हिमशिखर धर्म डेस्क
महर्षि अगस्त्य को पुलस्त्य ऋषि का बेटा माना जाता है। उनके भाई का नाम विश्रवा था जो रावण के पिता थे। पुलस्त्य ऋषि ब्रह्मा के पुत्र थे। महर्षि अगस्त्य ने विदर्भ-नरेश की पुत्री लोपामुद्रा से विवाह किया, जो विद्वान और वेदज्ञ थीं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार एक बार अगस्त्य ऋषि भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक टिटहरी पक्षी अपनी चोंच से समुद्र के पानी को लेकर खाली स्थान में उड़ेल रहा है।
ऋषि के पूछने पर उसने बताया कि समुद्र के किनारे एक छोटे से पेड़ पर उसका घोंसला था जिस में उसके अण्डे भी थे। समुद्र ने अपनी लहरों से उस पेड़ को उखाड़ दिया जिससे उसका घोंसला व अण्डे बह गए।
अब वह पक्षी अपने अण्डे वापस चाहता था। यह सुनकर दयालु ऋषि ने उस पक्षी की सहायता करने के लिए समुद्र से प्रार्थना की कि वह उस निरीह पक्षी पर दया करे व उसका घोंसला तथा अण्डे वापस दे दे।
ऋषि की प्रार्थना सुनकर भी समुद्र तस से मस नहीं हुआ। तब ऋषि ने क्रोध करने हुए सारे समुद्र के जल को अपने कमण्डल में भर लिया। अपनी दुर्दशा देखकर समुद्र ने ब्रह्माजी का स्मरण किया। तब ब्रह्माजी प्रकट हुए, उन्होंने ऋषि अगस्त्य जी से निवेदन किया कि वे समुद्र को बन्धन मुक्त करें। बदले में ब्रह्माजी ने ऋषि को कोई मनचाहा वर माँगने को कहा। तब ऋषि ने समुद्र को बन्धन मुक्त कर दिया व वर के रूप में भगवान के चरणों में अनन्य भक्ति का वरदान मांगा।
श्रीरामचरितमानस के अनुसार उस वरदान को सम्पूर्ण करने के लिए श्रीराम चन्द्र के अवतार के समय में भगवान स्वंय अगस्त्य ऋषि के आश्रम में उन्हें दर्शन देने के लिए उनके आश्रम में पंहुचे थे।