हमारी संस्कृति हमारी विरासत: समय के साथ बदल रहा मेलों का स्वरूप

पंडित हर्षमणि बहुगुणा

देवभूमि गढ़वाल में इस महीने थौल (मेलों) का आयोजन किया जाता है। यहां देवस्थलीय उत्सवों को थौल कहा जाता है। थौल में विशेषकर आध्यात्मिक वातावरण होता है। यह एक दिन का उत्सव है और इस उत्सव का आयोजन प्रमुखत: किसी देवी देवता को समर्पित करने हेतु उत्सव व उस मेले में स्थानीय लोगों की भागीदारी अपनी मनोकामनाओं की मनौती की पूर्ति या आगे मनोकामनाओं की पूर्ति की कामना, सम्भवतः इस अवधारणा से थौल का प्रारम्भ किया गया। जिसका अब रुपान्तरण हो रहा है।

धीरे-धीरे मूल भावना से हम हट रहे हैं और आज कौथिग के रूप में उस मेले में सम्मिलित होते हैं। एक समय था जब पहाड़ में मनोरंजन के कोई साधन नहीं थे और गांव के लोग एक दिन इन मेलों में (थौल) जाकर अपना मनोरंजन तो करते ही थे। साथ में अपनी मनोकामना की पूर्ति की कामना कर नई मनोकामना की मनौती भी करते थे। जैसा कि पहले अवगत करवाया गया है कि यह थौल देवस्थलीय उत्सव जो देवी देवताओं के स्थलों विशेषकर पहाड़ की उन्नत चोटियों पर होती थी वहां जनसैलाब उमड़ता था। ऐसे लोकोत्सव को थौल की संज्ञा दी जाती है।

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कभी कभी यह समुदाय विशेष की संस्कृति के अंग हैं, चाहे परम्पराएं पुरानी हों या नित नवीन हों, यह मेले एक नवीन आनन्द व उमंग को प्रदान करती हैं। इन परम्पराओं से हम अतीत में अवश्य पहुंच सकते हैं अन्यथा एक दिन ऐसा भी आएगा कि हम उन आस्थाओं को भूल जाएंगे। इन मेलों में स्थानीय लोग ही नहीं दूर दूर से लोग आते हैं, श्रद्धालुओं से लेकर शौकीन लोग आते हैं तो व्यवसायी लोग भी आते हैं। तरह तरह के व्यापारी आकर्षक सामग्री के साथ लोगों को लुभाने का प्रयास करते हैं। आश्चर्य नहीं कि ग्रामीण परिवेश से नर नारी सजधज कर परम्परागत आभूषणों को धारण कर गाजे बाजे के साथ गांव गांव से स्थानीय लोग आते हैं, कुछ मिलने के लिए कुछ अपनी व्यथा शान्त करने के लिए तो कुछ लोकगीत गाने सुनने हेतु, तो कुछ लोकनृत्य में झूमने हेतु इनमें आते हैं। प्रत्येक मेले की अलग अलग पहचान है। जहां देवी मन्दिर, देव मन्दिर, रथ देवता का मन्दिर है वहां तो उसी देवी देवता के नाम से मेला लगता है, शेष कुछ स्थानों पर बहादुरी की याद में थौल लगते हैं।

वैशाख मास में देवभूमि उत्तराखंड में जगह जगह मेले आयोजित होते हैं। इसके दो तीन कारण समझ में आते हैं एक तो वसन्त ऋतु हर पेड़ पौधे में नूतनता, वही नूतनता अपने जीवन में उतारी जाय, दूसरे इस महीने जल दान का अत्यधिक महत्व है और तीसरे नई नवेली वधुएं अपनी ससुराल में रहती हैं तो इस बहाने अपने भाई बहिनों व अन्य सगे सम्बन्धियों से मुलाकात हो जाती है इसके अतिरिक्त अन्य कारण भी हैं। पर जो भी है कुछ ‘ऊमी’ (अधपके गेंहू को आग में भून कर बनाई गई चबेना) के बहाने नवान्न का स्वाद एक दूसरे को मिठास के रूप में बांटने हेतु भी जाते होंगे। मेष संक्रान्ति पर इस पर कुछ लिखा था (सम्पूर्ण वैशाख मास में देवभूमि में हर दिन थौल लगता है, इन मेलों के ऐतिहासिक महत्व को बनाए रखने की जिम्मेदारी हम सबकी है।) पर कल अचानक गुरु प्रसाद पन्त जी मिल गए तो कोटद्वारी खेत के थौल पर चर्चा हो गई व बचपन की याद ताजा हो गई। जब एक उमंग थी पांच चार मित्रों के साथ घूमने निकल जाते थे, कैच्छू कोटद्वार से लोग आते थे मेले में मिलाप व कुछ मिठाई अधिकांश ताजी ताजी जलेबी पकोड़ी, तब न आइस क्रीम थी न ठन्डा पेय था बस मण्डाण अवश्य लगता था कुछ लोग झूम जाते थे। अधिकांश लोग श्याम को अपने पशुओं के लिए चारा भी लाते थे, यह विशेषता भी अनुपम थी। इस मेले का उद्देश्य भी देव पूजन है, वर्ष भर के संकल्पों की पूर्ति करनी थी। भगवान घण्टा करण महादेव (घंडियाल) के निमित्त रोट प्रसाद व नवान्न भेंट आवश्यक था, घण्टाकरण महादेव (घंडियाल) जिसके मैती सजवाण बन्धु हैं और कोटद्वारी खेत में भव्य विशाल मन्दिर बनाने का श्रेय स्थानीय जनता के साथ वहां के पुजारी खाती बन्धुओं को है इसी परमेश्वर की कृपा से पेयजल योजना बनाई गई और उसका नामकरण भी घण्टा करण पेयजल योजना रखा गया है जो कुजणी, मखलोगी धार अकरिया, गजा और गजा से लगे गांवों की पेयजल समस्या का समाधान कर रही है। आज के लिए इतना ही भगवान भूतनाथ घण्टा करण महादेव (घंडियाल) की आज्ञा होगी तो उन पर फिर दो शब्द लिख पाऊंगा।

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