तृत्व नहीं है, उसका रूप, वर्ण, कर्म, कार्य कुछ भी नहीं हैं-
न तस्य कर्म कार्यं वा रूपं वर्णमथापि वा ।
कर्तृत्वं वापि भोक्तृत्वं निर्गुणस्य परात्मनः ॥
शब्दब्रह्ममय जो महावाक्यादि हैं, उनके विचारसे उत्पन्न ज्ञान मोक्षका साधन है। सम्यक् ज्ञानसे रहित जीवों को यह विविध भेदयुक्त जगत् दिखलायी पड़ता है, पर तत्त्वज्ञानी इसको परब्रह्मात्मक देखता है—
शब्दब्रह्ममयं यत्तन्महावाक्यादिकं द्विज ।
तद्विचारोद्भवं ज्ञानं परं मोक्षस्य साधनम् ॥
सम्यग्ज्ञानविहीनानां दृश्यते विविधं जगत् ।
परमज्ञानिनामेतत् परब्रह्मात्मकं जगत् ॥
परात्पर, निर्गुण, अद्वय, अव्यय, परमानन्दस्वरूप तत्त्व विज्ञानभेदके कारण अनेक रूपोंमें भासित होता है माया- विशिष्ट प्राणी माया के कारण परमात्मा में भेद का अवलोकन करते हैं। अतः योगकी सहायतासे मायाका त्याग करना चाहिये। विशुद्ध ज्ञान ही योग है । भेद-बुद्धिकी जनक माया न सत् है, न असत्, न उभयरूप, अतः वह अनिर्वाच्य कही जाती है। माया और अज्ञान एक ही पदार्थ है, अतः माया- को जीतने वालों का अज्ञान नष्ट हो जाता है वस्तु-साक्षात्कार- के लिये मनकी स्थिरता अपेक्षित है। ध्येय वस्तुमें चित्त इस तरह स्थिर करना चाहिये कि ध्यान, ध्येय, ध्यातृभाव बिल्कुल नष्ट हो जाय। तभी ज्ञानामृत का प्राकट्य होता है, जिसके सेवन से प्राणी अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है। माया के कारण ही परमात्म तत्व में गुणवत्ता की प्रतीति होती है, वस्तुतः तो वह निर्गुण ही है
निर्गुणोऽपि परो देवो ह्यज्ञानाद् गुणवानिव ।
विभात्यज्ञाननाशे तु यथापूर्वं व्यवस्थितम् ॥
एक ही परमात्मतत्त्व में कार्य-कारणादि प्रपञ्चोपहित होने अन्तर्यामित्वादि व्यवहार होते हैं। कार्य-कारणात्मक जगत् विद्युत्की तरह क्षणिक सत्ता वाला, केवल भावनामय अतः अपारमार्थिक है। कार्य-कारणातीत कूटस्थ ब्रह्म ही पारमार्थिक है। परमात्माकी प्रसन्नतासे ही उनकी प्राप्ति हो सकती है और उनकी प्रसन्नताका निदान स्वधर्माचरण है। स्त्री के लिये पतिशुश्रूषा ही परमात्म-तुष्टिद्वारा मोक्ष प्राप्ति का साधन है-
या तु नारी पतिप्राणा पतिपूजापरायणा ।
तस्यास्तुष्टो जगन्नाथो ददाति स्वपदं मुने ॥
प्रत्येक प्राणीको स्वयं ही यह विचार करना चाहिये कि मैं कौन हूँ, मेरा कर्तव्य क्या है, मेरा जन्म कैसे हो गया, मेरा वास्तविक स्वरूप कैसा है, जिसे मैं ‘मेरा’ कहता हूँ, क्या वह भ्रम तो नहीं है, अहंभाव तो मन का धर्म है, आत्मा का नहीं। सनातन परब्रह्मतत्त्व एकमात्र ज्ञानसे ही वेद्य है, उस परिपूर्ण, परमानन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ है ही नहीं। स्वप्रकाश, नित्य, अनन्त परमात्मा में क्रिया, जन्म आदि किस तरह सम्भव है-
स्वप्रकाशात्मनो विप्र नित्यस्य परमात्मनः ।
अनन्तस्य क्रिया चैव कथं जन्म च कथ्यते ॥