सुप्रभातम्: आखिर भगवान क्यों अवतार लेते हैं?

हिमशिखर धर्म डेस्क

हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥

श्री हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥

अवतारवाद की अवधारणा सनातन धर्म की अपनी देन है। एक पक्ष वह है, जो ईश्वर को निराकार मानता है। एक समूह जहाँ उसे निराकार और निर्गुण दोनों मानता है, तो दूसरा उसे केवल निराकार ही मानता है। वेदान्त का ब्रह्म निर्गुण, निराकार दोनों है। भारत में भी निराकार सगुणवादी संतों की एक परम्परा है। निर्गुण और निराकार वस्तुतः पर्यायवाची न होते हुए भी एक-दूसरे से अभिन्न हो गये हैं।

इस तरह ईश्वर को लेकर अगणित मत प्रचलित हैं और उनके पक्ष-विपक्ष में न जाने कितने तर्क-वितर्क प्रस्तुत किए गये हैं। पर ऐसा कोई तर्क नहीं है, जिसके विपक्ष में तर्क न दिया जा सके। ईश्वर के संबंध जो विभिन्न मत दिए गए, उन सभी में अपनी मान्यताओं को ही तात्त्विक समझ लेने का आग्रह है।

निराकार मानने के पीछे यह तर्क है कि, असीम ब्रह्म, एक ब्यक्ति के रूप में कैसे जन्म ले सकता है? फिर आकृति तो नाशवान है। ऐसे लोगों को यह भय सताता है कि, साकार मानते ही उसकी महिमा और निर्गुणता खंडित हो जायेगी।

वहीं सगुण साकारवादियों को यह प्रतीत होता है कि इस विराट् विश्व की रचना करने वाला, निराकार कैसे हो सकता है? अगणित रूपों की रचना करने वाला भी निश्चित रूप से स्वरूपधारी ही होगा। विभिन्न मान्यता वाले, अपनी मान्यता के अनुकूल ही साधना भी करते हैं और जब उन्हें सिद्धि मिलती है, तब उनका आग्रह और भी पुष्ट हो जाता है।

एक तीसरी धारणा भी है, जो इन दोनों का सामंजस्य स्वीकार करती है। इसकी मान्यता है कि एक ही ईश्वर, निराकार और साकार दोनों ही है। वही निर्गुण भी है और वही सगुण भी है–
निर्गुण सगुण विषम सम रूपं।
ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं।। (अरण्य कांड10-11)

वस्तुतः ईश्वर कैसा है, यह वाणी का विषय नहीं है। पर ब्यक्ति को जैसे ईश्वर की आवश्यकता होती है, वह वैसे ही गुण आरोपित कर लेता है और उसकी भावना के अनुसार उसके समक्ष, ईश्वर स्वयं को उसी रूप में प्रकट कर देता है-

जिन्ह कै रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी। तेहि तेहि के तसि तसि रुख राखी।।

मानस में महाराज मनु के दृष्टांत द्वारा मनुष्य के अंतःकरण में ब्याप्त अन्तर्द्वंद का एक प्रत्यक्ष उदाहरण प्राप्त होता है। मनु की बौद्धिक मान्यता थी कि ब्रह्म तो अगुण, अनंत अखंड तथा अनादि हैं। पर हृदय और नेत्रों की माँग दूसरी थी। वे चाहते थे, ईश्वर के सगुण साकार रूप के दर्शन।

उनका तर्क था कि, पिता का स्वरूप चाहे जैसा हो, पर बालक की इच्छानुसार, उसे वैसा स्वरूप प्रस्तुत करना चाहिए–

अगुण अनंत अखंड अनादी। जेहिं चिन्तहिं परमारथवादी।।
नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा।।
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस ते नाना।।
ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई।।
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा।।

श्रीरामचरितमानस में अवतार के कारणों की एक श्रृंखला प्रस्तुत की गयी है। उसमें गोस्वामीजी अवतार से संबंधित कई भिन्न धारणाओं को प्रस्तुत करते हैं। वे अनेक कल्पों की कथा के द्वारा, चार वक्ता और श्रोता के माध्यम से, इन्हीं विभिन्न धारणाओं को अभिवक्ति देने की चेष्टा करते हैं। इन चारों में से एक श्रोता गोस्वामीजी का अपना मन है।

एक भक्त होने के नाते वे अपने मन के साथ वार्त्तालाप करके, अपनी बैयक्तिक भावना और अभिलाषा प्रकट करते हैं।

दूसरी कथा में, वे सामूहिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए, अवतार-भूमिका की ब्याख्या करते हैं। रावण के अत्याचार से समाज संत्रस्त था, पर इससे छूटने का कोई उपाय दिख नहीं रहा था। पृथ्वी, मुनि, देवता सभी इसका समाधान पाने के लिए ब्यग्र थे। ऐसी स्थिति में उन्हें ब्रह्मा जी के द्वारा समाधान मिला कि, ईश्वर ही इस संकट से बचा सकता है।

पर ईश्वर है कहाँ? ईश्वर को सगुण साकार मानने वाले विभिन्न लोकों में उनकी उपस्थिति का वर्णन करने लगे–

बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइय प्रभु करिय पुकारा।।
पुर बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई।।
भगवान शंकर मध्यस्थ के रूप में कहते हैं कि ईश्वर सर्वब्यापक है, यह सत्य है।

निराकार को प्रेम और प्रार्थना के माध्यम से सगुण-साकार रूप में परिणत करना होगा। उसमें ममत्त्व और राग की सृष्टि करनी होगी,जिससे वह हमारी समस्याओं को देखकर, द्रवित हो जाय। उसमें दुखी जीव को कष्ट से मुक्त करने की करुणा उत्पन्न करनी होगी—-

तेहि समाज गिरिजा मैं रहेऊँ।अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ।।
हरि ब्यापक सर्वत्र समाना।प्रेम ते प्रगट होहिं मैं जाना।।
देस काल दिसि बिदिसहुँ माहीं।कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं।।
अग जगमय सब रहित बिरागी।प्रेम ते प्रभु प्रगटइ जिमि आगी।।
मोर बचन सब के मन माना।साधु साधु करि ब्रह्म बखाना।।

अतः एक ओर यदि अवतार, बैयक्तिक स्तर पर, जीव की हृदयस्थ भावना और कामनाओं की पूर्ति के लिए होता है, तो दूसरी ओर वह समग्र समाज की समस्याओं का समाधान देने की भूमिका भी निभाता है।

विभिन्न युगों की समस्यायें, स्वाभाविक रूप से भिन्न होती हैं, इसलिए प्रत्येक युग में अवतारों की भूमिका पृथक-पृथक दिखाई देती हैं। यद्यपि स्थूल रूप से यही कहा जाता है कि समाज में जब जब धर्म की हानि और अधर्म की विजय होती है, अधम असुरों का अत्याचार प्रबल हो जाता है,तब-तब भगवान अवतार लेते हैं, और दुष्टों का संहार करके सज्जनों की पीड़ा का हरण करते हैं–

जब जब होइ धरम कै हानी।बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी।।
करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।सीदहिं विप्र धेनु सुर धरनी।।
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा।हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा।।

असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु।।

श्रीमद्भागवतगीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं अपने श्रीमुख से इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं–
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।

परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।

धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे।।

युग की परिभाषा काल मर्यादा के अनुकूल ही की गयी है, जिसमें युगों की संख्या चार बताई गयी है (सतयुग, त्रेता, द्वापर, कलियुग) प्रत्येक युग की भिन्नता और उसका मनःस्थिति पर प्रभाव का भी संकेत मिलता है। अंत में यह भी बताया गया कि अमुक युग में भगवान इस रूप में अवतरित होंगे। इस तरह काल की ब्यवस्था गणित के समान अत्यंत सुनियोजित प्रतीत होती है। यदि मनःस्थिति की दृष्टि से युगों का विभाजन करें,तो सारी ब्यवस्था परिवर्तित हो जायगी।

क्या काल विशेष में विश्व के विविध देशों में नागरिकों की मनःस्थितियाँ समान होती हैं? और इससे भी आगे बढ़कर देखें तो क्या किसी ब्यक्ति की मनःस्थितियाँ सर्वथा एक रस होती हैं? इसका उत्तर सर्वथा नकारात्मक ही होगा।अंतर्जीवन की दृष्टि से यह समस्या जटिल है।

युग चक्र के अनुसार वर्तमान काल कलियुग में भी भिन्न भिन्न देशों की परिस्थिति और विचार प्रवाह में अंतर स्पष्ट दीखता है। हमारे देश के निवासियों में भी मानसिक स्तर में भेद दीखता है। अतः अंतर्मन की अवस्थाओं की दृष्टि से अवतारों के रहस्यों को एक भिन्न रूप में आत्मसात् किया जा सकता है।

गोस्वामीजी, विनयपत्रिका के एक पद में अपनी मानसिक समस्याओं की ओर प्रभु का ध्यान आकृष्ट करने की चेष्टा करते हैं–
कृपा सो धौं कहाँ बिसारी राम।
जेहि करुना सुनि श्रवन दीन-दुख,धावत हौं तजि धाम।।
नागराज निज बल बिचारि हिय,हारि चरन चित दीन्हों।
आरत गिरा सुनत खगपति तजि,चलत बिलंब न कीन्हों।।
दितिसुत-त्रास-त्रसित निसिदिन प्रहलाद प्रतिग्या राखी।
अतुलित बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज हत्यो श्रुति साखी।।
भूप-सदसि सब नृप बिलोकि प्रभु,राखु कह्यो नर नारी।
बसन पूरि,अरि-दरप दूरि करि,भूरि कृपा दनुजारी।।
एक एक रिपुते त्रासित जन,तुम राखे रघुबीर।
अब मोहिं देत दुसह दुख बहुरिपु कस न हरहु भव पीर।।
लोभ-ग्राह,दनुजेस-क्रोध कुरुराज-बंधु खल मार।
तुलसिदास प्रभु यह दारुन दुख भंजहु राम उदार।।(वि.प.-93)

इस पद में वे पुराणकाल की विभिन्न घटनाओं का चिंतन करते हैं।सबसे पहले उन्हें गज-ग्राह की कथा का स्मरण हो आता है। वे प्रभु को याद दिलाते हैं कि जब गजेन्द्र ने हृदय से हार मानकर आपके चरणों में चित्त लगाया, तब आपने उसकी आर्त्त पुकार सुनकर उसकी सहायता की।

पुनः उन्हें प्रह्लाद व हिरण्यकशिपु की कथा का स्मरण आता है। फिर उनका ध्यान भगवान श्रीकृष्ण की उस लीला की ओर जाता है, जब वे नग्न की जा रही द्रोपदी की, वस्त्रावतार ग्रहण कर उसकी लज्जा की रक्षा करते हैं।

गोस्वामीजी इस पद में भगवान के तीन भिन्न भिन्न अवतारों का स्मरण करते हैं। गोस्वामीजी अपने जीवन में इन तीनों समस्याओं को एक साथ पाते हैं और उसकी बड़ी मार्मिक आध्यात्मिक ब्याख्या इस प्रकार करते हैं।

पुराणों में गज-ग्राह की कथा बहुचर्चित है। आप सभी जानते हैं, किस प्रकार गजराज की पुकार पर आकर प्रभु चक्र से ग्राह का सिर काट देते हैं। गोस्वामीजी को लगता है कि यह तो प्रत्येक लोभ ग्रस्त ब्यक्ति का चित्र है। ब्यक्ति का पुरुषार्थ ही गज है और वह लोभ के ग्राह के द्वारा ग्रस लिया गया है। मानवीय पुरुषार्थ कितना ही प्रबल क्यों न हो,पर लोभ का ग्राह अधिक शक्तिशाली होने से उसे निगल जाता है।

अतः लोभग्रस्त ब्यक्ति का अधोगामी बृत्तियों के कारण पतन होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में प्रभु कृपा ही उसे लोभमुक्त बना सकती है।

दूसरा दृष्टांत हिरण्यकशिपु का देते हुए गोस्वामीजी इसे मूर्त्तिमान क्रोध का प्रतीक मानते हैं। क्रोध का उदय द्वैत बुद्धि के कारण ही होता है-
क्रोध कि द्वैत बुद्धि बिन द्वैत कि बिनु अग्यान।
माया बस परिच्छिन्न जड़ जीव कि ईस समान।।

हिरण्यकशिपु के क्रोध का केन्द्र उसका अपना पुत्र प्रह्लाद है,जिसे वह क्रोध के आधिक्य में विनष्ट करने पर तुल जाता है। प्रह्लाद की दृष्टि अद्वैत परक है। और उन्हें हिरण्यकशिपु पर भी क्रोध नहीं आता, क्योंकि सर्वत्र उन्हें प्रभु का ही दर्शन होता है।

इसलिए गोस्वामीजी स्वयं में जब कभी क्रोध देखते हैं, तब उन्हें लगता है कि क्रोध रूपी हिरण्यकशिपु आज भी उनके अंतःकरण में जीवित है।

तत्पश्चात उनकी दृष्टि द्रोपदी के चीरहरण की ओर जाती है, जब दुःशासन द्रोपदी को नग्न करने की चेष्टा करता है।

गोस्वामीजी की दृष्टि में यह दुःशासन हमारे अंतःकरण में विद्यमान, काम है। काम के साथ नग्नता की बृत्ति जुड़ी हुयी है।पर नग्नता के लिए भी ब्यक्ति एकान्त की खोज करता है। भरी सभा में नारी को नग्न करने की चेष्टा, कामान्धता की पराकाष्ठा है।

जब वह स्वकीय-परकीय का ध्यान किए बिना, भरी सभा में नारी को नग्न करने में लज्जा का अनुभव नहीं करता, उस समय प्रभु वस्त्र बृद्धि के द्वारा द्रोपदी की लज्जा की रक्षा करते हैं।

ऐसे अमर्यादित काम की बृत्ति को,जब गोस्वामीजी निज जीवन में अनुभव करते हैं, तब वे अपने प्रभु को पुकार उठते हैं नाथ! आपने तीन रूपों में अवतरित होकर, प्रत्येक युग की समस्याओं का निराकरण किया।

पर मेरे जीवन में लोभ, क्रोध और काम, तीनों ही समस्यायें, एक साथ आज भी विद्यमान हैं। आप उन्हें विनष्ट कर मेरी रक्षा कीजिए।

इस तरह गोस्वामीजी समस्त अवतारों की अभिन्नता में अपना विश्वास प्रगट करते हुए, प्रत्येक रूप के द्वारा की गयी प्रभु की पृथक-पृथक लीलाओं को अत्यंत सार्थक और उपादेय मानते हैं।

ये सारी लीलायें ब्यक्ति के अन्तर्जीवन की बिबिध समस्याओं को दृष्टिगत रखकर ही समाधान हेतु की गयी हैं, ऐसा उनका विश्वास है।

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